युद्ध भूमि में रावण का मृत शरीर पड़ा था। उसमें सहस्रों छिद्र थे और उन सभी से रक्त बह रहा था।
अन्य दलनायकों के साथ राम-लक्ष्मण भी उसे देखने पहुँचे।
लक्ष्मण ने मृत शरीर में सहस्र छिद्र देखे तो चकित रह गए। राम से पूछा, ‘देव! आपने तो एक ही बाण में इसका वध किया था, फिर सहस्र छिद्र कैसे?’
राम ने गंभीरतापूर्वक कहा, ‘मैंने तो एक ही बाण मारा था। यह हजार छिद्र तो उसके अपने असंयमजन्य पाप कर्म के कारण है जो स्वयं ही फूटे और स्रवित हो रहे हैं।’ महा पंडित रावण की दुर्गति का कारण समझकर सबने इस मर्म को जाना कि संयम की उपेक्षा से हुए जर्जर जीवन के लिए एक ही प्रहार पर्याप्त है।’
एंथिस स्थित वेदाँत केन्द्र अमेरिका में उस दिन गीता के उन श्लोकों की व्याख्या स्वामी विवेकानंद द्वारा हो रही थी, जिसमें मन की उस कुदेय की विवेचना की गई, जिसमें कहा गया है कि वह न चाहते हुए भी कुमार्ग पर चला जाता है और मनुष्य को पतन के गर्त में गिरा दिया है।
भाषण बड़ा सारगर्भित और हृदयग्राही था। मंत्रमुग्ध श्रोतागण आदि से अंत तक उसे सुनते रहे। समाप्त होने पर विदा तो हुए पर लगा, किसी ने उनके अंतःकरण को हिला दिया हो।
सभी चले गए। विवेकानंद भी चाँदनी रात में अपने निवास गृह की ओर पैदल जा रहे थे। एक असाधारण सुन्दरी उनके पीछे-पीछे चल रही थी। विवेकानंद न झिझके, न विचलित हुए। अवसर देखकर उस सुन्दरी ने प्रणय निवेदन किया। उन्होंने युवती का हाथ थाम लिया और कहा, ‘माँ तुम कैसी कल्याणी हो। लगता है माँ शारदामणि का सा दुलार देने यहाँ आई हो। कितनी महान हो तुम।’
एक ईर्ष्यालु पादरी ने षडयंत्र बनाकर विवेकानंद को बदनाम करने के लिए उसे भेजा था, पर विवेकानंद का हाथ छूते ही उसे लगा कोई देवता उस पर अमृत बरसा रहा है। वापस लौटते हुए उसने इतना ही कहा, ‘देवता तुम्हें गिराने आई थी, पर तुम हो, जिसने मुझे आसमान तक उठा दिया।’ विकार के स्थान पर उसका मातृत्व उदय हो आया था।