ज्योतिर्विज्ञान मात्र भौतिकी तक सीमित नहीं

May 1982

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

ग्रह नक्षत्रों, सौर मण्डल की गतिविधियों उनके आपसी संबंधों और परस्पर एक दूसरे पर, पृथ्वी के वातावरण, वृक्ष, वनस्पति एवं जीवधारियों पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी देने के अतिरिक्त भी ज्योतिष विज्ञान का एक पक्ष है–सूक्ष्म अन्तरिक्ष में चलने वाले चैतन्य प्रवाह और उनकी भली−बुरी प्रतिक्रियाओं से अवगत कराना। एकाँगी सौर गतिविधियों की जानकारी तो आज के विकसित खगोल शास्त्र और सम्बन्धित आधुनिकतम यन्त्रों द्वारा भी मिल जाती है। सशक्त रेडियो टेलीस्कोपों से लेकर अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित −स्थापित कृत्रिम सेटेनाइट्स हजारों की संख्या अन्तरिक्ष की विभिन्न कक्षाओं में घूमते हुए यह सीमित प्रयोजन पूरा कर ही रहे हैं? ग्रह, नक्षत्रों, तारा पिण्डों के स्वरूप, स्थिति एवं गति के सम्बन्ध में वैज्ञानिक ज्ञान दिन−प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है और कितने ही नवीन तथ्यों का आविष्कार हो रहा है। यह ज्ञान उपयोगी और मानवी प्रयास प्रशंसनीय है।

इतने पर भी ज्ञान का वह पक्ष अभी भी अछूता है जिसके सहारे सूक्ष्म अन्तरिक्षीय चैतन्य प्रवाहों की जानकारी मिलती थी। उपयोगी प्रवाह को पकड़ने, लाभ उठाने और हानिकारक से बचाव करने की बात सोची जाती थी। कहना न होगा कि यह महत्वपूर्ण प्रयोजन भी ज्योतिर्विद्या में प्राचीन काल में समाहित था जिसका चेतना विज्ञान खगोल जानकारियों की तुलना में कहीं अधिक सामर्थ्यवान और मनुष्य जाति के लिए उपयोगी था। जिसके सहारे जाति प्रकृति की हलचलों में भी हेर−फेर की बात सोची और आध्यात्मिक उपचारों की व्यवस्था बनायी जाती थी।

प्रगति की ओर आगे बढ़ते हुए विज्ञान कल नहीं तो परसों वहाँ पहुँचने वाला है, जिसके सहारे भावी अन्तरिक्षीय घटनाक्रमों के विषय में पूर्व ज्ञान प्राप्त कर सकें। कई बार भविष्य विज्ञानियों के प्रकृति विक्षोभों के सम्बन्ध में कथन सही भी उतरते हैं। सम्भव है अगले दिनों वे और भी यथार्थता के निकट पहुँचे। पर इतने पर भी मूलभूत समस्या का समाधान नहीं निकलता। कहने का आशय यह है कि अन्तर्ग्रही असन्तुलनों के कारण जानने एवं निवारण के लिए उपचारों के अभाव में अन्तर्ग्रही जानकारी मात्र होने से कुछ बनता बिगड़ता नहीं है। अस्तु वैज्ञानिक प्रयास उत्साहपूर्वक एवं सराहनीय होते हुए भी एकाँगी और अपूर्ण हैं।

आये दिन भूकम्प, तूफान, चक्रवात, भू स्खलन, बाढ़, ज्वालामुखियों का जैसी प्रकृति की विभीषिकाएँ अपनी विनाश−लीला पृथ्वी पर रच जाती हैं। मनुष्य एक असहाय बना उन्हें देखता और अपनी बेबसी पर आँसू बहाता है। आँकड़े एकत्रित किए जायें तो पता चलेगा कि प्रतिवर्ष विश्व भर में युद्धों–बीमारियों से मरने वालों की तुलना में प्रकृति प्रकोपों से जान गंवाने वालों की संख्या कहीं अधिक होती है। भौतिक सम्पदा का एक बड़ा भाग प्रकृति विक्षोभ लीला जाते हैं और मानवी पुरुषार्थ पर निर्दयता पूर्वक पानी फेर जाती हैं। जितनी सम्पदा प्रकृति विक्षोभों के कारण नष्ट हो जाती है वह किसी प्रकार सुरक्षित रहती तो उससे प्रगति में भारी योगदान मिल सकता था। प्रस्तुत होने वाली विभीषिकाओं की यदि किसी प्रकार विज्ञान द्वारा जानकारी मिला जाय तो भी उन्हें रोक सकने–सूक्ष्म अन्तरिक्ष में पक रहीं घटनाओं में हेर−फेर कर पाने में भौतिक विज्ञान अभी भी असमर्थ है। वह तकनीक अभी तक विकसित नहीं हो पाई है जिसके माध्यम से यह प्रयोजन पूरा हो सके।

प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान के आचार्य न केवल अन्तर्ग्रही गतिविधियों के ज्ञाता होते थे वरन् आत्मविज्ञान–चेतना विज्ञान के क्षेत्र में भी उनकी पहुँच होती थी। फलतः सौर मण्डल की जानकारियाँ प्राप्त करने के साथ−साथ उनमें अभीष्ट हेर−फेर करने के आध्यात्मिक उपचारों से परिचित होने से समय−समय पर इस प्रकार के प्रयोग परीक्षण भी किए जाते थे। ऐसे कितने ही उल्लेख आर्ष ग्रन्थों में मिलते हैं जिनमें मंत्र शक्ति का प्रयोग प्रकृति विप्लवों को रोकने–वर्षा कराने–असन्तुलनों के निवारण में समय−समय पर किया जाता रहा है। सूर्य−सविता की उपासना किसी समय घर−घर प्रचलित थी। भारत ही नहीं जापान, चीन, इंग्लैंड, रोम, जर्मनी आदि स्थानों पर भी सूर्य उपासना के प्रचलन का उल्लेख विविध ग्रन्थों में मिलता है। सूर्य सौर मण्डल के सदस्यों का मुखिया है। पृथ्वी पर सर्वाधिक प्रभाव भी उसी का पड़ता है। अन्याय ग्रह सूर्य के साथ मिलकर अपनी प्रतिक्रियाएँ पृथ्वी पर प्रकट करते हैं। अस्तु सूर्य उपासना विज्ञान सम्मत और विविध प्रयोजनों के लिए विविध रूपों में प्रचलित थी। मन्त्र शक्ति यज्ञोपचार आदि द्वारा वर्षा पर नियन्त्रण प्राप्त करने, प्राण तत्व को धरती पर उतारने जैसे प्रयोग सुलभ थे।

चेतना की सामर्थ्यं जड़ की तुलना में कई गुना अधिक है। जब प्रकृति पर नियमन नियन्त्रण ही नहीं उसमें हेर−फेर करने में भी वह सक्षम है। अन्तर्ग्रही चैतन्य प्रवाह की उलटना−पलटना हो तो चेतना की सामर्थ्य का ही उपयोग करना होगा। अन्तर्ग्रही शक्तियों की विशालता और प्रचण्डता अद्भुत और विलक्षण है। इतने पर भी चेतन की प्राण शक्ति द्वारा उस प्रवाह में परिवर्तन कर सकना सम्भव है। ऐसे परिवर्तन जो पृथ्वी के जीवधारियों के लिए उत्पन्न अविज्ञात कठिनाइयों को रोकने और अदृश्य अनुदानों का बढ़ाने में समर्थ हो सके। खगोल विज्ञान की पूर्णता ज्योतिर्विज्ञान में है जो अपने में चेतना विज्ञान की सामर्थ्य को भी समाहित किए हुए है कुशल चिकित्सक रोग का निदान ही पर्याप्त नहीं समझते रुग्णता हटाने और आरोग्य हटाने का उपचार भी सोचते है ज्योतिर्विज्ञान केवल ग्रह नक्षत्रों की स्थिति ही अवगत नहीं कराता अपितु अदृश्य प्रभावों के अनुकूलन का भी प्रबन्ध करता है।

इस संदर्भ में एक बात और समझने योग्य है कि सौर मण्डल के ग्रह उपग्रह भौतिक दृष्टि से रासायनिक तत्वों से बड़े आकार के गतिशील पिण्ड मात्र नहीं हैं। आत्म विज्ञानियों का मत है कि प्रत्येक जड़ सत्ता का एक चेतना अभियान होता है। उसी के नियन्त्रण से इन घटकों को अपनी गतिविधियाँ चलाने का अवसर मिलता है। नवग्रहों को ज्योतिर्विज्ञान में नव चेतना माना गया है। जबकि खगोल शास्त्री इनकी चेतना विशेषताओं से अपरिचित होने के कारण मात्र पदार्थ पिण्ड मानते हैं। आत्मवेत्ताओं ने तैंतीस कोटि देवता गिनाए हैं। यहाँ कोटि का अर्थ करोड़ से नहीं श्रेणी से है। इस समुदाय में ग्रह पिण्ड, निहारिकाएं पंच तत्व, पंचप्राण, देवदूत, जीवनमुक्त, पितर जैसी सूक्ष्म अदृश्य दिव्य सत्ताओं को गिना जा सकता है, जो सृष्टि के सुसंचालन में हिस्सा बंटाती हैं। देवाराधना–उपासना में इन्हीं के साथ संपर्क और परस्पर आदान−प्रदान का मार्ग खोलने का प्रयास किया जाता है।

भूमण्डल का विस्तार सीमित है–अन्तरिक्ष का अनन्त। जितनी सम्पदा पृथ्वी तथा इसके निकटवर्ती वातावरण में है उससे असंख्यों गुना अधिक अन्तरिक्षीय परिकर, परिसर में संव्याप्त है। जिसमें पदार्थ भी है और चेतना भी पितरों से लेकर देव समुदाय के सूक्ष्म शरीर धारी तथा महाप्राण की शक्तियाँ इसी विस्तृत अन्तरिक्ष में निवास करती है। इस प्रत्यक्ष और परोक्ष−जड़ और चेतन की शक्तियों का तारतम्य न मिल पाने से कितने ही अनुदानों से वंचित रहना पड़ता है और मात्र प्रकृति प्रवाह जो सहज ही मिल जाती है उतने भर से पृथ्वीवासियों को सन्तुष्ट रहना पड़ता है।

अस्तु ज्योतिर्विज्ञान पर समग्र शोध के साथ कितनी ही उपयोगी सम्भावनाएँ भी जुड़ी हुई हैं। इससे मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत अनेकानेक विभीषिकाओं के पीछे विद्यमान अदृश्य कारणों को ढूँढ़ने व उनके निवारण में सहयोग मिलेगा। साथ ही दैवी चैतन्य प्रवाह से अनुकूल लाभ पा सकना भी सम्भव हो सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles