प्रतिभा पलायन रुके, संस्कृति की सेवा विभूतियाँ करें

November 2001

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प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति ही किसी समाज या राष्ट्र की वास्तविक संपदा होती है। इन्हीं की दशा एवं दिशा पर देश का भविष्य निर्धारित होता है। अपने स्वर्णिम अतीत में देश इन्हीं की बहुलता के कारण स्वयं में समृद्ध एवं खुशहाल और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विश्व का अग्रणी देश था। देश-विदेश के जिज्ञासु, विद्वान् एवं प्रतिभासंपन्न लोग इसी कारण यहाँ खींचे चले आते थे और अपनी ज्ञान-पिपासा शान्त करके व ज्ञान भण्डार को समृद्ध करके अपने-अपने क्षेत्र एवं देशों में जाकर इसे वितरित करते थे। किन्तु आज स्थिति दूसरी ही है।

प्रतिभाओं की आज भी पूर्व काल की तरह देश में कोई कमी नहीं है, किन्तु उनकी स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। और चिन्ता का विषय है,’ब्रेनड्रेन’। यह गंभीर समस्या ‘ब्रेनड्रेन’ कोई बीमारी नहीं है, किन्तु यह किसी बीमारी से कम भी नहीं है। ब्रेन ड्रेन अर्थात् प्रतिभा पलायन। यह ऐसा रोग है जो देश के विकास को खाए जा रहा है। उसके अंतर्गत रोजगार और बेहतर अवसरों के लिए देश के बुद्धिमान और अति कुशल व्यक्ति विदेशों में जाकर बस रहे हैं। संस्कृत में एक कहावत अति प्रसिद्ध है ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ परन्तु आज के प्रतिभावान शायद इस सत्य से पूर्णतया अनभिज्ञ हैं। तभी तो प्रतिभाएँ दूसरे देशों में जा बसने में गौरवान्वित अनुभव कर रही हैं।

वास्तव में प्रतिभा पलायन कोई नई समस्या नहीं है और न ही किसी एक देश तक सीमित है। यह समस्या दशकों पुरानी है और विश्व के अधिकतर विकासशील देश इससे पीड़ित हैं। लेकिन इससे सबसे अधिक नुकसान भारत का हो रहा है, क्योंकि प्रतिभा संपन्न लोगों के क्षेत्र में भारत विश्व का अग्रणी देश है और सबसे अधिक प्रतिभाओं का पलायन यहीं से हुआ है और हो रहा है।

यहाँ से हर वर्ष औसतन 5000 से लेकर 8000 तक छात्र विदेशों में जाते रहे हैं। इनमें से 75 से 80' प्रतिभाओं का पलायन पश्चिम के अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, जर्मनी और इंग्लैंड की ओर होता है। शेष 20-25' छात्र विश्व के अन्य विकसित देशों में चले जाते हैं। ज्ञातव्य है कि देश में एक इंजीनियर को तैयार करने के लिए लगभग साढ़े छः लाख रुपये का खर्च करदाताओं से वसूल की गई धनराशि से ही करना पड़ता है। चिकित्सक, इंजीनियर आदि तैयार करने में हमारे देश की अपेक्षा अमेरिका में दो तिहाई लागत अधिक लगती है। इस तरह दूसरे शब्दों में भारत, अमेरिका को ज्ञानदान की बौद्धिक सब्सिडी दे रहा है, जिसकी लागत अमेरिका द्वारा भारत को दी जा रही ऋण राशि से दुगुनी है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि हमारा देश श्रेष्ठतम संसाधन का निर्यात सबसे कम मूल्य में कर रहा है। चिन्तनीय स्थिति यह है कि देश के सर्वोच्च इंजीनियरिंग संस्थान आई.आई.टी से तैयार होने वाले इंजीनियरों में से 60' विदेशों की राह पकड़ लेते हैं। इसी प्रकार अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सा संस्थान से प्रशिक्षित चिकित्सकों में 50' उच्च शिक्षा एवं नौकरी के बहाने विदेशों में चले जाते हैं। एक बार विदेश पहुँचने के बाद ये प्रशिक्षित मानव संसाधन विदेशों की राष्ट्रीय आय की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। औद्योगिक रूप से विकसित राष्ट्रों में नागरिकता प्राप्त करने वाले श्रेष्ठतम भारतीय विशेषज्ञों की संख्या 6000 तक पहुँच चुकी है। पलायन करने वालों में सर्वाधिक 32' डॉक्टर 5' व्यावसायिक तथा शेष 35' अन्य विषयों के विशेषज्ञ होते हैं।

अमेरिका सहित अधिकाँश विकसित राष्ट्रों में नए-नए आविष्कारों एवं प्रौद्योगिकी को विकसित करने का अधिकाँश श्रेय उनके अपने विशेषज्ञों को नहीं, बल्कि गरीब देशों से आने वाली इन प्रतिभाओं को जाता है। अर्थात् विकसित राष्ट्रों का व्यावसायिक आधारभूत ढाँचा विदेशी प्रतिभाओं के बूते पर टिका हुआ है। जर्मनी से प्रकाशित होने वली एक पत्रिका के अनुसार माइक्रोसॉफ्ट कंपनी में 34' और अमेरिका के राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र नासा में 36' भारतीय काम संभाले हुए हैं। पत्रिका का दावा है कि ये भारतीय यदि स्वदेश लौट जाएं तो अमेरिका के अहम् को चूर होने में अधिक वक्त नहीं लगेगा। एक सर्वेक्षण के अनुसार अमेरिका में लगभग 31' लाख भारतीय है जिनमें हजारों अति महत्त्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं। कम्प्यूटर क्रान्ति का सेहरा भले ही अमेरिका के सिर पर बँधता हो, पर यह सच है कि जावा के जरिये इंटरनेट पर होने वाली कम्पनी सन माइक्रो सिस्टम के सहसंस्थापक विनोद खोसला एक भारतीय हैं व पेंटियम चिप के आविष्कारक विनोद दाहम हैं। अमेरिका में इस क्षेत्र की प्रख्यात ‘सिलिकन वेली’ में अधिकाँश भारतीय प्रतिभाएँ अपनी प्रखरता का सिक्का जमा रही हैं। इनकी बहुलता को देखकर पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन आश्चर्य पड़ गए थे और उन्होंने चिन्ता भी जाहिर की थी।

प्रतिभा पलायन की समस्या को उदारीकरण ने और हवा दी है। 60 से 90 के दशकों में ज्यादातर 20-25 वर्ष की आयु की युवा प्रतिभाएँ ही देश से पलायन करती थी। फ्रेशर होने के कारण इन्हें इस उम्र में दूसरे देश के वातावरण और कार्य शैली में ढलने में आसानी होती थी। दूसरा उस समय अधिकतर वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर आदि ही अधिकतर जाते थे।

लेकिन 90 के दशक में ग्लोबलाइजेशन के कारण विश्व भर की कंपनियों की कार्य शैली और उत्पादन प्रक्रियाएँ लगभग एक जैसी हो गयी। परिणामस्वरूप अब प्रबंधन के क्षेत्र की उम्रदराज प्रतिभाएँ भी देश से पलायन कर रही हैं। इस कारण आज देश में योग्य डॉक्टर, इंजीनियर एवं वैज्ञानिकों के साथ कुशल प्रबंधकों की भी कमी हो गयी है।

प्रतिभा पलायन की समस्या के पीछे कई कारण सक्रिय है। किन्तु यदि कोई खास कारण खोजना हो तो वह है-जॉब सेटिसफेक्शन न होना अर्थात् कार्य में संतुष्टि न होना। इसके भी कई कारण हैं जैसे-रुचि के अनुरूप काम न मिलना, काम के बदले उचित पारिश्रमिक न मिलना, बढ़िया काम करने के बावजूद सम्मान न मिलना, काम के लिए अच्छा माहौल न मिलना, काम करने के लिए पर्याप्त सुविधा-साधन न मिलना, अपने स्तर के अनुरूप काम न मिलना आदि। इसके शोध प्रतिष्ठानों में बढ़ती राजनीतिक एवं अनावश्यक प्रशासनिक हस्तक्षेप भी महत्त्वपूर्ण कारक हैं। इस संदर्भ में पाश्चात्य भोगवादी चकाचौंध एवं भोग की लालसा को भी नकारा नहीं जा सकता।

राष्ट्र के विकास को गति देने के लिए प्रतिभाओं के पलायन को रोकना अति आवश्यक है। इसके लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ एवं वातावरण बनाना होगा। यह सरकार की इच्छा शक्ति एवं महत्त्व पर बहुत कुछ निर्भर करता है। वह इस दिशा में जितनी शीघ्र ठोस कदम तो उचित होगा। दूसरा हर विचारशील एवं संस्कृत प्रेमी प्रतिभा का यह दायित्व बनता है कि वह पलायन कर रही प्रतिभाओं की जगह डॉ. चंद्रशेखर वेंकटरमन, डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर, डॉ. होमी जहाँगीर भामा, जगदीशचंद्र वसु, मेघनाथ साहा, एच.एन.सेठ, विक्रम सेन, अब्दुल कलाम जैसी विभूतियों को भी देखें व उनका अनुसरण करे जिन्होंने इन्हीं साधन एवं सुविधाओं के बीच उल्लेखनीय उपलब्धियों से राष्ट्र के गौरव को बढ़ाया है। आदर्श यदि राष्ट्र एवं संस्कृति सेवा के रूप में जीवन के सार्थक नियोजन का हो तो भौतिक प्रलोभन एवं असुविधाओं को असमाधेय अवरोध नहीं माना जा सकता।


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