यज्ञ चिकित्सा और आधि–व्याधि निवारण

May 1982

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रोग चिकित्सा में औषधियों का उपयोग सर्वत्र होता है। यह औषधियाँ आमतौर से वनस्पतियों से बनी होती हैं। उन्हें खाया और पचाया जाता है। इसमें समय तो लगता ही है, साथ ही पचने की प्रक्रिया में पेट के जिन रसों का सम्मिश्रण होता है उनके कारण वे अपना स्वाभाविक गुण खो भी बैठती हैं। पचने की प्रक्रिया में अन्न रक्त बन जाता है अर्थात् उदरस्थ वस्तु का आरंभिक रूप ज्यों का त्यों न रह कर कुछ से कुछ बन जाता है। अस्तु यह नहीं कहा जा सकता कि औषधि में जो पदार्थ था गुण प्रयोगशाला ने बताये थे वे पचने के उपरांत भी वैसे ही रहेंगे या नहीं। यही कारण है कि खाये गये विटामिन, मिनिरल्स पचने की प्रक्रिया में थपेड़े खाते हुए मल−मूत्र आदि के माध्यम से निकल जाते हैं अथवा उस बीच में ही अपना प्रभाव खो बैठते हैं। यही कारण है कि औषधि सेवन से भी रोगियों का कष्ट निवारण नहीं होता और वे एक दूसरे चिकित्सक पर भटकते, अंधेरे में टटोलते, निराशाग्रस्त बने रहते हैं।

यज्ञ चिकित्सा की स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। उसमें उपयुक्त औषधियों को पेट में प्रवेश करके पचने में समय लगने और अपना प्रभाव खो बैठने का खतरा नहीं है। औषधियों को वायुभूत बनाया जाता है। वह छिद्रों एवं रोम कूपों के माध्यम से शरीर में प्रवेश करती हैं। फेफड़ों के माध्यम से सीधी रक्त में जा मिलती हैं। वायु की पहुँच शरीर के छोटे छोटे जीव कोषों तक है इसलिए यज्ञोपचार के माध्यम से ग्रहण की गई वायु भूत औषधि शरीर के समस्त घटकों तक जा पहुँचती है और अपना प्रभाव दिखाती है, जबकि इन्जेक्शनों के द्वारा प्रवेश कराई गई दवा अधिक स्थूल होने के कारण रक्त कणों से टकराती है। वे उस विजातीय द्रव्य को मार भगाने में कोई कसर नहीं रहने देते। यही कारण है कि इन्जेक्शन में पचने का झंझट बन जाने पर भी रक्त कणों से संघर्ष लेना पड़ता है और उनकी भी वही दुर्गति होती है जो पचने के चक्र में फँसने पर मुँह से खाई गई औषधियों की होती है। यज्ञोपचार इन दोनों ही झंझटों से बच निकलता है। वायुभूत औषधियों से न पेट के पाचक रस टकराते है और न विजातीय पदार्थों से जूझने वा रक्त कण ही उनसे उलझने के लिए आगे आते हैं। यही का है कि यज्ञोपचार न केवल सरल है वरन् साथ ही सभी चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में अधिक सत्यपरिणाम प्रस्तुत का सकने में समर्थ रहता है।

मानसिक रोगों में जो कार्य यज्ञ चिकित्सा कर सकती है वह अन्य किसी पद्धति के माध्यम से नहीं हो सकता। वायु भूत औषधियों के शरीर में प्रवेश करने का राजमार्ग नासिका मार्ग ही है। नाक से साँस फेफड़े में पहुँचती है, पर उसका रास्ता मस्तिष्क से होकर ही गुजरता है। इसलिए उसका प्रभाव भी पहले मस्तिष्क पर बाद में फेफड़ों पर ओर इसके उपरान्त शरीर के समस्त छोटे−बेड़े घटकों तक पहुँचता है। ऐसी दशा में स्पष्ट है कि मस्तिष्क, श्वास नली और फेफड़ों पर इस उपचार का प्रथम प्रभाव पड़ेगा। फलतः अन्य अवयवों की तुलना में लाभ भी उन्हीं को अधिक मिलेगा।

मस्तिष्कीय रोगों की चिकित्सा अभी बाल्यावस्था में चल रही है। जबकि बाहर वालों को न दीखने वाले किन्तु आक्रान्त को निरन्तर उद्विग्न रखने वाले मनोरोगों की संख्या शारीरिक व्याधियों की तुलना में कही अधिक हैं। सनकी, शंकालु, भयभीत,उत्तेजित, अधीर, दुराग्रही क्रोधी दिग्भ्रान्त, चिन्तित, लोभी, अहंकारी, उद्धत, स्तर के लोग शारीरिक रोगियों से भी अधिक कष्ट सहते और कष्ट देते हैं। इनका इलाज कहीं किसी चिकित्सा पद्धति में नहीं है। बहुत हुआ तो अनिद्रा जैसे रोगों में नींद की गोली जैसे कुछ जादुई इलाज चले हैं। सिर दर्द में संज्ञा शून्य करने वाली गोलियाँ, दर्द में सुन्न या बेहोश करने वाली कुछेक प्रकार की कानी कुबड़ी चिकित्साएँ हकीम डॉक्टर करते रहते हैं। पागलपन में बिजली के झटके ट्यूमर आदि होने पर ऑपरेशन जैसी थोड़ी-सी चिकित्साएँ सोची खोजी गई हैं जबकि उनका विस्तार शारीरिक रोगों की तुलना में कही अधिक है। अपेक्षाकृत हानि भी उन्हीं से अधिक उठानी पड़ती है। पिछड़े हुए अपराधी कुसंस्कारी व्यक्ति ने केवल अपने लिए वरन् समूचे समाज के लिए सिर दर्द बने रहते हैं जबकि शारीरिक रोगी स्वयं कष्ट भुगतते और घर वालों को थोड़ा परेशान करते हैं।

इन दिनों मानसिक रोगों के अतिरिक्त फेफड़े के श्वास नली के रोगों का ही नम्बर आता है। तपैदिक−ब्राँकइटिस,दमा जैसे रोग श्वसन

तन्त्र से सम्बन्धित हैं। इनके उपचार पेट और हृदय दोनों से दूर पड़ने के कारण औषधि उपचार पेट और हृदय दोनों से दूर पड़ने के कारण औषधि उपचार के सहारे कठिन पड़ते हैं। यज्ञ चिकित्सा इन सभी तन्त्रों को सीधे प्रभावित करने के कारण अपना लाभ स्वभावतः अधिक परिमाण में और कम समय में प्रस्तुत कर सकती है।

औषधि विज्ञान की मान्यता है कि रोग विषाणुओं से उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें मारने वाली प्रक्रिया अपनानी चाहिए। प्रयोग में अधिकाँश दवाएँ मारक (एण्टीबायोटिक) स्तर की ही आती है। इस प्रयोग से जितने विषाणु मरते हैं उससे भी अधिक रक्षक स्वस्थ कोषों का सफाया होता है जितने शत्रु मरते हैं उससे भी अधिक मित्रों को मरना पड़े तो ऐसा युद्ध लाभदायक− उत्साहवर्धक, सन्तोषजनक नहीं माना जा सकता। देखा जाता है कि औषध उपचार से रोग मुक्त होने के उपरांत भी बेहतर क्लान्ति छाई रहती है और एक से निवृत्त होते ही दूसरे रोगों की काली छाया झाँकने लगती है। यह कठिनाई यज्ञ चिकित्सा में नहीं है। क्योंकि यजन कृत्य में जो हविष्य होमे जाते हैं। उनमें एक भी मारक गुणवाला नहीं होता। सभी परिशोधन एवं परिपोषण प्रकृति के होते हैं। आत्मिकी का प्रतिपादन यह हैं कि रुग्णता दुर्बलता से उत्पन्न होती है। विषाणु मात्र दुर्बलों पर आक्रमण करने में सफल होते है। इसलिए उपचार ऐसा होना चाहिए जिससे हर स्तर की दुर्बलता घटती और समर्थता बढ़ती चली जाए। यज्ञ चिकित्सा का आधार यही हैं। रोगियों के शरीर में जिस स्तर की दुर्बलता बढ़ गई होती है, उसे दूर करने के लिए उसी स्तर के पौष्टिक तत्व शरीर में पहुँचाये जाते हैं। इस प्रकार यज्ञ चिकित्सा को एक प्रकार से सर्वथा निर्दोष और रोग मुक्ति के साथ दुर्बलता निवारण को दुहरा प्रयोजन पूरा करने की प्रक्रिया कह सकते हैं।

मानसिक रोगों में यज्ञीय ऊर्जा के साथ साथ मन्त्र का प्रभाव अभीष्ट उपचार की पूर्ति करता है। रोगी को देव सान्निध्य की,पाप प्रायश्चित की श्रद्धा अपनाने के लिए मनोविज्ञान सम्मत प्रक्रिया से लाभान्वित किया जाता है। देव अनुग्रह से प्रारब्ध रोग कटने एवं उस धर्मानुष्ठान से अन्तराल में जमी रोगों की जड़ कटने की बात यदि हृदयंगम कराई जा सके तो यज्ञ प्रक्रिया के साथ आत्म विश्वास भी बढ़ता है जो न केवल मनोरोगों के निराकरण में वरन् मनोबल की अभिवृद्धि में भी असाधारण रूप से सहायक होता है।

प्रस्तुत चिकित्सा पद्धतियां अपने अपने ढंग से कार्य कर रही हैं। इतने पर भी वे लोक स्वास्थ्य की रक्षा कर सकने में इतने न्यूनतम स्तर की सफलता का ही दावा कर सकी हैं। अब तक एक रोग की भी किसी चिकित्सा पद्धति ने सुनिश्चित दवा खोज निकालने में जादुई नुस्खे ही उनके साथ लगे हैं। इनसे भी बढ़ते हुए रोगों के निवारण और दिन दिन गिरते स्वास्थ्य का संरक्षण हो सकने की आशा नहीं बँधती। ऐसी अन्धकार भरी परिस्थितियाँ में यज्ञ चिकित्सा एक ऐसी आशा किरण है जिसके प्रखर होने पर लोक स्वास्थ्य पर छाया हुआ संकट उबर जाने की आशा है।


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