‘कुबेर हो या रंक, जब तक परिश्रम से कमाए धन का एक अंश लोकहित में समर्पित नहीं करता, वह अधर्म खाता है।’ इतने से अक्षर महर्षि अनमीषि के लिए शास्त्र हो गए। उन्होंने पत्नी सहित यह प्रतिज्ञा की कि वे दीन-दुःखी को भोजन कराकर भोजन ग्रहण करेंगे।
उन्हें संकल्प निबाहते हुए वर्षों बीत गए। तप परीक्षा के बिना खरा सिद्ध हो गया हो, ऐसा कभी हुआ नहीं। एक दिन ऐसा आया कि उनके द्वार पर कोई झाँका भी नहीं। दोनों बहुत दुःखी हुए। तभी उन्होंने देखा-वृक्ष के नीचे एक वृद्ध रोगी पीड़ा से काँप रहा है। शरीर में घाव हो जाने से वह कराह रहा है। अनमीषि ने आगे बढ़कर कहा, ‘भोजन तैयार है, ग्रहण कर कृतार्थ करें।’ वृद्ध ने कराहते हुए कहा, ‘आर्य श्रेष्ठ! मैं आपकी उदारता का अधिकारी नहीं, क्योंकि मैं जाति का चाँडाल हूँ। संभव हो, तो घर में कुछ रोटियाँ बची हों, उन्हें यहाँ फेंक जाएं। उन्हें उठाकर अपना पेट भर लूँगा।’ वृद्ध की यह दशा देखकर अनमीषि की करुणा उमड़ उठी, आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वह बोले, ‘ऐसा न कहें तात! हम जाति के पुजारी नहीं, जीव मात्र में व्याप्त आत्मा के उपासक हैं। आपके अंदर जो चेतन है, वही तो परमात्मा है। उसे छोड़कर हम अन्न ग्रहण करने का पाप कैसे कर सकते हैं।’
वे उसे सादर अपनी कुटिया पर ले गए। स्नान कराकर नूतन वस्त्र पहनाए, उसे भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन ग्रहण किया।
जब रात्रि में अनमीषि सोए तो अग्निदेव प्रकट हुए और बोले, ‘तू ही ईश्वर का सच्चा भक्त है जो ब्राह्मण, चाँडाल, हाथी व कुत्ते में कोई भेद नहीं करता।’