देवपूजन का मर्म - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

November 2001

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ-

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!

देवियो, भाइयो! देवता का अनुग्रह पाने के लिए देवता का पूजन करना आवश्यक है। इसके बिना देवता प्रसन्न नहीं हो सकते, देवता का अनुग्रह नहीं मिल सकता, देवता का प्यार नहीं मिल सकता, देवता की कृपा नहीं हो सकती। देवता का पूजन करने के लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है, अगर हम उसे बताने लगें, तो बात लंबी हो जाएगी। इसलिए पंचोपचारपरक देवपूजन की व्याख्या तो मैं यहाँ नहीं कर सकता। लेकिन इस पंचोपचार की व्याख्या मैंने हजारों बार की है, जिंदगी भर की है और सारी जिंदगी भर करूंगा, ताकि आपकी देवात्मा पर आस्था बनी रहे।

अपना निर्धारण स्वयं करें

अगर आप सच्चे अध्यात्मवादी हैं तो आप या तो हिन्दू हो जाइए या मुसलमान हो जाइए। नहीं साहब! हम मरना भी नहीं चाहते और जिंदा भी नहीं होना चाहते हैं। तो फिर क्या होना चाहते हैं? अच्छा तो वही रहिए जो आप इस समय हैं। इस समय न आप मरे हुए हैं और न जिंदा हैं। न आप भौतिकवादी हैं और न अध्यात्मवादी हैं। अगर आप भौतिकवादी हैं तो कम्यूनिस्ट हो जाइए। यह आपकी मर्जी है कि आप भगवान का नाम नहीं लेंगे और आप अगर अध्यात्मवादी हैं तो सच्चे मायने में अध्यात्मवादी हो जाइए, जैसा कि हम आपको सिखाते हैं। जिस तरह हम आपको सिखाते हैं, उस तरह का अध्यात्मवाद भी आपको मंजूर नहीं और उस तरह का कम्यूनिज्म भी मंजूर नहीं। अतः कम्यूनिज्म भी आपके लिए उतना ही मुश्किल-कठिन है, जितना की अध्यात्म।

मित्रो! कम्यूनिज्म भी यह सिखाता है कि आप मशक्कत कीजिए और अपनी योग्यता बढ़ाए। इससे कम में कुछ नहीं मिल सकता। आप वह भी नहीं करना चाहते। नहीं साहब, हमको तो ऐसे दिलवाइए, जादू से, चमत्कार से दिलवाइए। कम्यूनिस्ट जी, हाँ साहब! बताइए आपको चमत्कार पर विश्वास है? मशक्कत पर विश्वास है? आपको मशक्कत इसलिए कहा जाएगा तो आपका अध्यात्म गायब हो जाएगा, फिर आप क्या करेंगे? साईं बाबा की पूजा करेंगे, मनसा देवी की पूजा करेंगे। क्या करेंगे इनकी पूजा करके? कम्यूनिज्म बहुत कष्टसाध्य है, उसे आप बर्दाश्त नहीं कर सकते। प्रत्येक क्रिया के लिए आपको उचित मूल्य चुकाना पड़ेगा और अपनी क्षमता का विकास करना पड़ेगा। आपको वह भी मंजूर नहीं है और यह भी मंजूर नहीं है, फिर आप क्या है? मैं नहीं जानता कि आप क्या हैं?

ऐसी स्थिति में यही कहा जा सकता है कि न आप हिन्दू हैं, न आप मुसलमान हैं, न आप पशु हैं, न आप पक्षी हैं और न आप भौतिकवादी हैं और न अध्यात्मवादी है। भौतिकवादी आपकी इच्छाएं हैं और अध्यात्मवादी आपकी क्रियाएं हैं। आप अध्यात्मवादी इच्छाएं कीजिए और भौतिकवादी क्रियाएं कीजिए। नहीं साहब! हम भौतिकवादी इच्छाएं रखेंगे और अध्यात्मवादी क्रियाएं करेंगे। बेटे यह कैसे हो सकता है? ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए आपको एक कदम आगे बढ़ाना चाहिए।

देवपूजन का शिक्षण

मित्रो! पाँच चीजें हैं, जो देवताओं के पूजन में लगानी पड़ती हैं। आखिर ये क्या हैं? बेटे ये इशारे हैं। किसके इशारे हैं? वे उसी के लिए हैं, जो अध्यात्म का मूल उद्देश्य हैं, ‘आत्मसंशोधन’। सारा-का-सारा अध्यात्म इसी पर खड़ा हुआ है। बेटे, इसलिए मैं कहता हूँ कि हमको अपने आपकी सफाई करनी चाहिए। सचाई पैदा करने के लिए परिश्रम करना चाहिए। यही श्रद्धा है। देवपूजन के लिए मैंने कितनी बार आपको बताया है, कितनी बार व्याख्याएं की हैँ। आपको मैंने हमेशा यही कहा है कि धूपबत्ती जलाने का मतलब अपने जीवन की सुगंध को फैला देना है, जिसे सूँघकर आदमी को प्रसन्नता हो। गंदगी को सूँघकर नाक फड़फड़ाती है और व्यक्ति कहता है कि अरे साहब! कहाँ से बदबू आ रही है। दूसरी ओर खुशबू को सूँघकर मन प्रसन्न हो जाता है और कहता है कि यहाँ तो बड़ी खुशबू आ रही है। यह तो जबाकुसुम-सी मालूम पड़ती है।

देवपूजन में हम धूपबत्ती जलाते हैं, जिसका मतलब है कि हमारा जीवन और हमारा व्यक्तित्व ऐसा हो जिसकी सुगंध, जिसकी खुशबू जहाँ कहीं भी जाए, वहाँ हर आदमी की तबियत खिल पड़े, प्रसन्न हो जाए। अच्छा मान लीजिए, यहाँ आप मोहनलाल का जिक्र कर रहे हैं। हाँ साहब! क्या कहना उनके व्यक्तित्व को। बेचारे संत थे। जब हम उनकी दुकान पर गए, तो उन्होंने कहा कि जो चाहिए शाँतिपूर्वक ले जाइए। पैसे भी आपके जमा हैं। आप सारे बाजार में घूम आइए। अगर कोई माल हमारे माल से एक पैसे कम में भी मिलता हो तो आप उस चीज को ले जाना। हमारे यहाँ बेईमानी का कोई चक्कर नहीं है। खराब माल दिखाई पड़े, तो आप घर से वापस ले आना, हम आपको ठीक चीज देंगे और सही कीमत पर देंगे। साहब! मोहनलाल ऐसे व्यक्ति थे। उनका बोलना, बातचीत करना, व्यवहार क्या शानदार था कि उसके क्या कहने? उसने इस तरह देखा। उसने उससे प्रशंसा की और उसने उससे। इस तरह उनकी खुशबू फैलती गई। इसे कहते हैं व्यक्तित्व की खुशबू।

मित्रो! धूपबत्ती का मतलब यह नहीं है कि आप एक लकड़ी को जला दें और सुगंध फैला दें। उस धूपबत्ती से देवता प्रसन्न नहीं हो सकते। उससे आपके कमरे की सफाई हो सकती है। इससे आपका कमरा जरूर खुशबूदार हो जाएगा, लेकिन आपकी धूपबत्ती भगवान तक नहीं पहुँच सकती, क्योंकि भगवान बहुत दूर रहते हैं। भगवान जहाँ रहते हैं, वहाँ आपकी अगरबत्ती का धुआँ कैसे पहुँच सकता है? वहाँ तो केवल आपकी जिन्दगी की महक ही पहुँच सकती है।

इसी तरह दीपक जलाने का मतलब मैंने कई बार आपको बताया है। कई बार तो मैं इसका मखौल उड़ाने लगता हूँ और कहने लगता हूँ कि भगवान की आँखों में लाइट अभी ठीक है। सभी कुछ दिखाई पड़ता है। सूरज-चाँद निकलते रहते हैं। मैं उन लोगों का मजाक उड़ाता हूँ, जो यह ख्याल करते हैं कि केवल दीपक जलाने से भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं। कई लोग मुझसे बहस करने लगते हैं और कहते हैं कि गुरुजी! किसका दीपक जलाएं? कोई कहता है कि हमारे यहाँ गाय का घी है, तो कोई कहता है कि भैंस का घी है। मैं उनसे यही कहता हूँ कि गाय का है तो उसे ही जला लिया करें। भैंस का है तो उसे जला लें। वे कहते हैं कि अभी तो आप गाय का कह रहे थे। बेटा मैं क्या कह रहा हूँ, बात तो कुछ समझता नहीं है, केवल ‘गाय का घी’ या ‘भैंस का घी’ के झगड़े में पड़ा है। असलियत को समझना नहीं चाहता।

काया का दीपक व भावना का घी

मित्रो! काया को दीपक और भावना को घी कहते हैं तथा श्रम को बत्ती कहते हैं और उसके भीतर जो प्रकाश काम कर रहा है, वह अंतरात्मा का है। हमारी अंतरात्मा की ज्योति दीपक में जला करती है और हमारे श्रम की वर्तिका उसमें लगी रहती है और प्यार उसमें भरा रहता है। पात्रता का दीपक, जो मिट्टी का शकोरा होता है, उसे पात्र कहते हैं। हमारे जीवन में पात्रता एक, जीवन स्नेह से भरा हो दो, श्रम-लगनशीलता की वर्तिका उसमें जलती हो तीन और उसके अंदर भगवान का प्रकाश चमक रहा हो चार। अगर इन चारों से युक्त हमारा व्यक्तित्व है, तो वह भगवान के चरणों पर रखने योग्य है। ऐसा व्यक्तित्व भगवान को प्रकाश दे सकता है और अपने आपको प्रकाश दे सकता है। हमने कितनी बार कहा है कि आप दीप यज्ञ करें। जीवन दीपक का प्रतीत है। अच्छा साहब! दीपक प्रतीक है तो दीपक जलाऊंगा और भगवान को पकड़कर लाऊंगा। बेटे, दीपक से कैसे पकड़ सकता हैं तू भगवान को बता तो सही? दीपक का मकसद, धूपबत्ती का मकसद समझिए, तब भगवान को पकड़ने का प्रयास कीजिए।

स्नान अर्थात् पसीना परहित के लिए

देवपूजन में पानी क्यों चढ़ाते हैं? हम तो एक चम्मच जल छोड़ देते हैं और कहते हैं, ‘स्नानम् समर्पयामि।’ अच्छा तो बता बेटे, तूने भगवान जी को एक चम्मच जल से कैसे स्नान करा दिया। तू अपनी स्त्री को क्या कभी एक चम्मच जल से स्नान करा सकता है, फिर गायत्री माता तो बड़ी हैं, उन्हें कैसे करा देगा स्नान? महाराज जी! ‘स्नानम् समर्पयामि’ कहकर। बेटे! तू असली मकसद को समझता नहीं है, केवल पानी, चम्मच आदि के चक्कर में ही घूम रह है। अरे उससे आगे बढ़ और स्नान का मतलब समझ। स्नान का अर्थ यह है कि हम अपने पसीने की बूँदें श्रम की संपत्ति लोकमंगल के लिए खर्च करेंगे। अभी तो तेरा सारा पसीना अपने बेटे के लिए पैसे के लिए खर्च होता रहता है। तेरे पसीने की एक बूँद समाज के काम न आ सकी, श्रेष्ठ उद्देश्यों के लिए खर्च न हो सकी। सारा-का-सारा समय, सारा-का-सारा श्रम और सारा-का सारा स्वेद बिन्दु पसीने की बूँदें हमारी हमारे ही काम में खर्च हो गई, भगवान अब हम पसीने की बूँदें आपके लिए टपकाएंगे। पानी से, स्नान से यही मतलब है।

अक्षत अर्थात् एक अंश भगवान का

अक्षत से क्या मतलब है? अक्षत से मतलब है, हमारी कमाई का एक हिस्सा भगवान के लिए, समाज के लिए लगना चाहिए। हम जो कुछ कमाते हैं, स्वयं के लिए नहीं खा जाएंगे। जो आप कमाता है और आप ही खाता रहता है, वह चोर है। जो व्यक्ति समाज के सहयोग से कमाता है और स्वयं ही सब खाकर खत्म कर देता है, वह चोर है। भाईसाहब आप अपनी कमाई का एक हिस्सा समाज के लिए दीजिए। आप गवर्नमेंट को टैक्स देते हैं, औरों को देते हैं, आप धर्म को भी टैक्स दीजिए, समाज को टैक्स दीजिए। सत्प्रवृत्तियों को टैक्स दीजिए, हिस्सा निकालिए। नहीं साहब! हम नहीं निकाल सकते। नहीं आपको निकालना पड़ेगा। यही है ‘अक्षतं समर्पयामि’ संक्षेप में अक्षत का मतलब यह है कि हम अनाज कमाते हैं, पैसा कमाते हैं, वस्तुएं कमाते हैं, उसका एक अंश भगवान के लिए अलग से निकालना पड़ेगा।

मित्रो! भगवान हमारी जिंदगी का पार्टनर है। उस पार्टनर का शेयर चुकाए। नहीं साहब! उसका तो हम शेयर नहीं चुकाएंगे, हम ही अकेले खा जाएंगे। नहीं बेटे! वह हिस्सेदार है, वह दावा कर देगा तेरी अकल ठिकाने लगा देगा। पचास फीसदी का हकदार है भगवान। हमारे जीवन में पचास फीसदी का ‘मैटर’ और पचास फीसदी का ‘अध्यात्म’ है। पचास फीसदी का प्राण और पचास फीसदी का शरीर। ये तेरे आधे का पार्टनर है। कौन? भगवान अतः उसके लिए भी निकाल। अरे, महाराज जी! मैं तो थोड़ा-सा ही निकालूँगा। कितना निकालेगा? बस ‘अक्षतं समर्पयामि’ मैं तो सात चावल रोज निकालूँगा। नहीं बेटे, ऐसा नहीं हो सकता। पचास परसेंट का हकदार है भगवान तो पच्चीस परसेंट, दस परसेंट कुछ तो दे। उसमें से पाँच परसेंट तो दे। एक परसेंट तो दे। नहीं साहब! मैं तो केवल ‘अक्षतं समर्पयामि’ करूंगा। अहा−−। अच्छा तो ये मामला है। इसीलिए तू अक्षत चढ़ा रहा था कि बाकी सारा माल स्वयं हजम कर ले। आपको पच्चीस हजार का जो फायदा हुआ, उसमें से लाइए पचास परसेंट। नहीं साहब, उसमें से पंद्रह पैसे लेना हो तो ले जाइए भावनापूर्वक, प्रेमपूर्वक, श्रद्धापूर्वक! अहा−−−। बड़ा चालाक है तू।

इस तरह से मित्रो ‘अक्षतं समर्पयामि’ का उद्देश्य समझिए। आप उद्देश्य नहीं समझेंगे, बस चावल फैलाते रहेंगे तो इससे अच्छा है कि उस चावल को चिड़िया को खिला दें अन्यथा उस चावल को बाहर डालेंगे, झाड़ से झाड़कर बाहर फेंक देंगे और वह बेकार हो जाएगा। अनाज और खराब हो जाएगा। अगर आप यह सब नहीं समझना चाहते, इसका उद्देश्य ग्रहण नहीं करना चाहते, उसकी प्रेरणा करना आपको मंजूर नहीं तो आप उस चावल को कहीं और लगा दीजिए। किसी चिड़िया को या किसी पक्षी के बच्चे को खिला दीजिए, फेंकिए मत। इन चावलों को फेंकने से क्या फायदा।

गुणों की सुगंधि

इसी तरह मित्रो! जब हम चंदन चढ़ाते हैं तो इसका मतलब होता है कि हम अपने व्यक्तित्व से अपने समीपवर्ती वातावरण में उसी तरह से सुगंध बिखेर दें जिस तरह से चंदन का दरख्त अपने आस-पास के छोटे-छोटे पौधों को अपने समान सुगंधित बनाता चला जाता है। आप जहाँ कहीं भी रहें और जो भी आपके संपर्क में आए, उसे श्रेष्ठ बनाए। दूसरों को अपनी अच्छाई का फायदा जरूर दीजिए। आप दूसरों को अच्छा जरूर बनाइए। नहीं साहब! हम तो अच्छे रहेंगे, किन्तु किसी को अच्छा नहीं बनाएंगे? नहीं बेटे! औरों को भी अच्छा बनाना चाहिए जैसे कि चंदन बनाता है।

मित्रो! मैं आपको यही समझा रहा था कि आप इस खुशबू को फैलाइए। एक से दस के रूप में विस्तृत हो जाइए। आप चंदन के दरख्त की तरह हो जाइए और अपनी खुशबू को दूसरों में फैलने दीजिए। मैं आपसे यही कह रहा था कि सारी-की-सारी वस्तुओं का विकास देवपूजन के पीछे जुड़ा हुआ है। देवपूजन के सिद्धाँत के पीछे समर्पण का भाव छिपा हुआ है, लेकिन यहाँ तो हमारा सारा जीवन राक्षस के लिए जुड़ा हुआ है। अभी तक हमने सारा जीवन असुर के लिए पशु के लिए खर्च किया है।

क्या होते हैं देवी-देवता

देवत्व का अर्थ होता है-श्रेष्ठताएं। देवता कहाँ रहते हैं? हमें नहीं मालूम। हम एक बार कैलाश पर्वत पर थे तो मरते-मरते बचे थे। देवता कहाँ रहते? पीपल के पेड़ पर रहते होंगे। अच्छा तो चलिए दिखाइए। नहीं साहब, वहाँ तो देवी रहती है। कहाँ रहती हैं? महाराज जी! वह तो नागरकोट में रहती है, कलकत्ता में रहती है। अच्छा तो वहीं चलो। मैं तो कलकत्ता में रहती है। अच्छा तो वहीं चलो। मैं तो कलकत्ता देख आया हूँ। वहाँ काली जीभ निकालकर चिढ़ा कर चिढ़ा रही है। किसी स्टूडेंट ने पूछा था कि क्यों साहब! काली देवी जीव निकालकर क्यों चिड़ाती है? अरे भाई! जीभ निकालना उनका शौक है। महाराज जी! एक देवी नागरकोट में रहती है। मेरे बाल-बच्चों का मुँडन वहाँ होगा। अच्छा बेटे! तेरी कुलदेवी कहाँ रहती है। महाराज जी! बाड़मेर में, जैसलमेर में। तो वहाँ क्या करेगा? बच्चे का मुँडन कराऊंगा। और कहीं करा ले तो? नहीं महाराज जी, देवी नाराज हो जाती है। क्या कहती है तेरी देवी? यों कहती हैं कि मैं बाल खाऊंगी, तू बाल यहीं काट। बेटे तू ऐसा भी कर सकता है कि घर पर मुँडन करा ले और बाल एक डिब्बे में बंद करके उसे देवी के पास पार्सल से भेज दे, देवी के काम आएगा। नहीं महाराज जी! देवी कहती है कि मुँडन के लिए हमारे यहाँ ही आना पड़ेगा, नहीं तो वह नाराज हो जाएगी।

साथियो! आपने देवी देखी है क्या? अगर देखी हो तो मुझे भी बता देना। मैंने तो देखी नहीं ऐसी देवी जो मुँडन कराती हो और बाल खाती हो। मैंने जो देवी देखी है, वह विचारणाओं के रूप में, भावनाओं के रूप में, सिद्धाँतों के रूप में देखी है। मनोवृत्तियों के रूप में और कृतियों के रूप में देवियाँ देखी हैं। इनमें से एक का नाम दया की देवी, एक का नम करुणा की देवी, एक का नाम श्रद्धा की देवी, एक का नाम दान की देवी है। मैंने असंख्य देवियों की पूजा की है और उनके साथ में इतना आनंद उठाया है कि वे मेरी सहेलियों की तरह, मित्रों की तरह बन गये।


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