विराट् का सम्बोधन

May 1982

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हे विश्वकर्मन्! आज हम तुम्हारे सिंहासन के सम्मुख खड़े यह बात सुनाने आये हैं कि हमारा संसार आनन्दमय है, हमारा जीवन उल्लासमय है। यह तुमने बहुत अच्छा किया कि हमें क्षुधा तृष्णा के आघात से जागृत रखा–तुम्हारे जगत में, तुम्हारी बहुधा शक्ति के असीम लीला क्षेत्र में हमें जगायें रखा। यह भी अच्छा ही हुआ कि तुमने हमें दुःख देकर सम्मानित किया विश्व के असंख्य जीवों में जो दुःखताप की आग है उससे संयुक्त करके हमें गौरवान्वित किया। उन सबके साथ हम तुम्हारे समक्ष प्रार्थना करने आये हैं–तुम्हारी प्रबल सामर्थ्य सदैव बसन्त के दक्षिण−पवन की तरह प्रवाहित रहे, मानवता के स्वर्णिम इतिहास से युक्त इस महाक्षेत्र पर यह पवन बहता रहे। अपने विविध फूलों के परिमल को वहन करता हुआ हमारे राष्ट्र के शब्दहीन, प्राण हीन, शुष्कप्राय चित्त अरण्य के सारे शाखा पल्लवों को यह समीर कम्पित, मुखरित, सुगन्धित करे, हमारे हृदय की प्रसुप्त शक्ति फूल−फूल किसलय में सार्थक होने के लिये रो उठे।

हमारे मोह के आवरण हटाओ, उदासीनता की निद्रा से हमें जगाओ। यही, इसी क्षण, अनन्त देशकाल में धावमान चिरचांचल्य के बीच हम तुम्हारे आनन्द रूप को देख सकें। तुम्हें प्रणाम करते हुए हम सृष्टि के उस क्षेत्र में प्रवेश करने की आज्ञा माँगते हैं जहाँ अभाव की प्रार्थना, दुःख का क्रन्दन, मिलन की आकाँक्षा और सौंदर्य का निमन्त्रण हमें सतत् आह्वान देते हैं, जहाँ विश्वमानव का महायज्ञ हमारी आहुतियों की प्रतीक्षा कर रहा है।


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