परिपक्व और परिष्कृत व्यक्तित्व के सूत्र

May 1982

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परिपक्व व्यक्तित्व प्रौढ़ता प्राप्त करने में समय ले जाते हैं। बरगद और खजूर से फल प्राप्त करने में काफी लम्बी अवधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। खाद पानी की तरह मनुष्य को भी सुविकसित होने में अनुभव और अभ्यास चाहिए। अनुभव दूसरों को देख समझ कर या उनके परामर्श सिखावन के सहारे भी प्राप्त हो सकते हैं अभ्यास तो स्वयं अपने को ही करना पड़ता है। संगीतकार, कलाकार, साहित्यकार आदि बनने के लिए उन प्रसंगों के सिद्धान्त समझ लेना भर काफी नहीं है जो समझा है उसको क्रिया रूप में उतारना पड़ता है। सो भी दो बार भी नहीं कईबार भी नहीं–ढेरों बार लगातार उसे करते रहने पर भी वैसी रुचि बनती और आदत पड़ती है। जीवनक्रम को अमुक ढर्रे में ढालने के लिए उस प्रक्रिया में होकर असंख्यों बार गुजारना पड़ता है। अन्यथा एक दो बार के अभ्यास तो बालू का महल बनाने की तरह मात्र तात्कालिक मनोरंजन करता है। जरा-सी तेज हवा चलते ही इधर−तिधर बिखर कर समाप्त हो जाता है।

यहाँ एक बात और भी स्मरण रखने योग्य है कि हर वस्तु को पकने के लिए अभीष्ट पातमान की आवश्यकता पड़ती है। अण्डे से बच्चा तब निकलता है जब उसे उपयुक्त समय तक उपयुक्त गर्मी उपलब्ध हो चुकी होती है। भ्रूण के पकाने में भी उदरदरी की ऊर्जा काम करती है। भोजन पकने पर भी वही सिद्धान्त लागू होता है। कुम्हार के आवे से लेकर लुहार की भट्टी तक में जो कुछ नहीं बनता है उसमें निर्माताओं का कौशल ही सब कुछ नहीं कर लेता। उसके लिए पकाने वाली भट्टी में उपयुक्त स्तर की गर्मी भी होनी चाहिए। मनुष्य को भी ऐसे जीवनक्रम के साथ पाला पड़ना चाहिए जो कठिनाइयों से भरा हो जिसमें अवरोधों से जूझने, अभीष्ट साधन जुटाने और प्रतिकूलताओं को अनुकूलता में बदलने के लिए प्रबल पराक्रम और अनवरत संघर्ष करना पड़े। रगड़ से गर्मी उत्पन्न होने का सिद्धान्त सभी को विदित है। विकास के लिए जिस गर्मी की आवश्यकता है वे भी प्रतिकूलता के साथ गुंथ पड़ने और और मल्ल युद्ध करने पर ही उत्पन्न होती है।

जिन्हें संघर्ष नहीं करने पड़े, जिनने सदा सुविधाएँ और अनुकूलताएँ ही देखी हैं जिन्हें प्रशंसा और सहायता की कमी नहीं रही, उनकी सफलताएँ चिरस्थायी नहीं हो सकतीं, वे तभी तक ठहरती हैं जब तक कि किसी अवरोध या आक्रमण में वास्ता नहीं पड़ता कमजोर रस्सियों से बँधे छप्पर एक ही अन्धड़ में यहाँ से वहाँ जा पहुँचते हैं। उनके अंजर–पंजर जहाँ−तहाँ छितरते देखे जाते हैं, किन्तु मजबूत ईंट गारे बनी ढाली छतें प्रचण्ड तूफानों का सामना करते हुए भी जहाँ की तहाँ बनी रहती हैं। फसल तभी पकती है जब उनके ऊपर से एक अच्छी खासी गर्मी गुजर जाती है।

जिन्हें प्रौढ़ता में गौरव प्रतीत होती है वे जानबूझ कर विपरीतताओं से जूझने का अभ्यास करते हैं। आंकड़ों की कार्यपद्धति यही है। पर्वतारोही, तैराक, प्रतियोगिताओं में उतरने वाले ऐसी ही तैयारियों में संलग्न रहते और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की गौरव गाथा से यशस्वी बनते हैं। तपस्वी जीवन में उन कठिनाइयों को आमंत्रित किया जाता जो देव जीवन में प्रवेश करते समय, प्रस्तुत वातावरण से भिन्न प्रकार का आचरण करने से प्रस्तुत होती है। इसके बाद उन कठिनाइयों का सिलसिला आरम्भ होता है जो उत्कृष्टता के उपार्जन करने लिए मूल्य चुकाने के रूप में स्वेच्छापूर्वक वरण करनी होती है।

‘दि स्टडी ऑफ पर्सनालिटी’ ग्रन्थ में विद्वान लेखक एच. ब्राण्ड लिखती है–”व्यक्तित्व के विकास में कितने ही साधनों तथा सहयोगियों की आवश्यकता पड़ती है। वे बाहर से जुटाये जाते हैं। पर इस संदर्भ में एक आवश्यकता ऐसी है जिसकी पूर्ति स्वयं ही करनी पड़ती है।चरित्र ही वह विभूति है जिसके सहारे दूसरों को आकर्षित करना, प्रशंसक बनाना तथा साथी सहयोगी बनने के लिए सहमत किया जा सकता है। वजन हर वस्तु का अपना होता है। दूसरे लोग तो उसकी नाप तौल भर करते हैं। रुई का हलका और पत्थर का भारी होना उसका अपना निजी गुण है। इसी प्रकार चरित्र के रूप में अपना वजन घटाना या बढ़ना हर किसी के अपने हाथ की बात है।

चरित्र आत्म संयम से आरंभ होकर लोक सेवा में तत्पर रहने की उदारता तक विकसित होता चला जाता है। आमतौर से चरित्रवान उन्हें कहते हैं जो दुर्व्यसनों और दुर्गुणों से बचे रहते हैं। परिश्रमपूर्वक कमाते और सन्तोष के साथ गुजर करते हैं। यह चरित्र की प्रथम कक्षा है। संयमी ही अपनी क्षमताओं का अपव्यय रोक सकते हैं और उस बचत के बलबूते निजी तथा सर्वजनीन सत्प्रवृत्तियों के उत्कर्ष में कुछ कर सकने में समर्थ हो सकते हैं। अपव्ययी असंयमी के लिए तो अपनी ही समस्याएँ−अनाचरण की प्रतिक्रियाएँ की प्रतिक्रियाएँ ही इतनी भरी पड़ती है जिन्हें सुलझना समेटना पहाड़ जैसा भारी पड़ता है।

चरित्र का प्रथम सोपान संयम है। पुरुषार्थ को उपार्जन और संयम की बचत माना जाता है। इन दोनों को अपनाने से ही व्यक्तित्व का धनी बना जा सकता है। इसके बाद यह प्रसंग आता है कि इस सम्पन्नता का कहाँ उपयोग किया जाय? इसका उत्तर एक ही है पीड़ा और पतन से जन−समुदाय को उबारने वाले सत्प्रयोजनों का संक्षेप में यह लोक सेवी का उदारता का मूलभूत स्वरूप है। चरित्रवान संयमी−सादगी प्रिय सज्जन तो होते ही हैं साथ ही उनकी विभूतियों का अधिकाँश उपयोग जन सेवा के कल्याणकारी प्रयोजनों में होता रहता है। चरित्रवान जिस प्रकार उपभोग के सम्बन्ध में भी कड़ाई बरतते और रोकथाम लगाते देखी जा सकती है। जो इतने कर पाने योग्य विवेक विकसित कर लेगा उसमें उतनी सूझ समझ भी उठेगी कि प्रतिभा एवं सम्पदा का सर्वश्रेष्ठ उपयोग सत्प्रवृत्ति संवर्धन में ही हो सकें है। इस प्रकार समग्र चरित्र निष्ठा मर्यादाओं के पालन तथा सेवा परायण होने की दो कसौटियों पर जाँची, परखी जा सकती है।

मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि व्यक्तित्व समीपवर्ती सामाजिक ढाँचे का एक घटक मात्र है। वह वही सीखता है जो सीखने के लिए सामने बिखरा पड़ा है। वही सीखता है जो समीप में उगता और पकता है। अपनी मर्जी का उगाना और पकाना तर्क के माध्यम से शक्य सिद्ध किया जा सकता है। इतने पर भी वह सरल नहीं है। इसके लिए भी जानकारी, अनुभव, अभ्यास चाहिए और वैसा कर गुजरने के साधन उपलब्ध रहने चाहिए। यदि कोई इतना सरंजाम जुटा सकता है तो भी इसके लिए यह शक्य होगा कि अपने अनुरूप वातावरण बनाये और उसके सहारे अपना काम चलाये। ऐसा कर सकना किसी−किसी मनस्वी के लिए कभी−कभी ही सम्भव होता है। आमतौर से सामाजिक ढाँचे का कुम्हार ही लोगों को बर्तनों की तरह अपने चाक पर बनाता और आवे में पकाता रहता है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रयास यह होना चाहिए कि सामाजिक वातावरण वैसा बनाया जाय जैसा कि वर्तमान या भावी पीढ़ी को ढालना ढाला जाना है। यह कार्य बड़े लोगों का है बड़े से तात्पर्य है−वे समाज को प्रभावित कर सके−उसे उपयुक्त बनाने वाले परिवर्तन का दबाव डाल सके। दबाव डालने वाला प्रवाह उत्पन्न कर सके।

इतने पर भी व्यक्तिगत प्रयास का द्वार बन्द नहीं हो जाता। छोटा इच्छित समाज बनाया जा सकता है अथवा जहाँ ऐसा वातावरण मौजूद है वहाँ जा पहुँचने का परिवर्तन किया जा सकता है। पक्षी चुनकर अपना घोंसला बनाते हैं। इसी प्रकार अच्छे मनुष्य चुन−चुन कर एक स्वतन्त्र मण्डली खड़ी की जा सकती है। यह अपना निजी सृजन है जो छोटा होते हुए भी व्यक्तित्व के निर्माण में असाधारण भूमिका निभा सकता है। इसी प्रकार यह भी हो सकता है कि श्रेष्ठता का वातावरण ढूंढ़ लिया जाय और वर्तमान निवास संपर्क एवं व्यवसाय को बदलकर वहाँ रहने लग जाय। ऐसी कई शिक्षण संस्थाएं होती है कई लोक सेवी आश्रम संगठन भी होते हैं जिसमें रहने या खपने का अवसर प्राप्त कर लेना सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है।

इस प्रकार हो या उस प्रकार व्यक्तित्व के विकास में सामाजिक वातावरण के योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता, उसे अनुकूल बनाने के लिए बड़े पैमाने पर काम करें और समूचे ढर्रे को श्रेष्ठ परम्पराओं के अनुरूप बदलें बनायें। दूसरी ओर इच्छुकों को अपने निजी प्रयास अपनी मित्र मण्डली गढ़ने अथवा जैसी वैसी अनुकूलता है वहाँ जा पहुँचने का प्रयास करना चाहिए बड़े लोग बड़े पैमाने पर नहर बनाते हैं अथवा छोटे लोग छोटे प्रयत्नों से छोटे कुएँ बनाते है यह बात दूसरी है, पर हालत में प्यास बुझाने के लिए पानी का प्रबन्ध तो करना ही पड़ेगा। प्रगतिशीलता यदि पनपेगी तो उसके लिए सामाजिक पर्यावरण की अनुकूलता उपलब्ध करने का प्रयत्न तो करना ही होगा।”

यहाँ यह और स्मरण रखने योग्य है कि व्यक्तित्वों को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका छोटे परिवार की होती है। छोटे परिवार का तात्पर्य है वह समुदाय जिसके साथ सोने खाने का एवं विभिन्न प्रयोजनों के लिए संपर्क साधने का अवसर मिलता है।

प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक ग्रंथ ‘दी इंटर परसनल थ्योरी ऑफ साइकोमेट्री” में विद्वान लेखक है–”श्रेष्ठ व्यक्तित्व के विकास में मनुष्य के सामाजिक घेरे का बहुत बड़ा हाथ रहता है। जन्म से लेकर मरण पर्यन्त सदा सीखने की ही प्रक्रिया जारी रहती है। यह सब कुछ कोई अकेलेपन में नहीं कर सकता। शरीर यात्रा में प्रयुक्त होने वाली आदतें भी उसने प्रकृति के वातावरण से टकरा−टकरा कर ही सीखी है। समाज का प्रभाव प्रकृति से किसी प्रकार कम नहीं है। जिन लोगों के साथ घनिष्ठता रहती है उनमें कई प्रकार की सुविधाओं का आदान−प्रदान ही नहीं होता उस संपर्क से स्वभाव भी बनता बदलता है। संगति के प्रभाव से भलों का बुरा और बुरों का भला बन जाना आयेदिन देखा जाता है।

सामाजिक परिस्थितियां किसे कैसी मिलती हैं। इसमें कुछ तो पूर्व निर्धारित ही होता हैं पर वह सर्वथा छाया ही रहे ऐसी कोई विवशता भी नहीं है। अपरिपक्व रहने तक की अवधि में ही परावलंबन रहता है। उन्हीं दिनों पूर्व निर्धारित वातावरण में घिरे रहने की विवशता रहती है। जैसे−जैसे स्वतन्त्र व्यक्तित्व के विकास की वय आरम्भ होती है वैसे−वैसे अपनी इच्छानुसार मैत्री संपर्क बनाने की सुविधा मिलने लगती है। कुटुम्ब परिवार की तरह मैत्री परिवार के साथ आदान−प्रदान चल पड़ता है। यह स्वनिर्मित−इच्छाओं के अनुरूप होने के कारण और भी अधिक प्रभावी होता है।

मैत्री परिवार अपनी इच्छानुसार अपनी खोज घनिष्ठता एवं क्रिया−प्रक्रिया के आधार पर बनता है। किसने किस प्रकार का मैत्री परिवार बनाया और किस प्रकार का प्रभाव समेटा यह उसके अपने चुनाव एवं प्रयास पर निर्भर है।’ वातावरण के पूर्व निर्धारित रहने वाली बात एक अंश तक ही सही है। समाज की परिस्थितियाँ मनुष्य को ढालती है यह बात ही एक सीमा तक ही सही बैठती है। इससे भी अधिक प्रबल तथ्य यह है कि निजी आकाँक्षा के अनुरूप भले बुरे मैत्री परिवार बनते हैं और उन्हीं के उत्थान और पतन का सरंजाम जुटाने वाले परिवार की स्थिति को विवशता कहा जाता है वहाँ इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए कि अपने प्रयासों से मैत्री परिवार का गठन करने किसी भी भले−बुरे समाज में से अपनी इच्छा का समान खोजा और सृजा जा सकता है। समाज के दबाव से मनुष्य बनता है। इस प्रतिपादन में इतना और जोड़ा जाना चाहिए कि “समाज के समुद्र में सभी प्रकार के तत्व है और उसमें से कोई भी–कहीं भी–अपने अनुरूप निजी समाज इच्छानुरूप निर्मित कर सकता है।

व्यक्तित्वों को विकसित करने वाला वातावरण बनाने समाज के मूर्धन्य व्यक्ति का काम है पर वैसा न बन पड़ने पर भी हर मनुष्य अपने भावी प्रयास से अपनी वह परिपक्वता विकसित कर सकता है जिसे प्रतिभा या प्रखरता का नाम दिया जा सके।

उच्चस्तरीय सहयोग किस मूल्य पर खरीदें?

संसार के समाज शास्त्री यह मानते रहे हैं कि किसी देश या समाज को समुन्नत या प्रगतिशील तभी माना जा सकता है जब वहाँ के नागरिक व्यक्तित्व सम्पन्न हों। ऊँचा दृष्टिकोण और सुदृढ़ चरित्र ही मनुष्य की वास्तविक मजबूती है। मजबूत ईंट पत्थरों का प्रयोग होने से ही कोई इमारत सुदृढ़ एवं चिरस्थायी बनती है। यही बात समाज या देश के सम्बन्ध में भी है। यदि नागरिक व्यक्तित्व की दृष्टि से घटिया रहेंगे तो वैभव की दृष्टि से प्रचुर सम्पदा के अधिपति होते हुए भी वे दोष−दुर्गुणों से ग्रस्त रहेंगे। सामर्थ्य का अनुपयुक्त कार्यों में अपव्यय करेंगे तथा दुष्प्रवृत्तियों से संलग्न रहकर समूचे समाज के लिए विक्षोभ संकट उत्पन्न करेंगे। फलतः वह सम्पदा निकम्मी सिद्ध होगी और उस समाज की सशक्तता तथा प्रगति कही जाने वाली सफलताएँ उत्पन्न करने में तनिक भी सहायक सिद्ध न होगी।

चरित्रवान नागरिकों वाला समाज वैभव की दृष्टि, से पिछड़ा कहा जाय तो भी कुछ बनता बिगड़ता नहीं। सद्गुणी व्यक्ति स्वल्प साधनों का मिलजुल कर नीति युक्त सदुपयोग करते हैं और उतने भर से उतना काम चला लेते हैं, जितना कि धन कुबेरों के लिए भी सम्भव नहीं हो पाता। युद्ध में मनस्वी जीतते हैं। अस्त्र−शस्त्रों की विपुलता रहने पर भी उस पक्ष को पराजित होना पड़ता है जिसके सैनिकों में वीरता एवं देश भक्ति की कमी रहती है।

इतिहास के सभी वर्गों पर दृष्टिपात करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि व्यक्तिवादी लोग–संकीर्णता की रीति−नीति अपनाते हैं फलतः समाज की उपेक्षा करके निजी लाभों का ताना−बाना बुनते रहते हैं। इस बिखराव का प्रतिफल समाज की दुर्बलता बन कर प्रकट होती है। सभी जानते हैं कि समन्वय, संगठन, एकीकरण में कितनी अधिक सामर्थ्य होती है। तिनके मिलकर रस्सी बनते और सींकों का समूह बुहारी बनकर उपयोगी भूमिका निभाता है। यदि तिनकों और सींकों को बखेर दिया जाय तो वे निरुपयोगी तो होंगे ही, साथ ही अपने अस्तित्व की रक्षा कर सकने में भी समर्थ न होंगे।

एकता को दृढ़ता का प्रतीक माना गया है। संगठन को जीवित प्राणियों की क्षमताओं में मूर्धन्य समझा जाता है। यह एकता सैनिकों में पाई और मधुमक्खियों, चींटी दीमकों में देखी जाती है। फलतः उनकी संयुक्त शक्ति का प्रतिफल चमत्कारी देखा जाता है। यदि इन समुदायों के सदस्य पृथक पृथक ढंग से सोचें और अपनी ढपली अपना राग की नीति अपनायें तो समझना चाहिए कि उनकी विशिष्टता समाप्त हो गई।

बन्दर अनुपयोगी,हानिकारक होते हुए भी लम्बे समय से मनुष्य का विरोध आक्रोश सहते हुए भी अपना अस्तित्व अभी तक इसलिए अक्षुण्ण रखे हुए है कि उनमें मिलजुल कर प्रतिरोध या आक्रमण करने की एक मौलिक विशेषता विद्यमान है। इसके विपरीत सिंह, व्याघ्र अति समर्थ होते हुए भी पारस्परिक विग्रह के कारण अपना अस्तित्व धरती से समाप्त करते चले जा रहे हैं।

एकता यों एकरूपता में सम्मिलित निवास में भी दृष्टिगोचर होती है, किन्तु वास्तविक एकता भावनात्मक ही है। इसको आत्मीयता, सहकारिता, सामाजिकता आदि नामों से पुकारते हैं। मिलजुल कर रहना, मिलकर खाना यों एक प्रथा परम्परा जैसी प्रतीत होती है, पर वस्तुतः वह है विशुद्ध रूप से वैयक्तिक उत्कृष्टता। दूसरों के प्रति प्रेम भाव सम्मान रखने पर ही यह सम्भव होता है कि कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में समूहवादी बन सके।

एकाकीपन, व्यक्तिवादी संकीर्ण स्वार्थपरता में लाभ यह दीखता है कि दूसरों के मामले में दिलचस्पी लेकर या सहायता देकर क्यों अपना समय, श्रम या धन खर्च किया जाय? इसमें दूसरों का लाभ हो सकता है, पर अपने को तो नुकसान ही पड़ेगा। खुदगर्जी इसी तर्क एवं मान्यता की परिणति है। उथले चिन्तन से यह तर्क मजबूत मालूम पड़ता है, पर थोड़ी-सी गहराई में प्रवेश करते ही उसका खोखलापन सिद्ध हो जाता है। मनुष्य में सामर्थ्यों तो अनेक हैं पर खाने, सोने को छोड़कर और कोई उपलब्धि ऐसी नहीं है जो दूसरों के सहयोग बिना हस्तगत हो सके। इसलिए सहयोग मिलने की आवश्यकता तो पग−पग पर रहेगी ही। यह कैसे मिले? न मिले तो काम कैसे चले? एकाकी प्रयत्न एवं सीमित साधन निर्वाह से लेकर प्रगति तक के अनेकानेक प्रयोजनों की पूर्ति कैसे सम्भव हो? दूसरों की सहायता यदि पग−पग अपेक्षित रहती है तो उसे प्राप्त कैसे किया जाय? मुफ्त में कोई क्यों देगा? जिस प्रकार हम खुदगर्जी को बुद्धिमत्ता मानते हैं–उसी प्रकार अन्य लोग क्यों न मानेंगे? पैसा देकर हर सहयोग कहाँ तक खरीदा जाता रहेगा? फिर उतना पैसा कमाया कैसे जायगा? एकाकी पुरुषार्थ से तो कमाई भी सीमित ही हो सकती है। आर्थिक क्षेत्र के आदान−प्रदान को श्रम, समय, साधन बेचकर पैसे के रूप में या अन्य अपने उपयोग की वस्तुओं के रूप में खरीदा जा सकता है। पर इतने से ही सारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो नहीं हो जाती। मैत्री आत्मीयता,स्नेह, सौजन्य जैसी भावनात्मक आवश्यकताएँ पैसा देकर खरीदी जा सकती। माता से सन्तान को मिलने वाला वात्सल्य, पत्नी का एकात्म समर्पण कहाँ, कितने मूल्य पर कोई खरीद सकता है। वफादार मित्र कोई कहाँ से किस प्रकार क्रय करेगा? यदि इस स्तर का कुछ न मिल सका तो क्या रूखी, नीरस,निराश कुरूप, कर्कश जिन्दगी जीनी न पड़ेगा? कुटुम्बिकता में वस्तु परक आदान−प्रदान की प्रमुखता नहीं होती वरन् उस आनन्द में पारिवारिकता के रूप में अनुभव की जाने वाली उदार आत्मीयता ही सारी पृष्ठभूमि बनाती है। भावनात्मक आदान−प्रदान के बिना एक पक्षीय सहयोग कैसे मिले? एक अपने मतलब में चौकस रहे और दूसरा उसे अकारण ही स्नेह−सहयोग देता रहे इसकी व्यवस्था कैसे बन सकेगी?

इस विश्व व्यवस्था में हर वस्तु मूल्य देकर खरीदनी पड़ती है। कर्मफल इसी प्रक्रिया का नाम है। सहयोग प्राप्त करने के लिए भी सहयोग देना पड़ता है। भावनात्मक सहयोग के लिए भावनात्मक सहयोग देना होता है। उच्चस्तरीय सहयोग जिस वस्तु के बदले मिलता है वह है प्रामाणिकता, सदाशयता। इससे कम में किसी के प्रति किसी के मन में श्रद्धा उत्पन्न नहीं होती। वह न हो तो फिर सम्मान और सहयोग का ढोंग भर रचा जा सकता है वैसा कुछ स्वाभाविक रूप से उमड़ता उभरता नहीं देखा जा सकता है। यदि किसी को सद्भाव अपेक्षित हो तो अपने खेत में उसकी अच्छी खासी फसल उगानी पड़ेगी, जिसे बेचकर अनेकों से अनेक स्तर के स्नेह सम्मान अर्जित किये जा सकें। अपनी जेब खाली होने पर दूसरों से माँग−जाँच कर काम चलाने का धंधा बहुत समय तक नहीं चल सकता।

प्रगति के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक प्रशिक्षण आर्थिक वैभव, पद कौशल आदि की आवश्यकता तो है ही, पर यह भी भुला न दिया जाय कि इन सबसे अधिक सहयोग की आवश्यकता है। यह जितने ऊँचे स्तर का−जितनी अधिक मात्रा में, उन्हें उपलब्ध होता है वे अनुपात से ऐसी परिस्थितियाँ प्राप्त करते हैं जो प्रगति पथ पर अग्रगामी बनाने में असाधारण रूप से अनुकूलता उत्पन्न कर सकें। उपार्जन सभी अच्छे हैं क्योंकि उनके बदले अभीष्ट वस्तुओं, परिस्थितियों एवं सेवकों को खरीदा जा सकता है।

तथ्यों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक समझा जाना चाहिए कि महत्वपूर्ण उपलब्धियों एवं सफलताओं के लिए उत्सुक व्यक्ति अपने गुण, कर्म, स्वभाव को ऐसे ढाँचे में डालें जिससे प्रामाणिक, आकर्षक एवं सम्मानास्पद प्रतिक्रिया उत्पन्न हो सके। यह प्रतिक्रिया ही चिरस्थायी एवं उच्चस्तरीय प्रगति का पथ−प्रशस्त करती है। यही कारण है कि समाज शास्त्री इस बात पर बहुत जोर देते रहे हैं कि किसी देश या समाज को समुन्नत बनाने के लिए उसके सदस्यों को व्यक्तित्व की दृष्टि से वजनदार होना चाहिए। यह वजन जिन कारणों से बढ़ता है उसमें मूर्धन्य वे हैं जो व्यक्ति को ऐसी विशेषताओं से सम्पन्न कर सके, जो किसी भी संपर्क में आने वाले पर अपनी छाप छोड़ती और प्रभावित करके सहयोगी बनाती हैं।


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