विलक्षणताओं से भरी हमारी पृथ्वी

May 1982

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ब्रह्माण्ड के विस्तार, स्वरूप, आयुष एवं प्राविधान को खोजने की मनुष्य की उत्सुकता का होना स्वाभाविक है। क्योंकि अन्ततः वह उसी का एक छोटा घटक है। आग और चिनगारी के विस्तार में तो अन्तर है, पर गुण धर्म में नहीं। ब्रह्मांड जैसा भी है उसकी स्थिति एवं व्यवस्था के अनुरूप पिण्ड का निर्माण हुआ है। समुद्र का पानी खारा है तो उसकी लहरें या बूंदें भी उस गुण धर्म से पृथक् नहीं हो सकती। चिनगारी का तात्विक विश्लेषण छोटे रूप में नहीं हो सकता, उसमें सन्निहित विशेषताओं को समग्र रूप से समझने के लिए प्रकृति कलेवर में संव्याप्त अग्नि तत्व का स्वरूप एवं क्रिया−कलाप समझना होगा।

‘वर्ल्ड एटलस ऑफ मिस्ट्रीज ‘ के लेखक फ्रांसिस हिचिंग ने ऐसे अगणित परिणाम एकत्रित किये हैं जिनसे इस धरातल पर पाई जाने वाली विशेषताएँ स्थानीय न होकर ब्रह्माण्डव्यापी स्थिति का प्रभाव परिचय प्रस्तुत करती है। उन्होंने समुद्र के गहन अन्तराल में ऐसे महापाषाण खोजे हैं जो पहाड़ों की सामान्य चट्टानों से सर्वथा भिन्न है। उनमें जो पदार्थ पाया गया है वह धरती के रसायनों से मिलता−जुलता भी है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि वे पृथ्वी पर इन दिनों पायें जाने पाले पदार्थों की सीमा में बँध सकते है।

अटलाँटिक महासागर की तलहटी में 2500 किलो मीटर लम्बे महापाषाण पड़े हुए जो सौर मण्डलीय पदार्थों के साथ पृथ्वी की पदार्थ सम्पदा को जोड़ते है। इंग्लैंड के सेलिसबरी मैदान में स्टोनहेज नामक स्थान पर ऐसी सैकड़ों भीमकाय चट्टानें पाई गई है जिनके अध्ययन करने पर अन्तर्ग्रही तारतम्य ही बिठाने बिना और कोई गति नहीं। स्टोनहेंज का ‘हेली स्टोन’ महापाषाण तो एक प्रकार से सूर्यमापक यन्त्र ही बना हुआ है। वह 21 जून को सबसे लम्बे दिन ही सभी ओर से स्वप्रकाशित दीखता है। इसके बाद दिनमान के घटने बढ़ने के साथ−साथ उसका प्रकाश भी घटता बढ़ता रहता है। अन्वेषणकर्ता इस काल घड़ी के अनुसार किसी भी तारीख का दिनमान बता सकते है। प्रो. कीरो मध्य ‘सूर्यवेदी’ होने की बात कही है। इस संदर्भ में ज्योतिर्विद् सर नॉरमन लाक्टर ने ‘स्टोन हेंज ऐण्ड अदर स्टोन माँन्यूमेन्ट्स’ नामक एक सुविस्तृत ग्रन्थ ही लिखा है। इंग्लैंड में डार्टमूर के ‘कार्नवाल’ और ‘सोमर सैट’ तथा स्काटलैण्ड के–’स्टैन्टन ड्रियू’ में अवस्थित चट्टानें केवल सूर्य की स्थिति का ही नहीं, ब्रह्माण्ड के अनेकों ग्रहनक्षत्रों की स्थिति का परिचय कराती है। लगता है यह प्रकृति निर्मित वेधशाला किसी महामनीषी ने अथवा ब्रह्माण्डीय चेतना की कलाकारिता ने अद्भुत निर्माण की तरह विनिर्मित की है।

आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के इंजीनियरिंग साइन्स के अवकाश प्राप्त प्रोफेसर ‘डॉ. एलेक्जेण्डर थाम’ ने 1930 में ‘नार्थ स्काटलैंड’ के समुद्री तट पर ‘ग्रेट स्टोन सर्किल ऑफ कैलेनिश’ को देखा और उनकी इतनी दिलचस्पी बढ़ी कि उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए 1945 से 61 तक इन सर्किल्स का सूक्ष्मता से निरीक्षण करते रहे। 1967 ई. में उन्होंने ‘मेगालिथिक साइट्स इन ब्रिटेन’ नामक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें 600 से अधिक ऐसे ‘सर्किल्स ‘ ज्यामिती के अनुसार विनिर्मित है और ज्योतिर्विज्ञान की दृष्टि से विस्मित कर देने वाली ‘एकुरेसी’(शुद्ध एवं सूक्ष्म मापक) की पराकाष्ठा दर्शाते हैं।

कितना रहस्यमय विलक्षण है यह प्रकृति का संसार जो भूतकाल में अति मानवी शक्तियों की पृथ्वी पर उपस्थिति की एक झाँकी मात्र देता है। अपनी पृथ्वी तो उस महान ब्रह्माण्ड की एक छोटी इकाई मात्र है। उस विराट् में और क्या−क्या है, इसे समीप वृद्धि तो कभी समझ ही नहीं सकती।


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