असामाजिक होने की परिणति

November 2001

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मानवी जीवन जितना सरल प्रतीत होता है, उतना वह है नहीं। उसमें कठिनाई, जटिलता, अवरोध और अड़चनें इतनी है कि पग-पग पर व्यक्ति को उनसे दो-चार होना पड़ता है। अनेक बार वह ऐसे क्षणों में गहरे अवसाद में डूब जाता और अपनी ओर से भरपूर प्रयास करने पर भी उससे उबर नहीं पाता है। ऐसे ही मौकों पर प्रेरणा, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन, मंत्रणा जैसे महत्त्वपूर्ण तत्व उसे उस विषय स्थिति से उबारते और सामान्य मनोदशा में लाते हैं। इसलिए सामाजिकता के महत्व को हर एक ने स्वीकारा और उसे अपनाए जाने पर बल दिया है। जिनके लिए समाज का महत्व सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखने भर तक सीमित है और जो इससे आगे संपर्क रखने की आवश्यकता महसूस नहीं करते, समाज से नहीं घुलते-मिलते उनका चिंतन इतना एकाँगी हो जाता है कि कई बार वे ऐसे निर्णय ले लेते हैं जो भयावह होते हैं।

ऐसा ही एक प्रसंग बिहार के बेरमो प्रखंड के अमलो नामक ग्राम का है। उक्त गाँव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार के मुखिया शिवनंदन पाँडेय थे। वे अपने छह सदस्यीय परिवार का निर्वाह पौरोहित्य कर्म द्वारा करते थे। उनके चार संतानें थीं- तीन पुत्र, एक पुत्री। पुत्र जब तक छोटे थे, उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। प्रायः निकलकर वे सायं ही घर लौट पाते। बच्चे कुछ बड़े हुए, तो स्कूल जाने लगे। गाँव में प्राथमिक पाठशाला थी। वहाँ शिक्षा पूरी हुई तो गाँव से 4 कि. मी. दूर मिडिल स्कूल में भरती हुए। वहाँ की पढ़ाई पूर्ण करने के बाद उनकी शिक्षा रोक दी गई। बच्चों के बड़े होने के साथ परिवार की आवश्यकताएं बढ़ने लगीं। लड़की की शादी के लिए भी कुछ धन संग्रह करना था, अतएव अब वे उन्हें कर्मकाँड सिखाने लगे, ताकि छोटे-मोटे पूजा-विधान वह भी संपन्न कराकर संपत्ति कमाने में पिता का सहयोग कर सकें।

चारों संतानों की उम्र अब क्रमशः 17, 15, 12 एवं 8 वर्ष की हो चुकी थी। लड़की सबमें बड़ी थी। उस परिवार में एक विचित्र बात यह थी की बच्चों के पाठशाला जाने, पिता के पुरोहिताई कराने और माँ-बेटी के गाँव के कुएं से पानी लाने- इतने तक ही उनका सामाजिक संपर्क सीमित था। शेष समय में उनकी छोटी सी दुनिया अपने घर तक ही परिमित रहती। न किसी के यहाँ आना-जाना, न गाँव में किसी से बात करना, यह उस परिवार का स्वभाव था, फलतः शेष बस्ती से उनका संपर्क लगभग नहीं के बराबर था।

आदमी जब समाज से कटकर अर्द्ध सामाजिक बनता है, तो उससे उसे दो प्रकार की हानि होती है प्रथम, आड़े समय में साथ देने वाला कोई नहीं होता और द्वितीय दुःखों को दूसरों का सुनाकर जी हलका करने तथा उसे बटाने वाला भी काई नहीं होता। उस परिवार के अलग-थलग रहने की प्रवृत्ति के कारण विवाह समारोहों एवं धार्मिक अनुष्ठानों जैसे सार्वजनिक जीवन के कार्यों में वे सदा अनुपस्थित रहते। जीवन की जटिलताओं को समझने, धैर्यपूर्वक उनका सामना करने और विवेकसम्मत समाधान निकालने जैसे प्रसंगों से वे सदा अनभिज्ञ रहे।

समाज कुम्हार के अवे के समान हैं। उसकी विसंगतियों में तपकर मनुष्य इतना अधिक सुदृढ़ हो जाता है कि प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी उसे नहीं डिगा पातीं। फिर विपरीतताओं के एवरेस्ट के मध्य भी वह ऐसा अलमबरदार बनकर प्रस्तुत होता है कि अटल चट्टानें भी राजमार्ग देने के लिए विवश हो जाती हैं।

इस गुण का उक्त परिवार में विकास नहीं हो सका था, अतएव छोटी-से-छोटी कठिनाइयाँ भी उन्हें विचलित कर जाती, पर पिता परिपक्व और अनुभवी थे। ऐसे मौकों पर वे सबको संबल देते, स्थिति संभलती तो परिवार की गाड़ी फिर से पुरानी पटरी पर लुढ़कने लगती।

अब सब बालक बड़े हो गए थे। लड़की की शादी हो चुकी थी। बड़े लड़के का विवाह अभी-अभी संपन्न हुआ था। मंझले की कोल इंडिया में नौकरी लग गई थी। कुल मिलाकर परिवार की आर्थिक स्थिति संतोषजनक थी। पिता अपने पूजा-पाठ के पैतृक धंधे में लगे हुए थे। अब बड़े और छोटे पुत्र भी उनके साथ जाने लगे। रविवार को मंझले की छुट्टी रहती। उस दिन वह भी साथ हो लेता। जब चारों पिता-पुत्र एक साथ घर से निकलते, उस समय का दृश्य बड़ा ही रोचक होता। सब अपनी-अपनी साइकिलों पर सवार होकर घंटी बजाते, राहगीरों से बचते-बचाते एक लाइन में चलते हुए एक चौराहे पर पहुँचते और वहाँ से चार दिशाओं में अपने-अपने क्षेत्र की ओर चल देते, फिर शाम तक लौटकर घर आते। यह उनका नियमित क्रम था।

इस क्रम में व्यवधान तब पैदा हुआ, जब एक दिन पिता बीमार पड़ गए। वास्तविक मुसीबत का आरंभ यहीं से हुआ। बढ़ती आयु, बूढ़ा, अशक्त अंग, दुर्बल अवयव आखिर कब तक इस भाग दौड़ को बर्दाश्त कर पाते, एक-न-एक दिन तो उन्हें क्षीण होना ही था, सो वह शय्याशायी हो गए। खूब इलाज कराया गया, अच्छी-से-अच्छी दवाएं दी गई, पर वे ठीक न हो सके। एक शाम अस्पताल में परलोक सिधार गए।

पत्नी इस घटना से व्याकुल हो उठी। उसका संकीर्ण दृष्टिकोण सक्रिय हो उठा। पुत्रों को वह समझाने लगी कि जब पिता ही न रहे, तो हम सब जीकर क्या करेंगे? अब यह जीवन व्यर्थ है, इसे त्याग देना चाहिए। पुत्रों की सीमित सोच वाले मस्तिष्क में यह चिंतन गहराई तक पैठ गया। माँ के विचारों पर सहमति व्यक्त करते हुए कोई योजना बनाने में निमग्न हो गए।

सोच जब निषेधात्मक बनती है, तो वह परिणामों की चिंता कहाँ करती है, विवेक रहे, तो भले-बुरे का ज्ञान हो पर वह तो पहले ही मर जाता है। फिर जीवन-मरण दोनों समान प्रतीत होने लगते हैं। न जीने में खुशी का एहसास होता है, न मरने के नाम पर दुःख। जिस सुरदुर्लभ मनुष्य तन के लिए करोड़ों जन्मों तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है और जो सर्वोच्च विकास का उपयुक्त और अनुकूल शरीर है, उसे एक झटके में त्याग दिया जाता है, उसमें कुछ सुन्दर-श्रेष्ठ करके भगवान के दरबार में अपनी योग्यता साबित करें। पर ऐसा कहाँ हो पाता है? चिंतन जब गूलर के भुनगे की तरह बंद परिपथ में घूमने लगे, तो परिणाम भयंकर होता है। हुआ भी यही। एक दिन उसके घर से धुएं का गुबार उठता दिखलाई पड़ा। गाँव वालों ने पूछताछ की तो बताया कि बहुत सारे पुराने पन्ने इकट्ठे हो गए थे, उन्हीं को अग्नि की भेंट कर रहा हूँ, जबकि सचाई इससे भिन्न थी। उन लोगों ने सर्वप्रथम आँगन में एक बड़ा गड्ढा खोदकर घर के सारे बरतन उसमें डाल दिए। फिर उसे ढ़ककर उस पर दक्षिणा से प्राप्त नए-पुराने कपड़ों की होली जलानी शुरू की। जितने जला सके, जलाए। उसके बाद एक टैक्सी बुलवाई गई। घर के सारे सदस्य उसमें सवार हो गए। पूछने पर बताया गया कि पिकनिक पर जा रहे है। तदुपराँत वे मुँगेर के निकट एक झीलनुमा जलाशय पर पहुँचे। योजनानुसार वहाँ एक झाड़ी की आड़ में जाकर विष घोला गया। फिर सबने उसका एक-एक प्याला पिया। बहू और उसकी ढाई वर्षीय बेटी भी साथ में थी योजना से अनभिज्ञ बहू को कुछ शक हुआ। उसने उसे पीने से इनकार किया, तो माँ-बेटी के मुँह में बलपूर्वक उसे उड़ेल दिया गया। तत्पश्चात बहू को लेकर सबने उसमें छलाँग लगा दी। जहर ने असर दिखाया, बाकी सब बेहोश होकर डूब गए, किन्तु माँ-बेटी कम पीने के कारण बच गई। राहगीरों ने उन्हें निकाल लिया और पुलिस को सूचना दी। बाद में चारों लाशों को भी निकाल लिया गया। इस प्रकार गाँव से कटकर रहने, विचारों का आदान-प्रदान न होने और व्यापक चिंतन के अभाव में एक परिवार का दुःखद अंत हो गया।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे हर वक्त प्रेरणा, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन की जरूरत पड़ती है। यदि वह सामाजिकता का परित्याग कर एक सीमित दायरे में सीमाबद्ध हो जाए, तो चिंतन को जो पोषण और प्रखरता जनसंपर्क से मिलनी चाहिए, वह बंद हो जाती है। ऐसी स्थिति में प्रतिगामी सोच आदमी को वह सब करने के लिए प्रेरित करती हैं, जो लोमहर्षक घटनाक्रम के रूप में ऊपर घटित हुआ।


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