मनुष्य जैसा भी सोचता एवं करता है वरन् उसका प्रभाव उसी तक नहीं रहता है वरन् समीपवर्ती वातावरण एवं सम्बन्धित व्यक्ति भी प्रभावित होते हैं। यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के ऊपर भी भला−बुरा प्रभाव पड़ते देखा गया है। घटनाओं के सूक्ष्म संस्कार भी चिरकाल तक बने रहते हैं और विभिन्न प्रकार की प्रेरणाओं के रूप में अपना परिचय देते हैं। इस बात की प्रत्यक्ष अनुभूति अच्छे बुरे व्यक्तियों एवं उनसे जुड़े स्थानों पर जाकर की जा सकती है, भले ही वे वर्तमान में जीवित न हो। देवालयों, मन्दिरों, देव पुरुषों, महामानवों, सन्त ऋषियों की तप स्थली पर पहुँचने वालों के मन में परमार्थ की–लोक मंगल की भावनाएँ हिलोरें लेने लगती हैं। इसके विपरीत कसाईखानों आदि स्थानों पर पहुँचने से मन घृणा, विरोध एवं अशान्ति से भर उठता और शीघ्रातिशीघ्र वहाँ से भागने को जी करता है। यह स्थान एवं उनसे जुड़े सूक्ष्म वातावरण का ही प्रभाव है। सद्विचारों सद्भावों के अवगाहन एवं अभ्यर्थना से सत्प्रवृत्तियों की अभिप्रेरणा उठना देव स्थलियों पर सहज ही देखी गई हैं। जबकि युद्ध स्थलियों, कसाईखानों में जीवों का आर्तनाद एवं उनकी पीड़ा सूक्ष्म वातावरण में उमड़ते−घुमड़ते रहते तथा उस संपर्क में आने वाले हर किसी को आकुल−व्याकुल अशान्त एवं विक्षुब्ध बनाते हैं।
प्रचलित धार्मिक मान्यता के अनुसार मरणोपरान्त भी आत्माएँ अपने से जुड़े वातावरण में चिरकाल तक विद्यमान रहती तथा अपनी सद्भावना अथवा दुर्भावना का परिचय सहयोग अथवा आतंक के रूप में देती हैं। कितनी ही बार उसका प्रमाण विविध प्रकार की घटनाओं के माध्यम से मिलता है। ‘लायल वैमिस्टर’द्वारा लिखी गई पुस्तक “स्ट्रैन्ज हैपनिंग“ में एक ऐसी ही घटना का उल्लेख मिलता है। यार्क शायर इंग्लैण्ड में स्थित एक शराब−गृह की कुर्सी–मृत्यु की कुर्सी के नाम से जानी जाती है। इस कुर्सी पर अब तक बैठने वाले अनेकों व्यक्ति अपनी जान गँवा चुके हैं। कुर्सी के विषय में किम्वदन्ती इस प्रकार है।
‘बसवी’ नाम का एक प्रख्यात अपराधी था। वह उसी शराबखाने में नित्य शराब पीने आता था। अपने आतंक से उसने शराब खाने में आने वाले व्यक्तियों एवं मालिक को भयभीत कर रखा था। शराब गृह में उसकी एक सुरक्षित कुर्सी रखी रहती थी जिस पर उसके अतिरिक्त कोई नहीं बैठता था। एक रात वह शराब खाने में अपने ‘ससुर’ के साथ आया और खूब शराब पी। शराब के आवेश में ही उसने अपने ससुर की हत्या कर दी। उसे फाँसी की मजा हुई। संयोगवश फाँसी का मंच भी शराब गृह के ठीक सामने बनाया गया। जिस समय उसकी फाँसी हुई वह अत्यधिक उत्तेजित था। उसने कहा कि–”मेरी कुर्सी पर जो भी बैठेगा उसे मैं जिन्दा नहीं छोड़ूंगा। “
कहते हैं कि उसके मरने के बाद उक्त कुर्सी अभिशप्त हो गई। शराब गृह के मालिक अर्नशो ने यह स्वीकार किया कि उस कुर्सी के साथ किसी दुष्ट आत्मा का प्रकोप जुड़ा हुआ है। उसने जब से शराब गृह खरीदा है, उस कुर्सी पर बैठने वाले अनेकों व्यक्ति जान से हाथ धो चुके हैं। आगंतुकों को सतर्क करने की दृष्टि से मालिक “अर्नशो” ने अभिशप्त कुर्सी के इतिहास को छपाकर शराब गृह में टाँग रखा है ताकि अपने वालों को कुर्सी से जुड़े प्रकोपों का सामना न करना पड़े।
एक बार वायु सेना के दो सैनिक शराब पीने आये। शराब गृह में टंगी लिखित चेतावनी को पढ़कर वे व्यंग कसने तथा अन्ध−विश्वास मानकर मालिक की हँसी उड़ाने लगे। मालिक के मना करने पर भी उन दोनों ने कुर्सी पर बैठकर शराब पी। शराब पीने के बाद वे कार में बैठकर चल पड़े। अभी दो−तीन मील ही चले होंगे कि इतने में गाड़ी एक वृक्ष से जाकर टकरा गई और दोनों को अकस्मात् अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। दूसरा शिकार बना एक मेजर। कुर्सी एवं उससे जुड़ी कहानी की सत्यता का परीक्षण करने के लिए मेजर ने दुस्साहस किया। लम्बे−चौड़े, हट्टे−कट्टे मेजर ने कुर्सी पर बैठकर शराब पी। दूसरे ही दिन इस दुस्साहस की बुरी परिणित हुई। बिना किसी रोग के अचानक मेजर की मृत्यु हो गई।
एक दिन अनजाने में एक मजदूर उस कुर्सी पर आकर बैठ गया। उसकी आयु मात्र सत्रह वर्ष थी। ठीक दो घण्टे बाद वह एक मकान की छत से ऐसे उछला जैसे कि किसी ने उठाकर फेंक दिया हो। नीचे गिरते ही उसने दम तोड़ दिया। शराब गृह के मालिक अर्नशो के समक्ष अब भारी असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गई। एक बार तो उसने सोचा कि कुर्सी को आग लगाकर जला दूँ। किन्तु यह सोचकर कि विक्षुब्ध दुरात्मा के कोप का भोजन कहीं उसे स्वयं भी न बनना पड़े, उसने अपना इरादा बदल दिया। अन्य किसी को आगे शिकार न बनना, पड़े, अतएव कुछ न कुछ तो करना ही चाहिए, यह सोचकर उसने कुर्सी को एक कमरे में बन्द कर दिया। अब तक कुर्सी की ख्याति दूर−दूर तक फैल चुकी थी। एक दिन उनका एक मित्र जिसका नाम हैरी था मिलने आया। उसे कुर्सी की पूरी कहानी मालूम हुई। कौतूहल बढ़ा और अर्नशो को कुर्सी दिखाने के लिए वह बारम्बार आग्रह करने लगा। हैरी के साथ उसका एक मित्र और भी साथ में था। इस शर्त पर कि कोई कुर्सी पर बैठेगा नहीं ‘अर्नशो’ कुर्सी दिखाने के लिए सहमत हुआ। तीनों कुर्सी को देखने के लिए तहखाने में पहुँचे। कुर्सी के निकट पहुँचते ही अचानक बाहर से अर्नशो का बुलावा आया। उन दोनों को कुर्सी पर न बैठने की चेतावनी देकर अर्नशो तहखाने के बाहर आया। वापिस तहखाने में लौटा तो वह यह देखकर विस्मित रह गया कि उसका मित्र ‘हैरी’ कुर्सी पर बैठा हँस रहा है। अर्नशो को घबड़ाया हुआ देखकर वह बोला कि डरने की आवश्यकता नहीं हैं। पुरानी कहानी मात्र एक बकवास और अन्ध विश्वास है उसमें थोड़ा भी सार नहीं है। हैरी ने अपने साथ आये दूसरे मित्र को भी कुर्सी पर बैठने के लिए प्रेरित किया। मित्र के दबाव के कारण वह कुर्सी पर बैठा तो मन ही मन बुरी आशंकाओं से भयभीत रहा। दोनों थोड़ी देर बाद अपने घर वापिस चले गये। इधर शराब गृह का मालिक अर्नशो भीतर ही भीतर डर रहा था कि कहीं पुरानी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो।
उसकी आशंका निराधार न थी–पिछले अनुभव साथ में जुड़े हुए थे। कुछ ही समय बाद सन्देह सिद्ध हुआ। हैरी की मृत्यु ठीक 48 घण्टे बाद बिना किसी शारीरिक बीमारी के हो गई। दूसरे मित्र ने आत्म−हत्या कर ली। उसका निर्जीव शरीर दूसरे दिन प्रातः ‘रीवन मार्केट’ के समीप एक सड़क पर पाया गया। यह समाचार अर्नशो को भी मिला। उसने उसी दिन से कुर्सी को कभी भी किसी को भी न दिखाने का निश्चय कर लिया।
यह घटना इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य के चिन्तन एवं आचरण से व्यक्ति ही नहीं वस्तुएँ एवं वातावरण भी प्रामाणित होते हैं। यह प्रभाव इस जीवन तक ही नहीं मरणोपरान्त भी बना रहता है। उस वातावरण के संपर्क में आने वालों के ऊपर तो प्रभाव पड़ता ही है। इस सत्य में एक कड़ी और भी जुड़ी हुई है कि जो जैसा आचरण करता है उसके सूक्ष्म संस्कार मरणोपरान्त भी बने रहते हैं और वैसे ही कृत्यों के लिए प्रेरित करते हैं। जीवन में अपने चिन्तन एवं कृत्य को श्रेष्ठ बनाये रखने वाले मरणोपरान्त शान्ति एवं सन्तोष की अनुभूति करते हैं जबकि दुष्कृत्यों के सूक्ष्म संस्कार मरने के बाद भी उस व्यक्ति को चैन से नहीं बैठने देते और स्थान तथा वातावरण को विक्षुब्ध बनाये रखते हैं