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May 1982

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सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ता मनोहारिणी, सन्मित्रं सुधनं स्वयोषिति रतिः सेवारताः सेवकाः।

आतिथ्यं सुर पूजनं प्रतिदिनं मिष्ठान्नपानं गृहे, साधोः संग उपासना च सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः॥

अर्थात्–सचमुच वह गृहस्थाश्रम धन्य है, जिसमें आनन्दमय घर, विद्वान् पुत्र,मनोनुकूल स्त्री, सच्चे मित्र, सात्विक धन, अपनी पत्नी से प्रीति, सेवापरायण सेवक, अतिथि−सत्कार, नित्य−प्रति देव पूजा, सन्तोषप्रद भोजन, सज्जनों की संगति और उपासना–साधना– ये सभी विशेषताएँ उपलब्ध रहती हैं। तात्पर्य यह कि अपनी घर−गृहस्थी को उत्कृष्ट बनाने की चाह हो तो इन विशिष्टताओं का उसमें समावेश अवश्य करना चाहिए।


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