समुन्नत व्यक्तित्व बनाने के लिए ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग‘ का उपयोग

May 1982

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विश्व का भविष्य मानवी उत्कृष्टता के साथ जुड़ा होने का तथ्य यदि हृदयंगम किया जा सके तो अवाँछनीय चल रहे सन्तति नियमन आन्दोलन की तरह सुप्रजनन के लिए ऐसे ही रचनात्मक कदम उठाने की आवश्यकता पड़ेगी।

यहाँ सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता सुयोग्य नारियों की पड़ेगी। उनका स्तर गया−गुजरा रहा तो फिर मात्र पुरुषों की उत्कृष्टता से प्रयोजन की पूर्ति हो नहीं सकेगी। बीज की भी उपयोगिता आवश्यकता तो है, पर ध्यान में रखने स्तर की है। पुरुष प्रधान समाज में अब तक इस संदर्भ में श्रेय पुरुष को ही मिलता रहा है जबकि तथ्य ठीक इससे उलटे रहे। मदालसा, सीता, शकुन्तला आदि के विकसित व्यक्तित्व ही ऐतिहासिक सन्तानें दे सके। विनोबा, शिवाजी आदि को उनकी माताओं ने ही गढ़ा था। द्रौपदी, सुभद्रा और कुन्ती के उदाहरण प्रख्यात हैं। उच्चस्तरीय नारी व्यक्तित्व के बिना मात्र नर का पौरुष कोई चमत्कार उत्पन्न नहीं कर सकता।

एक नर के शरीर से निःसृत शुक्राणुओं से सहस्रों नारियाँ गर्भाधान पा सकती हैं। परम्परागत रतिक्रिया की उपेक्षा कर दी जाय और कृत्रिम गर्भाधान के प्रयोग को अपना लिया जाय तो एक सुयोग्य नर से हजारों लाखों तक सन्तानें उसी के जीवन काल में प्राप्त हो सकती हैं। इतना ही नहीं, मरण के उपरान्त भी इस प्रक्रिया के आधार पर कोई सुयोग्य व्यक्ति सन्तानोत्पादन का क्रम जारी रखे रह सकता है।

इस प्रयोजन के लिए उपयुक्त नारियाँ न मिलने पर क्या कृत्रिम गर्भाशय में पका कर अभीष्ट सन्तानें उत्पन्न की जा सकती हैं? इस ऊहापोह में इन दिनों ‘टेस्ह ट्यूवों’ का प्रयोग उत्साहपूर्वक हो रहा है। इस प्रयास में ब्रिटेन के दो वैज्ञानिकों ने भारी ख्याति अर्जित की है। (1) आर. जी. एडवड्ंस वेब्सेटर (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय) (2) डॉ. पी. पी. स्टेपोर्ट (ओलडम जनरल अस्पताल यू. के.) उसने बंध्या नारियों को छोटे आपरेशनों के उपरान्त सन्तानोत्पादन में समर्थ ही नहीं बनाया, कृत्रिम गर्भाधान के सहारे अधिक समुन्नत स्तर की सन्तानें उत्पन्न कराई जो उनके विद्यमान जोड़े नहीं कर सकते थे। अमेरिका के प्रजनन विज्ञानी डॉ. हैरिम ने भी इसी स्तर के प्रयोग किए हैं और परिणामों को देखते हुए भावी सम्भावनाओं के सम्बन्ध में उत्साहपूर्ण सफलताओं का संकेत दिया है।

बुद्धि और कौशल को सुविधा−सम्पन्न

उपयोगी मानते हुए तत्वज्ञों का यह कथन दिन−दिन अधिक प्रखर होता जा रहा है कि आनुवाँशिकी आधार पर मनुष्य की समर्थता बढ़ाने को प्रमुखता दी जाय। क्योंकि चिरस्थायी विशिष्टताएँ विकसित किया जाना उसी आधार पर सम्भव हो सकता है। वे पतित प्रवृत्तियों के लोगों को बदलने में भी सुधार या प्रताड़ना वाले प्रयासों को अपर्याप्त मानते हैं और कहते हैं उनको अभ्यस्त ढाँचे को बदलने में जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग होना चाहिए। उनकी नस्ल में हेरफेर किया जाना चाहिए

डॉ. क्रुक शैक ने मानवी प्रवृत्तियों को पौढ़ियों से चला आ रहा संचय कहा है। वे मानवी पुरुषार्थ डडडड महत्व तो मानते हैं, पर साथ ही यह भी कहते हैं कि “वंशानुक्रम से न केवल आकृति एवं प्रकृति का सम्बन्ध है वरन् अच्छी एवं बुरी परम्पराएँ आदतें एवं प्रवृत्तियों भी श्रृंखलाबद्ध रूप में जुड़ी चलती हैं। व्यक्तित्व डडडड सुधारने के लिए शिक्षण परक उपायों की उपयोगी मानते हुए भी वे कहते हैं यदि प्रवृत्तियों की दृष्टि से मनुष्य का परिष्कृत बनाना हो तो यह कार्य डडडड जन्मदाताओं को प्रजनन की बात सोचने से पूर्व डडडड निज के सुधार परिष्कार के रूप में आरम्भ डडडड चाहिए। इतना ही नहीं यह प्रयास पीढ़ी दर पीढ़ी चलें तो ही बात बनेगी।”

जातियों का बहुत कुछ सम्बन्ध प्रदेशों से भी है। वातावरण में न केवल उस क्षेत्र के प्रचलन वरन् जलवायु में घुसे हुए तत्व भी भावनात्मक प्रवाह उत्पन्न करने और परम्पराओं को दिशा देने की अदृश्य भूमिका प्रस्तुत करते देखे गये हैं।

जातीय विशेषताओं पर “विस्काँसिन विश्वविद्यालय” के एक प्रोफेसर ई. ए. राँस ने एक पुस्तक लिखी है–”प्रिन्सिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी।” इस पुस्तक में राँस ने विभिन्न जातियों की मौलिक विशेषताओं का उल्लेख सामान्य घटनाक्रमों के माध्यम से किया है। उनका कहना है कि वंश परंपरा से प्राप्त नैतिक संस्कारों में उत्तरी यूरोप के निवासी दक्षिणी यूरोप के निवासियों से आगे बढ़े हुए हैं। अपने एक उदाहरण से उन्होंने अपनी बात और भी स्पष्ट की है कि “जहाजी दुर्घटनाओं के अवसर पर उत्तरी यूरोप के निवासियों में दक्षिणी यूरोप के निवासियों की तुलना में अनुशासन, कर्त्तव्य निष्ठा, दुर्बलों के प्रति करुणा एवं सेवा की भावना अधिक पाई जाती है। दक्षिणी यूरोप के निवासी ऐसे अवसरों पर घबड़ा जाते तथा अपना सन्तुलन खो बैठते हैं। स्त्रियों, बच्चों, बूढ़ों जैसे कमजोर वर्गों के बचाव के लिए प्रयत्न करने की तुलना में मात्र अपनी इसके विपरीत प्रवृत्ति पाई जबकि उत्तरी यूरोपवासियों में इसके विपरीत प्रवृत्ति पाई जाती है। उदाहरणार्थ उन्होंने मान्तटैवर, नोटिस, एजेस, मोहिगान वेसलैण्ड, टाइटैनिक जहाजों के डूबने के समय का मार्मिक प्रसंग प्रस्तुत किया है कि जहाज के अधिकारियों ने सभी बच्चों की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी। जबकि लाबुर्गोये, एलिसा, योरोपिया, जैसे विशालकाय जहाजों में हजारों की संख्या में व्यक्ति मारे गये। दक्षिण यूरोप के जहाज अधिकारी अपनी ही रक्षा में लगे रहे।

विभिन्न क्षेत्रों के वातावरण में ऐसी विशेषताएँ पाई जाती हैं जिससे उस परिधि में जन्मने वालों के कुछ अन्यत्र से भिन्न प्रकार की विचित्रताएँ देखी जाती हैं। उदाहरणार्थ–हिमालय के निकट रहने वाले पहाड़ियों में अपराध की प्रवृत्ति कम पाई जाती है। सरहदी पठानों का खूंख्वारपन प्रसिद्ध है।

जान स्टुअर्ट मिल अपनी पुस्तक “प्रिन्सिपल्स ऑफ पाँलिटिकल इकोनाँमी” में लिखते हैं कि यूरोपीय देशों के मिल मालिक अपने यहाँ अँग्रेज मजदूर नहीं रखना चाहते हैं क्योंकि वे वेतन पाते ही शराब पीने में रखना चाहते हैं क्योंकि वे वेतन पाते ही शराब पीने में इतने मस्त हो जाते हैं कि कई दिनों तक काम पर नहीं आते।

स्थान−स्थान पर विभिन्न जातियों एवं समुदायों में रहने वाले व्यक्तियों के स्वभाव, मान्यताओं, आकाँक्षाओं एवं क्रिया–कलापों में भारी अन्तर दिखाई पड़ता है। किसी स्थान के निवासी अधिक बहादुर एवं साहसी होते हैं तो कहाँ के अधिक खूँख्वार। किन्हीं−किन्हीं जातियों में चरित्रनिष्ठा विलक्षण दिखाई पड़ती है। कहीं−कहीं के व्यक्ति अत्यधिक उद्यमी होते हैं जैसे कि जापान, इसराइल, डेनमार्क। उनकी क्रियाशीलता में वातावरण में घुले तत्वों का भी योगदान है। जूलियन हक्सले ने इस विशेषता को साँस्कृतिक विशेषता नाम दिया है तथा यह स्वीकार किया है कि साँस्कृतिक विशेषता को हर कोई उस वातावरण के सान्निध्य में रहकर प्राप्त कर सकता है।

“डडड इमेज, क्लोनिंग ऑफ मैन” पुस्तक में डेविड रोकविक ने कहा है– जीन विश्लेषण की प्रक्रिया को यदि विकसित किया जा सके तो बिना रतिक्रिया के भी समर्थ एवं सुयोग्य व्यक्तियों की प्रतिलिपि सन्तानें पैदा की जा सकेंगी। वह बन पड़ा तो उसे मानवी भविष्य का एक उज्ज्वल चिह्न माना जायगा।

नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. जोशुला लेटर वर्ग (केलीफोíया) का मत है कि संसार के वर्तमान महामानवों के शुक्राणु संचय करने के लिए एक ऐसी बैंक स्थापना की जानी चाहिए जो उपयुक्त स्तर की महिलाओं के माध्यम से उच्चस्तरीय सन्तानें प्राप्त करने के काम आ सके।

वैज्ञानिक जे. बी. एस. हैल्डेन का कहना था कि मानव कलम को कुशलता से तैयार कर वर्तमान की सारी खामियों को दूर किया जा सकता है जो भावी वैज्ञानिक प्रगति में सम्भावित सभी प्रतिकूलताओं डडडड सामना कर सके जिसमें दूसरे ग्रहों की यात्रा भी है। फ्राँसीसी जीव वैज्ञानिक जीन रोंसे का विचार है कि मानव कलम का उपयोग व्यक्ति के खण्डित स्वरूप में बदलने के लिए, उसे अमरत्व प्रदान करने के लिए भी किया जा सकता है।

मिनिसोटा यूनिवर्सिटी के जीवकोशिका विशेषज्ञ रॉबर्ट मैकिवेल ने निम्न जाति के जीवधारियों पर मानवी कलम लगाकर उन्हें नरपशु या पशुनर स्तर के नये जीवधारियों की संरचना की बात सिद्धान्ततः स्वीकारी है। वे कहते हैं कि आवश्यक नहीं कि समान जाति के बीच ही प्रजनन प्रक्रिया सीमित रहे। यह कदम रतिक्रिया द्वारा तो नहीं पर जीन्स आरोपण के प्रयोग द्वारा आज न सही कल सम्भव हो सकता है। फिलाडेल्फिया के रॉबर्ट ब्रिग्स भी इस सम्भावना को स्वीकार करते हुए तदर्थ शोध करने की आवश्यकता प्रतिपादित करते हैं।

जैक्सन लेबोरेटरी बारहार्वट मैंने के जीव पुनरुत्पादन विभाग के वैज्ञानिक पीटर होप के अनुसार यदि स्तनधारी जीवों पर प्रयास किए जायें तो मानव कलम सम्भव है।

कैलीफोर्निया के 74 वर्षीय रॉबर्ट के. ग्राहम ने एक ऐसा अभियान चलाया है जो दुनिया में आश्चर्यजनक है। उन्होंने पाँच नोबुल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों के शुक्राणुओं को एकत्र कर ‘शुक्राणु बैंक’ का निर्माण किया है। इसके पीछे उद्देश्य यह है कि इन शुक्राणुओं से सर्वोच्च आई. क्यू. की महिलाओं से संसर्ग कराके अति बुद्धिमान बच्चे पैदा किये जा सकें। अपने इस प्रयास में वे तीन महिलाओं का अभी तक कृत्रिम गर्भाधान भी करा चुके हैं।

अमेरिका के प्रायः एक सौ से भी अधिक विश्वविद्यालय एवं दर्जनों निजी शोध संस्थान जीन के परिवर्तन एवं प्रत्यारोपण पर शोध कर रहे हैं। इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी एवं रूस ने भी इस विषय में काफी दिलचस्पी दिखाई है।

वनस्पति जगत एवं मनुष्येत्तर प्राणियों पर जेनेटिक इंजीनियरिंग के सफल प्रयोगों के उपरान्त अब विज्ञान जगत में चर्चा का महत्वपूर्ण विषय यह है कि क्यों न वे प्रयोग मनुष्य की नस्ल सुधारने के लिए भी किए जायें। इस संदर्भ में वे संसार के मूर्धन्य नर−नारियों से एक मार्मिक अपील करने जा रहे है कि वे अपनी प्रतिभा को भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ जाने की बात सोचें और व्यक्तिगत असुविधा को सहन करते हुए भी प्रतिभा सम्पन्न पीढ़ियों के सृजन में सक्रिय योगदान दें।

यद्यपि इस प्रसंग में दाम्पत्य जीवन की सघनता पर आँच आने और नैतिक मूल्यों तथा पारिवारिक उत्तरदायित्वों में व्यतिक्रम होने जैसे खतरे सोचे जाते हैं। फिर भी विज्ञजनों का कथन है कि बड़े लाभ के लिए छोटे नुकसान उठा लेने में इतना हर्ज नहीं कि उतने से अपडर के लिए एक महान सम्भावना का परित्याग किया जा सकें।

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश में ‘नियोग‘ प्रथा की परम्परा को शास्त्र सम्मत बताया है और उसका समर्थन किया है। नियोग का अर्थ है–आवश्यकतानुसार विवाहित पति−पत्नी का अन्य किसी से सन्तानोत्पादन कर लेना। विशेष परिस्थितियों में इसे उन्होंने अनुचित नहीं माना हैं। साथ ही समर्थन में कई शास्त्र वचन तथा घटना उद्धरण भी दिये हैं।

हनुमान पुत्र मकरध्वज, भीमपुत्र घटोत्कच, कुन्ती पुत्र पाण्डव की कथा−गाथा प्रख्यात है। व्यासजी ने अपनी तीन भावजों से नियोग करके पाण्डु, धृतराष्ट्र और विदुर को जन्म दिया था। परामर्श द्वारा मत्स्यगंधा के नियोग का भी पुराणों में उल्लेख है। ईसामसीह का जन्म कुमारी माता के पेट से हुआ था।

आचार्य रजनीश उच्चस्तरीय नर−नारियों की समुन्नत स्तर की सन्तानें पैदा करने की आवश्यकता बताते है और इसके लिए वीर्य बैंक की स्थापना तथा मानवी कलम लगाने का समर्थन करते हैं।

तरीके क्या अपनायें जायें यह विवादास्पद है। तो भी इस निर्णय पर पहुँचने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि मानवी प्रगति के लिए व्यक्तित्वों के मूलभूत आधार वंशानुक्रम को भी ध्यान में रखा जाय। आशा की जानी चाहिए कि आज नहीं तो कल कोई ऐसा मार्ग निकल आवेगा जिसमें दाम्पत्य−जीवन की सुविधा तथा पवित्रता बनाये रखकर जीन्स स्तर पर मनुष्य को समुन्नत बना सकना सम्भव हो सके।


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