जीवन यज्ञ है। उसकी प्रत्येक साँस एक आहुति है जो इस यजन को विधिवत् सम्पन्न करता है उसे रुग्णता का कष्ट नहीं सहना पड़ता और वह पूर्णायुष्य प्राप्त करता है। छान्दोग्य उपनिषद् में इस तथ्य और रहस्य पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
उपनिषद्कार ने जीवन को वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल चार भागों में बाँटा है। पूर्ण आयु 96 वर्ष क्रियाशील जीवन की मानी है। शतायु के अन्तिम चार वर्ष थकान, असमर्थता भरे होने की बात सोचकर 96 को ही पूर्ण मान लिया है। प्रत्येक चरण 24 वर्ष का माना है। चौबीस इसलिए भी, कि गायत्री महामन्त्र में 24 अक्षर हैं। प्रथमचरण ब्रह्मचर्य की अवधि को प्रातःकाल माना गया है। द्वितीयचरण यौवन की उपमा मध्याह्न काल से दी है। इसके बाद शेष दो चरण वानप्रस्थ और संन्यास की परमार्थ युग्म में गणना करते हुए उन्हें एक में गिन लिया गया है। इस प्रकार विपदा गायत्री के तीन चरणों में जीवनक्रम के तीन विभाजनों की संगति बिठा दी गई है। इस प्रकार संयम, पराक्रम, प्रखरता और परमार्थ के तीन भागों में विभक्त जीवन यज्ञ, प्रकारान्तर से गायत्री यज्ञ बन जाता है।
इन तीन विभागों के तीन देवता हैं– प्रथमचरण के वसु, द्वितीय के रुद्र, तृतीय के आदित्य। वसु संयम के रुद्र पराक्रम के और आदित्य तेजस्विता के अधिष्ठाता हैं। जीवन का सदुपयोग भी इसी क्रम से होना चाहिए। यदि यह गतिचक्र ठीक तरह चलता रहे तो फिर रोगशोक का, पतन पराभव का कोई कारण नहीं रह जाता।
उपनिषद्कार के अनुसार यदि बीच में कोई विकृति विपत्ति आ खड़ी होती हो तो समझना चाहिए कि नियति के निर्धारण को व्रत पूर्वक अपनाये रहने में कहीं कोई चूक हो रही है। उसे ढूंढ़ना और सुधारना चाहिए। साथ ही देवात्मा सत्ता से विनय अनुरोध करना चाहिए कि वह अपनी प्रेरणा से वर्तमान को ऐसा बनाये जिसमें वह भविष्य की सम्भावनाओं को समुज्ज्वल बनाये रहने के लिए समुचित सतर्कता बरते। ऐसे मार्ग पर न चले जिसके कारण जीवन क्रम की अगली शृंखला को गड़बड़ाने−लड़खड़ाने की दुर्गति का सामना करना पड़े।
गलती के सुधर जाने पर उस कारण प्रस्तुत हुई विकृतियाँ और विपत्तियाँ भी निरस्त हो जाती हैं। रुग्णता का शमन हो जाता है। शरीर मन और लोक−व्यवहार के क्षेत्र में जो दुर्भाग्यपूर्ण अवरोध उत्पन्न हो गये थे, उन भव रोगों को टिके रहने का आधार नहीं रह जाता, फलतः वे निरस्त होकर वापिस लौट जाते हैं।
सुख−शान्ति का यही मार्ग है। जीवन का विभाजन उद्देश्य और उपयोग समझ लेने, तद्नुरूप गतिविधियाँ निर्धारित करने, भूलों को सुधारने, सर्वशक्ति मान सत्ता से सन्मार्ग गमन में प्रेरणा सहायता उपलब्ध करने वाली प्रार्थना करने से उन शोक−सन्तापों का शमन हो जाता है जो जीवन−क्षेत्र के किसी न किसी वर्ग को रुग्ण एवं संकटग्रस्त रखे जाती हैं।
जीवन यज्ञ है। गायत्री उसका इष्ट। समय उसका हविष्य। संयम, पराक्रम और परमार्थ के रूप में उसे वसु, रुद्र और आदित्य के अनुशासन में चलाना चाहिए। जो इस अध्यात्म रहस्य को समझ लेते हैं वे रोग, शोक, सन्ताप में से किसी के भी चंगुल में नहीं फँसते। यदि फँस भी जायें तो भूल−सुधार की प्रायश्चित प्रक्रिया तथा परमात्मसत्ता से सन्मार्ग पर चलने की साहसिकता माँगनी चाहिए। यह है चिरस्थायी एवं समग्र आरोग्य की उपलब्धि का राजमार्ग।
छान्दोग्यकार ने इस तथ्य का वर्णन इस प्रकार किया है :–
‘पुरुषों वाव यज्ञः, तस्य यानि चतुर्विशति वर्षाणि, तत् प्रातः सवनं, चतुर्विशति अक्षरा गायत्री, गायत्नं वाव वसवः एते हीदं सर्वं वासयन्ति॥1॥
तं चेदस्मिन् वयसि किंचिदुपतपेत् स ब्रूयात् प्राणा यसवः। इदं में प्रातः सवनं माध्यन्दिनं सवनं अनुसन्तनुत इति, माऽहं प्राणानाँ वसूनाँ मध्ये यज्ञो विलोप्सीय इति, उद्धैव तत एति, अगदो ह भवति।”॥ 2॥ –छान्दोग्य 3।16।1−2
‘मनुष्य का जीवन एक यज्ञ है। मनुष्य की आयु के प्रथम चौबीस वर्ष, जीवन यज्ञ का प्रातःसवन (प्रातःकालीन यज्ञ) है। गायत्री छन्द चौबीस अक्षरों वाला है, प्रातःसवन में गायत्री छन्द का ही प्रयोग होता है, इस यज्ञ से वसु देवता का सम्बन्ध होता, प्राण ही (समस्त शक्तियों के निवास से)वसु देवता कहलाते हैं। यदि कहीं इन चौबीस वर्षों में मनुष्य को कोई रोग हो जाय, तो उसे ऐसा कहना चाहिए, हे वसु गणों (प्राणों)! यह मेरा प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन के साथ संयुक्त करो (अर्थात् जीवन के प्रथम चौबीस वर्ष को जीवन के शेष आयु से युक्त कर उसे आगे बढ़ाओ) वसुगणों (प्राणों) का यह यज्ञ हमारा बीच में ही विलुप्त करेगा।
जीवन के प्रथम चौबीस वर्ष तो इस प्रकार व्यतीत हुए। उसके आगे के लिए पुनः कहा गया :–
‘अथ यानि चतुश्चत्वारिंश द्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनं सवनं चतुश्च्त्वारिंशदक्षरा त्रिष्टुपु, त्नैष्टुभं माध्यन्दिनं सवनं, तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा, एते हीदं सर्वं रोदयन्ति॥ 3॥
तं चेदेतस्मिन् वयसि किंचिदुपतपेत् स ब्रूयात् प्राणाँ रुद्राः! इदं में म्राध्यन्दिनं सवनं, तृतीय सवनं मनुसन्तनुतेति, माऽहं प्राणानाँ रुद्राणाँ मध्ये यज्ञो विलोप्सीय इति, उद्धैव तत एत्यगदोह [भवति॥4॥ –छान्दोग्य 3।16।3,4
(मनुष्य के जो यौवन वाले) अगले चवालीस वर्ष हैं, वह माध्यन्दिन−सवन का समय है। त्रिष्टुप छन्द चवालीस अक्षरों का होता है, इस माध्यन्दिन सवन में इसी त्रिष्टुप् छन्द का प्रयोग होता है। इस यज्ञ के साथ रुद्र देवता का सम्बन्ध है। यदि इस अवधि में मनुष्य को कोई रोग हो जाये तो उसे इस प्रकार कहना चाहिए हे रुद्र रूपी प्राणो! मेरे इस माध्यन्दिन−यज्ञ की अवधि को तृतीय सवन के साथ जोड़ दो (अर्थात् चवालीस वर्ष की अवधि को अगली आयु से सम्बद्ध कर दो) मेरे द्वारा सम्पन्न होने वाला यह रुद्र देवता (प्राण)प्रधान माध्यन्दिन−यज्ञ बीच में ही विलुप्त न हो जाय।
48 वर्ष के बाद का शेष जीवन भी यज्ञरूप है, इसका वर्णन इस प्रकार किया गया है–
अथ यान्यष्टाचत्वारिंशद्वर्षाणि, तत् तृतीय सवनं, अष्टाचत्वारिंश दक्षरा जगती, जागतं तृतीय सवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः, प्राणा वाव आदित्याः, एते हीदं सर्व आददते॥ 5॥
तं चेदस्मिन् वयत्ति किचिदुपतचेत् स ब्रूयात्–प्राणा आदित्या! इदं में तृतीयसवनं आयुरनुसंतनुत इति, माऽहं प्राणानामादित्यानाँ मध्ये यज्ञो विलोप्सीय इति, उद्धैव तत् एत्यगदोह भवति॥ 6॥ –छान्दोग्य. 3।16।5,6
मनुष्य जीवन का शेष अगला 48 वर्ष, जीवन रूपी दिन का तृतीय सवन है–सायंकालीन यज्ञ है। जगती छन्द अड़तालीस अक्षर का होता है और इस यज्ञ में इसी जगती छन्द का प्रयोग होता है। इस तृतीय सवन के साथ आदित्य नामक प्राण का सम्बन्ध है। आदित्य ही प्राण है क्योंकि यह ही सभी को ग्रहण करते हैं। इस अवधि में रोग होने पर मनुष्य को यह कहना चाहिए कि– हे आदित्य नामधारी प्राणो! यह मेरी आयु का तीसरा खण्ड–तृतीय−सवन है, इसे पूर्ण आयु तक ले चलो। आदित्य (प्राण) प्रधान इस यज्ञ के बीच में ही मेरा यह जीवन−यज्ञ विलुप्त न हो जाय’ ऐसी प्रार्थना करने से आरोग्य का पथ प्रशस्त होता है।
उपयुक्त तथ्य का समापन और फलश्रुति बताते हुए उपनिषद्कार ने अन्त में इस आधार का अवलंबन करके रोग मुक्त हुए महर्षि ऐतरेय का प्रमाण उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कहा है।
एतद्ध स्म वै तद्विद्वान् आह महीदासः ऐतरेयः। स किं म एतदुपतपसि योऽहमनेन न प्रेष्यामीति, स ह षोडशं वर्षशतं अजीवत्। प्रहषोडशं वर्ष शतं जीवति य एवं वेद॥6। –छान्दोग्य. 4/16/7
जीवन तथ्य (जीवन−यज्ञ) को जानने वाले विद्वान महीदास ऐतरेय एक बार रोगी हुए और उस स्थिति में उन्होंने रोग से कहा–’हे रोग! तू मुझे क्यों कष्ट देता है? सन्ताप देता है? मैं इससे नहीं मरूंगा।’ ऐसा दृढ़ निश्चयात्मक प्रश्न करने से वे रोग−मुक्त हो गये और पूर्ण आयु तक जीवित रहे जो भी व्यक्ति जीवनयज्ञ के इस तत्वज्ञान को जानता है वह पूर्णायु तक जीवित रहता है।