साधना के दो पक्ष हैं–एक योग, दूसरा तप। योग में अनपढ़ अन्तरंग के चिन्तन प्रवाह को उत्कृष्टता की सुगढ़ता के साथ जोड़ना पड़ता है। इसी को समर्पण, शरणागति, अद्वैत, एकत्व आदि के नाम से पुकारते हैं। इसी स्थिति को उत्पन्न करने के लिये ध्यानयोग या भक्तियोग का आश्रय लिया जाता है।
नाले का नदी में, नदी का समुद्र में, बूंद का समुद्र में, पतंगे का दीपक में, पानी का दूध में, पत्नी का पति में विलय हो जाने के उदाहरण देकर इसी स्थिति को हृदयंगम कराया जाता है। बेल वृक्ष से लिपटकर उतनी ही ऊँची उठ जाती है, बांसुरी वादक के होठों से लगकर मादक ध्वनि सुनाती है। धागा उड़ाने वाले के हाथ में सौंपने पर ही पतंग आसमान पर चढ़ने का सौभाग्य पाती है। इन उदाहरणों में योग का तत्वज्ञान भरा पड़ा है,एक तालाब का दूसरे तालाब के साथ नाली के माध्यम से जुड़ जाने पर दोनों की जल सतह एक हो जाने वाली बात भी इसी निमित्त बताई जाती है कि साधक की अन्तःचेतना को अभ्यस्त कुसंस्कारिता से मुक्ति दिलाकर परब्रह्म की उच्चस्तरीय विशिष्टता में आत्म−समर्पण करने के लिये तैयार होना होता है। यह सर्वमेध यज्ञ है।