पूज्य गुरुदेव के तपस्वी जीवन के साथ सामयिक समस्याओं से जूझने और अनिवार्य आवश्यकताओं को जुटाने की रणनीति जुड़ी हुई है। उनने सदा से अपने को एक व्यक्ति नहीं शक्ति माना है। स्व को ‘अहम्’ न रहने देकर विराट् के एक नगण्य किन्तु अविच्छिन्न घटक के रूप में विकसित किया है। उनकी आकाँक्षाएँ व्यक्तिगत लिप्सा, लालसा एवं अहंता से हजार मील ऊँची रही हैं। घोंसला तो पेड़ पर रखा और आहार के लिए धरती पर बैठकर गहरे पानी में डुबकी लगाते रहने का उपक्रम बनाया है किन्तु राजहंस की तरह उड़ानें ऊँची भरी हैं और अनन्त अन्तरिक्ष में अपने खुले पंखों को उन्मुक्त रूप से निवारण करने दिया है। तद्नुसार उनकी जीवनचर्या की दिशाधारा सुनिश्चित रहते हुए भी, परिस्थितियों के अनुरूप मोड़–मरोड़ अगणित आते हैं। गंगा की धारा तक के सम्बन्ध में यही बात देखने को मिलती है। कितने ही स्थानों पर उनमें भयानक मोड़ और प्रपात है। उत्तरकाशी जैसे अनेक स्थानों पर तो वह दक्षिण से उत्तर की ओर उलटी बहती हुई दिखाई देती है। इससे भागीरथी की गौरव गरिमा गिरी नहीं है। उलट−पुलट को अस्थिरता, चंचलता का नाम देकर लाँछित नहीं किया गया है। किन्तु मोर्चे पर सेना को लड़ाने वाले कप्तान की व्युत्पन्नमति और सूझबूझ कहकर ही सराहा ही गया है।
बहत्तर वर्ष के भूतकाल में ऐसे कितने ही मोड़, करवट, प्रपात, उछाल उनकी जीवन−जाह्नवी में उत्पन्न हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इतने पर भी यह निश्चित है कि इसमें अपनी मनमर्जी, सनक, महत्वाकाँक्षा के लिए कभी कही रत्ती भर भी स्थान नहीं रहा। कठपुतली की तरह उन्होंने कई अभिनय तो किये है, पर उन सबके पीछे किसी बाजीगर की कलाकारिता ही सूत्र−संचालन करती रही है। चौबीस वर्षों तक अद्भुत प्रतिबन्धों के साथ जुड़ी हुई पुरश्चरण साधना से व्यक्तित्व को वज्र अस्थि दधिचि जैसी पवित्रता और प्रखरता से सम्पन्न किया, युगान्तरीय चेतना के अन्तरिक्ष से धरातल पर अभिवर्षण की महाकाल इच्छा की भागीरथी प्रयत्नों के सहारे शक्य सम्भव बनाने की निमित्त युग साहित्य सृजा। हनुमान की तरह के निमित्त न केवल पर्वत उखाड़ने, समुद्र छलाँग ने जैसे दुस्साहसों को अपनाया किन्तु अकेले से वह साध−सधते न देखकर अनुचरों का एक विशाल सैन्य−दल मोर्चे पर ला खड़ा किया। भले ही वह समुदाय रीछ−वानर जैसे तथाकथित छोटे लोगों का ही क्यों न ही समझा गया हो। भारतीय देवसंस्कृति को सिकुड़ते, गलते और गरिमा खोते देखकर उनकी आंखें ही सजल नहीं हुई, भुजाएँ भी फड़की हैं। विशाल भारत की संरचना में उनने अर्जन की तरह महाभारत लड़ने का आदेश भी इच्छा, अनिच्छा से स्वीकार किया है। धर्म मच से जनमानस का परिष्कार और लोकमानस के नवनिर्माण का जो अभिनव किन्तु अति सशक्त प्रयास पिछले दिनों मत्स्यावतार की तरह बढ़ता रहा है उसे प्रवाह को उलट देने की सुसम्बद्ध योजना का अंग ही माना जाना चाहिए। उसके पीछे पंडिताऊ व्यवसायी बुद्धि नहीं समर्थ गुरु रामदास जैसे महावीर मन्दिरों की पुनरावृत्ति और चारों धाम बनाने की आद्य शंकराचार्य जैसी सूझ−बूझ झाँकती हुई देखी जा सकती है। चाणक्य की तरह कोई चन्द्रगुप्त तो उन्होंने नहीं बनाये पर रामकृष्ण परमहंस की भूमिका निभाते हुए अग्रदूतों विवेकानन्दों का एक अच्छा खासा समुदाय नवसृजन के अग्रिम मोर्चे पर ला खड़ा किया है। यह सभी प्रवृत्तियाँ एक दूसरी से भिन्न हैं। महामानव अपने−अपने समय की लिए उतना भी बहुत था। किन्तु पूज्य गुरुदेव के कंधों पर महाकाल ने एक साथ कितने ही काम लादे हैं और उनमें से कोई ऐसे भी लगते हैं जिनकी परस्पर संगति बिठाना कठिन पड़ता है। परशुराम का आरम्भ तपश्चर्या में, मध्यकाल कुल्हाड़े से मुण्डमाला के पर्वत खड़े कर देने में और अन्त उद्यानों से समूचे धरातल को लहलहा देने में हुआ। यह प्रत्यक्ष विसंगतियाँ है। उस स्तर का तो नहीं पर अवांछनीयता उन्मूलन में उनका आक्रोश भरा संघर्ष पराक्रम और दूसरी ओर श्रद्धा प्रज्ञा निष्ठा का त्रिवेणी संगम खड़ाकर देने वाला अनुष्ठान भी कम आश्चर्यजनक नहीं हैं। ऐसी परस्पर विरोधी गति विधियाँ पूज्य गुरुक्षेत्र के जीवन में भी कम नहीं हैं। कभी वे स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में बलिदानियों की सेना में खड़े हुए बन्दी गृह में हथकड़ियों पर गीत गाते दीखते हैं तो कभी हिमालय की कन्दराओं में अपनी चेतना का उच्चस्तरीय कायाकल्प करने के लिए एकान्त सेवी भूमिका निभाते हैं। एक दिशा क्यों न हो इसका उत्तर पोलो खिलाड़ियों के पास जाकर उनकी रणनीति में कबूतरों जैसी कलामुण्डी दिखाने के पीछे छिपे रहस्य को पूछना चाहिए। रणनीति में अप्रत्याशित उतार−चढ़ाव लाने वाले सेनापति भी आगे बढ़ने, पीछे हटाने, छिपने और टूट पड़ने की अपनी विचित्रताओं का रहस्य यदि बता सकें तो उन सभी का समाधान हो जायगा जो गुरुदेव के एकनिष्ठ जीवन में कई तरह के मोड़−मरोड़ देखते हैं। यह ज्वार भाटे सतही हैं। समुद्र का अन्तराल तो शान्त और सुस्थिर ही पाया जाता है। विसंगतियाँ कहा जाय था विशेषताएँ, यह एक सुयोग संयोग ही है कि पूज्य गुरुदेव की छोटी-सी जिन्दगी अनेक मोर्चों पर एक साथ लड़ने रहने की रही है। उन्हें अपने नाट्य अभिनय में एक होते हुए भी अनेक पात्रों की भूमिका निभानी पड़ी है। सिया स्वयंवर वनगमन, लंका विजय,रामराज्य स्थापना, दशाश्वमेध, सीता परित्याग और हिमालय की तप साधना में परस्पर कोई तालमेल नहीं दीखता। फिर भी उन विसंगतियों के बीच तत्वान्वेषी एक सुसम्बद्ध श्रृंखला की कड़ियाँ परस्पर जुड़ी हुई देख सकते हैं।
यह चर्चा इन पंक्तियों में इसलिए की जा रही है कि कुछ महीनों पूर्व शक्ति पीठों का उद्घाटन, उद्बोधन करते हुए लाख−लाख जनसमूहों के बीच प्राण फँकते उल्लास उछालते और तूफानों का मत करने वाले दौरे करते दीखते थे, वे यकायक स्तब्ध कैसे हो गये। शान्तिकुँज की सत्र–शृंखलाओं में अपनी मुखर वाणी को मौन कैसे कर लिया? जन संकुल से निरन्तर घिरे रहने और दरबार लगाए बैठे रहने की अभ्यस्त रीति−नीति ने ऐसा पलटा कैसे खाया के नितान्त आवश्यक कार्य होने पर ही कुछ मिनटों तक मात्र नियत समय ही मिलना सम्भव हो सके। व्यापकता सिकुड़ कैसे गई। इसके पीछे क्या कारण हो सकता है। इसके तात्कालिक कारण ढूंढ़ने से असमंजस दूर न हो सकेगा। पूर्ण संगति समझनी होगी और देखना होगा कि जिन्हें कितनी ही चित्र−विचित्र भूमिकाएँ निभानी पड़ी हैं उन्हीं में से गुरुदेव भी हैं। रासमंडल, गोचारण, कालियमर्दन, गोवर्धन, धारण, कंसचाणूरवध, गीताबोध, रथ चालन, जरासंध, की सोलह हजार रानियों का संरक्षण, द्वारिका गमन, अन्ततः अपना समस्त उपार्जन सन्त सुदामा के चरणों पर अर्पण इस क्रिया−कलाप में आदि से अन्त तक विसंगतियाँ ही भरी पड़ी हैं। नियति ने जिन्हें विचित्र भूमिकाएँ निभाने के लिए भेजा है केवल वे ही बता सकते हैं कि ऐसी उलट−पुलट से उत्पन्न होने वाली असुविधाओं का उन्हें ध्यान क्यों रहता।
गुरुदेव के सामने समय ने अधिक ऊँची जिम्मेदारियाँ इन्हीं दिनों नये सिरे से सौंपी हैं और उस आपत्ति धर्म को पालने के लिए तवे पर रोटी जलती छोड़कर बच्चे को बिच्छू पकड़ने से रोकने के लिए दौड़ पढ़ने वाली माता की तरह नई रीति−नीति अपनानी पड़ी है। अदृश्य वातावरण असाधारण रूप से विक्षुब्ध होता जा रहा है। नवग्रहों के एकत्रीकरण से अन्तर्ग्रही विचित्रताओं की, पाँचवाँ हिमयुग आरम्भ हो जाने की प्रदूषणों से विषाक्त वायु मंडल में प्राणियों का दम घुट जाने की, आणविक महायुद्ध की, वह प्रजनन से उत्पन्न दुर्भिक्ष संकट की, समर्थों द्वारा अपनाई जा रही दुर्गति की, आये दिन खड़े होते रहने वाले विग्रहों की चर्चाएँ निरन्तर सुनने को मिलती रहती हैं। इस व्यापक विपन्नता का मूल अंतर्जगत में खोया जा सकता है। यह विभीषिकाएँ मेघमाला की तरह परस्पर सम्बद्ध हैं। जो इनके द्वारा उत्पन्न हो सकने वाले महाविनाश की बात सोचते हैं उन्हें डराने वाली अफवाहें फैलाने वाले उच्छृंखलों में नहीं गिना जाना चाहिए। उनकी चिन्ता के पीछे ठोस तथ्यों को भी विद्यमान देखा पाया जा सकता है।
अदृश्य के विग्रहों से अदृश्य हथियारों से ही लड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में आध्यात्मिक उपचार ही काम आते हैं और अदृश्य की विपन्नताओं को किन उपायों से परिमार्जित किया जा सकता है उसका उपाय उपचार अध्यात्म विज्ञान के अंतर्गत ही खोजा जा सकेगा। इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लिए भौतिक प्रयत्नों की आवश्यकता नहीं। वे तो होने की चाहिए, होने भी चाहिए। किन्तु अदृश्य की लड़ाई भौतिक आयुधों से नहीं लड़ी जा सकती। उसके लिए ध्रुव, प्रहलाद, दधिचि, भगीरथ जैसी कार्यपद्धति अपनानी होगी। समय ने उसको प्रमुखता देने की माँग की है। फलतः इस क्षेत्र के मूर्धन्यों को अपने को अभीष्ट ऊर्जा उत्पादन में महाकाल ने नियुक्त कर दिया है। यह प्रयोजन उग्र तपश्चर्याएँ हो पूर्ण करती है। उसकी पात्रता जिनमें है वे आप्त पुरुष हर युग में उँगलियों पर गिनने जितने ही होते हैं। उस प्रयोजन का जो ठीक तरह निर्वाह कर सकते हैं उनमें पूज्य गुरुदेव का महान व्यक्तित्व भी एक सशक्त तेज पुँज है। उस प्रकार प्रक्रिया से विरत होकर अदृश्य को मोर्चे बन्दी में जुटना पड़ा है तो उसे पलायन नहीं मानना चाहिए और खिन्नता, निराशा, प्रताड़ना उपेक्षा जैसी क्षुद्रताएँ उस संदर्भ में नहीं सूँघनी चाहिए। अदृश्य जगत में कहाँ क्या हुआ? किसने किया? इसके प्रत्यक्ष प्रमाण प्रस्तुत करना तो कठिन है, पर जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त है उन्हें ऋषि रक्त संचय से उत्पन्न सीता का, देव शक्ति के समन्वय से विनिर्मित दुर्गा का, इन्द्र वज्र का, गंगावतरण का इतिहास विश्वास उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। ऐसे−ऐसे प्रमाणों की सुविस्तृत शृंखला भूतकाल में भी रही है और मध्यकाल में भी। पिछले दिनों भी योगी अरविन्द, महर्षि रमण की तपश्चर्या से उत्पन्न वातावरण की उच्चस्तरीय ऊर्जा भारतीय स्वतन्त्रता का किस प्रकार अदृश्य कारण बनी इन तथ्यों को नये सिरे से समझा जा सकता है। उसी दिशा में पूज्य गुरुदेव की भावी रीति−नीति का निर्धारण हुआ है। वे क्या करेंगे? इसका विवरण उनके और उनके मार्गदर्शक के दीप के निर्धारण है।
प्रत्यक्ष का प्रयास यदि अप्रत्यक्ष स्तर के बनते हैं तो स्वभावतः उससे जनसंपर्क कटता है और प्रचार प्रक्रिया में कटौती होती है, किन्तु इसके बिना एकान्त साधना से विशिष्ट ऊर्जा उत्पादन भी तो सम्भव नहीं हो सकता।
इस स्तर की कटौती व्यक्ति विशेष की वार्त्तालाप सुविधा पर अंकुश तो लगाती है। पर उससे उनका भी वास्तविक हित साधन होता है। घन्टों का बकवास करने से भी वह प्रयोजन नहीं सधता जो सामर्थ्य युक्त वरदान एक शब्द में देने से भी हो सकता है। पुराणों में देवताओं के महान वरदान मात्र ‘तथास्तु’ के तीन अक्षरों में सम्पन्न होते रहने का उल्लेख है। सत्संग नारदजी का थोड़े ही समय होता था। वे ढाई घड़ी से अधिक कहीं ठहराते ही नहीं थे। इतनी ही अवधि में उन्होंने ध्रुव, प्रहलाद, पार्वती, सावित्री, वाल्मीकि आदि कितनों को ही न जाने क्या−क्या सिखा दिया और वह लिखावन हजार दिन की बकवास से भी अधिक सामर्थ्यवान सिद्ध हुई। आत्मवेत्ता जानते हैं कि वैखरी–मुखरवाणी जिह्वा से निकलकर कानों तक पहुँचती और जानकारी देने का प्रयोजन पूरा करके आकाश में विलीन हो जाती है। उससे जानकारी के आदान−प्रदान भर का प्रयोजन पूरा होता है। किसी को प्रभावित, परिवर्तित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए प्राणशक्ति युक्त ‘मध्यमा’, ‘परा’ और ‘पश्यन्ति’ वाणियाँ काम करती हैं। उनका प्रयोग बिना शब्द उच्चारण के भी सूक्ष्म तरंगों के माध्यम से होता रहता है।
शक्तिशाली प्राण प्रवाह उपरोक्त तीव्र अदृश्य वाणियों से होता है। इसलिए पूज्य गुरुदेव का भावी कार्यक्रम यदि प्रचार प्रवास से विरत होता है या घन्टों की बकवास में नष्ट होने पर प्रतिबन्ध लगाता है तो इससे विचारशीलों को कोई असमंजस नहीं होना चाहिए। एक−एक गिनकर किसी को एक हजार रुपये की राशि देने में एक घन्टे का समय न लगाकर यदि वही कार्य एक अशर्फी हाथ में थमाकर एक मिनट में किया जा सकता है तो इस कटौती में किसी को क्यों खेद मानना चाहिए। प्रचार के लिए दौरे करना और भाषण देना आवश्यक नहीं वह कार्य अरविन्द की नीति अपनाकर मौन वाणी से वातावरण गरमाने के रूप में और भी अच्छी तरह और भी व्यापक क्षेत्र में और भी प्रभावी ढंग से हो सकता है। जो कार्य पहले सत्संग परामर्श से होता का वह अब कुछ समय शांतिकुंज के प्राणवान वातावरण में निवास करने भर से भी प्राप्त हो सकता है। इस निमित्त विविध साधना संगम का नया क्रम बना भी दिया गया है। एक महीने की कल्प साधना एक महीने का युगशिल्पी प्रशिक्षण, पाँच दिन के तीर्थसेवन सत्रों का उपक्रम और भी अधिक सुव्यवस्थित रूप से चलने जा रहा है। उसके सत्रों के साथ जुड़े हुए उद्देश्यों के अतिरिक्त बड़ा और विशेष लाभ यह है कि शांतिकुंज के वातावरण में अगले दिनों पूज्य गुरु देव की प्राणऊर्जा से जो प्रखरता आने वाली है, उसकी समीपता का अतिरिक्त लाभ उठाया जा सकेगा। जलती हुई भट्टी के निकट बैठते ही, बर्फ जमने की फैक्टरी में प्रवेश करते ही गर्मी एवं सर्दी की अनुभूति तत्काल की होती है। ऋषियों के आश्रमों में सिंह–गाय एक घाट पर पानी पीते थे। इन तथ्यों के पीछे वहाँ के वातावरण की विशिष्टता का ही प्रमाण मिलता है। भविष्य में पूज्य गुरुदेव के निकट सान्निध्य का लाभ लेने के लिए उनका प्रवचन परामर्श आवश्यक नहीं रहेगा। अपितु शान्ति कुँज में कुछ समय ठहरकर अपने स्वल्प प्राण को महाप्राण के साथ जोड़ देने भर से काम चल जाया करेगा। सूर्य के समीप कौन पहुँचता है, बादलों के साथ कौन उड़ता है। फिर भी तादात्म्य जोड़ लेने वालों को उसमें से घर बैठे भी उनका लाभ पर्याप्त मात्रा में मिल जाता है। ऐसे ही कुछ पूज्य गुरुदेव का सान्निध्य चाहने वालों को भी सोचना पड़ेगा।
प्रवास पर न जाना, भेंट−दर्शन का सिलसिला बन्द करना, आवश्यक होने पर ही सीमित स्वल्प समय में उपयुक्त वार्त्तालाप करना, पूज्य गुरुदेव के बुलाने या वन्दनीय माताजी के कहने पर ही पूज्य गुरुदेव तक जाना–इन नये प्रतिबन्धों, नये निर्धारणों से किसी का भी हर्ज नहीं हुआ है। वरन् हरेक के लिए हर दृष्टि से नये स्तर का लाभ प्राप्त कर सकने का नया द्वार खुला है। इसमें निराशा उन्हीं को हो सकती है जो समय का मूल्य नहीं समझते और वार्त्तालाप करने सुनने के आदी हैं। वह समय जो इस विडम्बना में लगता था, यदि उसे व्यक्ति और समाज के लिए उच्चस्तरीय परिणाम के निमित्त नियोजित किया जाता है तो कोई दुराग्रही ही दर्शन, भेंट, वार्त्तालाप करने में अपनी श्रद्धा सिद्ध करने की बात सोचेगा।
पू. गुरुदेव के आत्मीयजनों में सामान्य स्तर के प्रज्ञा परिजनों की और असामान्य स्तर के प्रज्ञा पुत्रों की बहुत बड़ी संख्या है। इस देव समुदाय पर उन्होंने अपना वह कार्यभार लाद दिया है जिसका अधिकाँश भारवहन अब तक वे स्वयं ही करते थे। पूज्य गुरुदेव की तपश्चर्या और प्रज्ञा परिवार की प्रखरता से ही वे संयुक्त प्रयास बन पड़ेंगे जिनसे प्रत्यक्ष और परोक्ष स्तर की दोनों ही सामयिक आवश्यकताएँ पूर्ण होती हैं। इस नये निर्णय से खिन्न होने की अपेक्षा प्राणवानों के लिए यही उचित है कि वे उनके उत्तराधिकार को सम्भालें। अब तक जो ‘वे’ करते रहे हैं वे स्वयं करें और ऊँची शक्ति को ऊँचे प्रयोजन के लिए पूरी तरह लग जाने की सुविधा प्रदान करें। आत्मीयता का, श्रद्धा का, घनिष्ठता का सच्चा प्रमाण परिचय इसी प्रकार दिया जा सकता है।