नागेश भट्ट की विद्वता की ख्याति सुन बाजीराव पेशवा वाराणसी दर्शनार्थ आये। देखा–एक जर्जर शरीर पुस्तकों के ढेर के बीच बैठा था। युवावस्था से ही अध्यवसाय में रत यह साधक दर्शन,साहित्य तथा संस्कृति को पतितावस्था में देख–उनकी समयानुकूल व्याख्या लिखने में लगा था। न भोजन का ध्यान रहता, न कपड़ों का। जैसे−जैसे शरीर ढलता गया, तप साधना और भी कठोर होती चली गयी। शरीर सूख गया व उस पर कूबड़ निकल आया।
बाजीराव पूछ बैठे–”आचार्य प्रवर! आज्ञा दें– मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ यह मेरा सौभाग्य होगा।”
आचार्य अपनी एकाग्र चित्त अध्ययन समाधि से उठ बैठे–बोले, “हाँ महाराज! आत्मा के अस्तित्व को प्रामाणित करने के लिये एक सूत्र कठिनाई से हाथ लगा है। उसकी व्याख्या कर रहा हूँ। उसमें यदि मेरी सहायता कर सकें तो बड़ी कृ पा होगी।”
वस्तुतः संस्कृति के ऐसे सच्चे साधक अपने कार्य में तन्मय होते हैं, तभी महत्वपूर्ण उपलब्धि कर पाते हैं, उन्हें अपने मुख्य लक्ष्य की तुलना में हर सुविधा नगण्य प्रतीत होती है।