मत, मतान्तरों को देखकर श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ विभ्रमित हो उठे। धर्म के प्रति उनकी अविचल श्रद्धा थी पर साम्प्रदायिक मतभेदों एवं परस्पर विरोधी मान्यताओं के कारण मन में कितने ही प्रकार आशंकाएँ उठ रही थीं। राज पुरोहित के सामने उन्होंने अपनी शंकाएँ रखीं किन्तु राज पुरोहित समाधान नहीं कर सके। उन्हीं दिनों श्रावस्ती के एक सघन एकान्त में बने संधाराम में भगवान बुद्ध निवास कर रहे थे। “धर्म के मर्मज्ञ और द्रष्टा हैं, ऐसा सोचकर उचित समाधान के लिए महाराज चन्द्रचूड़ भगवान बुद्धि से मिलने चल पड़े।
“श्रावस्ती नरेश आपका दर्शन करना चाहते हैं भगवन्! सुना है धर्मों की विविधता तथा परस्पर विरोधी मान्यताओं के कारण वे अत्यन्त दुखित हैं। धर्म का शाश्वत स्वरूप जानने की जिज्ञासा लेकर आपके दर्शनार्थ आये हैं। आदेश हो तो उन्हें आपके सम्मुख उपस्थित करूं।” एक भिक्षुक ने भगवान बुद्ध से निवेदन किया।”
तथागत भिक्षुक की ओर उन्मुख होकर बोले–”तात! चन्द्रचूड़ एक धर्मात्मा सम्राट हैं, उन्हें शीघ्र यहाँ लेकर आओ।” थोड़ी देर बाद महाराज चन्द्रचूड़ भगवान बुद्ध के समक्ष प्रस्तुत हुए। देवमूर्ति ‘महाप्रा’ को प्रणाम किया। तथागत ने उन्हें सादर आसन पर बिठाया–कुशल क्षेम पूछा। चन्द्रचूड़ ने अपने आने का मन्तव्य स्पष्ट किया। सायंकाल की परिचर्या कुशल क्षेम पूछने तक सीमित रखकर भगवान बुद्ध ने महाराज के विश्राम आदि की व्यवस्था बनाने के लिए एक शिष्य को आदेश दिया।
प्रातःकाल सघाराम में एक वृक्ष से बँधे हाथी और जन्मान्धों की एक टोली को देखकर सभी आश्चर्य में पड़ गये। थोड़ी देर बाद तथागत चन्द्रचूड़ को साथ लेकर अन्धों के पास पहुँचे और उनसे प्रश्न किया, ‘बान्धव! आप लोगों ने हाथी देखा है क्या? ‘नहीं भगवन्–सबने एक स्वर से उत्तर दिया। “ठीक है आज मैं तुम लोगों को हाथी दिखाता हूँ।” ऐसा कहकर भगवान बुद्ध ने प्रत्येक अंधों का स्पर्श हाथी के विभिन्न अंगों से कराया। हाथ से टटोलते हुए किसी ने हाथी की पीठ, किसी ने सूंड़, किसी ने कान, किसी ने दाँत,किसी ने पूँछ तथा किसी ने पैर को छूकर यह समझा कि उन्होंने हाथी देख लिया। सभी प्रसन्न थे कि आज उनकी हाथी से पहचान हो गयी।
अब तथागत ने पूछा–”बताइये हाथी कैसा होता है? एक ने उत्तर दिया खम्भे की तरह”−उसने हाथी के पाँव स्पर्श किये थे। कान के संपर्क में आने वाले ने हाथी की आकृति सूप जैसी बतायी। पूँछ पकड़ने वाले ने हाथी का वर्णन मोटी रस्सी के रूप में किया। सिर को स्पर्श करने वाले ने पत्थर जैसा बताकर अपनी सर्वज्ञता व्यक्त की। यह सब देख एवं सुनकर श्रावस्ती नरेश चन्द्रचूड़ हँस पड़े और बोले “भगवन्! यह सब तो हाथी के किसी अंग भर की जानकारी दे रहे हैं। हाथी तो इन सब जानकारियों से मिली−जुली आकृति होता है।”
भगवान बुद्ध के अधरों पर सारगर्भित मुस्कराहट दौड़ पड़ी। वे बोले–”तात! धर्म का शाश्वत स्वरूप भी ऐसा ही है। मत, मतान्तर विविध सम्प्रदाय एक−एक अंग की समीक्षा, प्रशंसा एवं प्रचार करते हैं तथा मतभेदों में उलझे रहते हैं। वे यह नहीं जानते कि बाह्य कलेवर के रूप में सम्प्रदायों, मत, मतान्तरों का स्वरूप समय−समय पर परिवर्तित होता रहता है, पर धर्म के शाश्वत सिद्धान्त सदा एक जैसे रहते हैं। समता, एकता, सहिष्णुता, उदारता, सहृदयता धर्म की शाश्वत विशेषताएँ हैं जो हर काल में एक समान धर्म रहती हैं। धर्म इन्हीं सहारे फूलता−फलता और समस्त संसार के लिए उपयोग बनता है।”
भगवान बुद्ध की सारगर्भित बातों से महाराज चन्द्रचूड़ की शंका का निराकरण हो गया, धर्म का डडडड समझ में आया तथा धर्म के प्रति उनकी श्रद्धा और सुदृढ़ हो गयी।