आत्म-उजास की थाती-महापर्व दीपावली

November 2001

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उत्सवधर्मिता भारतीय संस्कृति का सनातन संस्कार रहा है। जीवन रस का सामूहिक गान ही त्यौहारों की मूल संवेदना है। इस रूप में दीपावली आर्य संस्कृति की महत् गरिमा से मण्डित दीपों के प्रकाश का महान साँस्कृतिक पर्व है। युगों से ज्ञान का यह आलोक प्रवाह सभ्यता के घाटों को प्रदीप्त करता रहा है। आलोक पर्व, दीप पर्व, प्रकाश पर्व, दीपोत्सव, दीपमालिका, दीपावली, सुखरात्री या यक्षरात्रि आदि अनेक रूपों से विख्यात यह पर्व आत्मोद्धार का प्रतीक होने के साथ-साथ तपोनिष्ठ जीवन की गरिमा भी सँजोता है।

दीपावली हमारी ज्ञान-गामिनी साँस्कृतिक धरोहर है। यह उतनी ही पुरानी एवं प्राचीन है जितनी कि स्वयं संस्कृति। हमारी संस्कृति में सुख हो या दुःख दोनों अवस्थाओं में प्रकाश करने की परम्परा रही है। वैदिक काल में यह प्रकाश अग्नि रूप में था, बाद में मंदिर के आरती-दीप के रूप में प्रतिष्ठित हो गया। इस प्रकार वैदिक काल के वर्तमान तक दीपों की गौरवमय गरिमा से संयुक्त इस पर्व की ऐतिहासिक, साँस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं मौलिक महत्ता के आलोक में दीपावली का अनुष्ठान किया जाता रहा है। एक ओर दीपावली जहाँ बुराई पर अच्छाई की जीत एवं भाईचारे का पर्व है, वहीं दूसरी ओर अंधकार को निराशा और प्रकाश को आशा का प्रतीक मानकर दीपों की शृंखला प्रज्वलित कर अंधकार दूर भगाने की प्रकृति का त्यौहार है। दीपावली, आत्म उजास की थाती है। मान्यता है कि होली महोत्सव है और दशहरा महानुष्ठान, जबकि एकमात्र दीपावली ही सम्पूर्ण अर्थों में महापर्व है।

अमावस्या को आयोजित होने वाला दीपावली का पर्व महालक्ष्मी के आह्वान के साथ ही मानव के द्वारा अज्ञान और अंधकार के पराजय एवं पराभव का पर्व है। इस दिन दीपों का प्रकाश कर हम दीप प्रज्वलन की पुरातन परम्परा को गतिमान बनाते हैं। तथा दीप्ति रूप प्रकाश के सतोगुणी स्वरूप से आत्मा का साक्षात्कार कराते हैं। दीपदान की प्रथा समस्त विश्व में पुरातन काल से विद्यमान रही है। पहले वनस्पति पूजा की शुरुआत हुई। तत्पश्चात् ज्योतिर्मय लिंग की पूजा के साथ प्रदीप की तेजोमय आभा एकीभूत हो गयी। शास्त्रों की उक्ति है- ‘दीपो ज्योतिः ज्योति जनार्दनः।’ दीप हमारी आस्था के सबसे सनातन प्रमाण है। महाकवि अश्वघोष ने सौदरानेक में मोक्ष की उपमा दीपक की निर्वाण दशा से दी है। कालजयी महाकवि कालिदास प्रदीप्त दीपों की कतारों को देखकर कह उठते हैं- प्रवर्तिनों दीप इव प्रदीपात्।

दीपावली का धार्मिक पर्व के रूप में सर्वप्रथम सम्यक् विवेचन भविष्य पुराण में मिलता है। मात्र लौकिक मान्यताओं, वैभव एवं प्रदर्शन से पृथक् पद्म पुराण ने इस पर्व को शालीन एवं सुसंस्कारित आवरण पहनाकर धार्मिकता एवं सात्विकता से ज्योति मण्डित किया है। अन्य साहित्य धाराओं में दीपावली का लौकिक परिदृश्य प्रकट होता है। गुह्य सूत्रों के अनुसार चन्द्र संवत्सर नववर्ष के प्रारंभ होने के कारण दीप पर्व पर सफाई आदि की जाती थी। बुद्धघोष का राजगृह इसी महापर्व पर सजता था और धम्मपद अल्प कथा के अनुसार कौमुदी महोत्सव का आयोजन इसी शुभ पर्व पर रात्रि भर चलता था।

दीपावली की पर्व शृंखला संस्कृति की अनेक धाराओं को स्थान देती हैं। यह पर्व एक साथ पाँच पर्वों की लड़ी हैं। पहला पर्व त्रयोदशी की धनतेरस में पड़ता है। पौराणिक कथानुसार सागर मंथन के समय अमृत घट उत्पन्न हुआ था जिसे विष्णु के एक अंश धन्वन्तरी लेकर प्रकट हुए थे। इसी स्मृति में धनतेरस की व्रत-पूजा होती है। त्रयोदशी की संध्या में यमदीप दान का अनुष्ठान किया जाता है।

इसके बाद का दिन नरक चतुर्दशी, पितरों को अर्घ्यदान देने का पर्व है। इसके पीछे मान्यता है कि श्रीकृष्ण ने इसी दिन नरकासुर का वध किया था। अमावस्या की रात्रि में दीपोत्सव मनाया जाता है। धर्मसिन्धु के अनुसार इस दिन मनुष्य देवों से अपने पितरों की परम गति के लिए प्रार्थना करते हैं। दीपावली के बाद प्रतिपदा आती है। यह प्रारंभ में नवान्न पूजा का पर्व था जो बाद में अन्नकूट पूजा में परिवर्तित हो गया।

लोक परम्परा में दीपावली की रात को मुख्यतया लक्ष्मी गणेश के संयुक्त पूजा का विधान है। यह वस्तुतः समृद्धि एवं सद्बुद्धि दोनों की आराधना के साथ श्रेष्ठ मूल्यों एवं आदर्शों की स्थापना है। लक्ष्मी समृद्धि, विभूति एवं सम्पत्ति की देवी है और गणपति सद्बुद्धि एवं सद्ज्ञान के सर्वसमर्थ देवता। समृद्धि का तात्पर्य विलासिता नहीं है, बल्कि यह सत्कर्मों में नियोजन है। सद्बुद्धि के प्रकाश में ही समृद्धि का सुनियोजन संभव है। अतः सद्बुद्धि के अभाव में समृद्धि हितकारी नहीं हो सकती और विपुल बुद्धि भी धनाभाव के कारण मंद पड़ जाती है।

वैदिक पुरुषसूक्त से पुराणों तक लक्ष्मी परमेश्वर की ऐश्वर्यशक्ति के रूप में प्रकाशित हैं। इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि लक्ष्मी केवल बाहरी वस्तु नहीं है, यह वस्तुतः आत्मविभूति है जो बीज रूप में सारे प्राणियों के अन्दर विद्यमान है। परन्तु जो अपनी आत्मज्योति को प्रकाशित कर पाता है वही इससे यथार्थ रूप में लाभान्वित होता है। महर्षि मार्कण्डेय भी इसे कोई बाह्य वस्तु न बताकर आन्तरिक तत्त्व की संज्ञा देते हैं। मानव के आभ्यन्तर में जो सार्वभौम शक्ति विद्यमान है वही बाह्य सम्पत्ति का का अर्जन विसर्जन करती रहती है। तभी तो लक्ष्मी कमल पर आसीन है। कमल विवेक का प्रतीक है, पंक से उत्पन्न होकर भी पंक रहित स्वच्छ, पावन, सुगन्धित। सम्पत्ति तभी वरेण्य है जब वह पवित्रता पर आधारित हो।

दीपावली अर्थात् दीपों की अवली याने कि प्रकाशित दीपों की पंक्तियाँ, जिन्हें देख कर कुछ यूँ लगता है कि नन्हें-नन्हें दीप संघर्षशील मानवीय चेतना के प्रमाण बनकर जग से तम को हर लेने की कोशिश करने में जुटे हैं। इन प्रकाशित दीपों से यह सत्य भी प्रकट होता है कि जीवन में स्नेह (प्रेम) बना रहे तो प्रकाश की कमी नहीं पड़ती। भावनात्मक टूटन से प्रायः जीवन में अंधेरा फैल जाता है। यदि हमारे जीवन का प्रत्येक कोना भावना और साधना की परम ज्योति से ज्योतित हो। और हमारा प्रत्येक आचरण कर्म और आदर्श से मण्डित हों तो न केवल जीवन प्रकाश से पूर्ण होगा बल्कि हम लक्ष्मी की वैभव -विभूति, उसकी श्री-सम्पदा से भी लाभान्वित होंगे।

दीप पर्व के अनुष्ठान की सार्थकता तभी है जबकि हमारे अन्दर ज्ञान और प्रेम की ज्योति जल उठे। इस ज्योति का प्रकाश ही बाह्य जीवन को विभूति और वैभव से सम्पन्न और सक्षम बनाने में समर्थ है। इस पावन बेला में दीपों की पंक्तियाँ कुछ इस तरह से जगमगाएँ कि विश्व में सद्बुद्धि की उजास बढ़े। सद्बुद्धि का यह उजाला ही समृद्धि को सुरक्षित और विकसित करने का आधार है। सद्ज्ञान और सद्बुद्धि के साथ समृद्धि का समन्वय ही इस पर्व की प्रेरणा है। हमारे जीवन में यह चरितार्थ हो तभी दीपावली मनाने की सार्थकता है।


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