अब विज्ञान उतना नास्तिक नहीं रहा

May 1982

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भौतिक विज्ञान जैसे−जैसे अपना बचपन पूरा करके प्रौढ़ता में प्रवेश करता जाता है वैसे−वैसे उसके अनेकों पूर्वाग्रह घटे हैं जो आरम्भ में तथ्य और सत्य जैसे प्रतीत होते थे। नई पीढ़ी के वैज्ञानिक अब पदार्थ को ही सब कुछ मानने का आग्रह नहीं करते वरन् चेतना के स्वतन्त्र अस्तित्व के सम्बन्ध में भी सम्भावना स्वीकारने लगे हैं। पिछले दिनों से चली आ रही इस मान्यता का नई शोध के निष्कर्षों से सहज ही खण्डन हो जाता है। जो जगत को परमाणु घटकों की स्व संचालित संरचना मात्र मानती थी सृष्टि संचालन आत्मा या परमात्मा जैसी किसी अन्य सत्ता की आवश्यकता नहीं समझती थी।

हलचलों के साथ सम्वेदनाएँ किस प्रकार जुड़ सकती हैं इसका कोई समाधान वैज्ञानिकों के पास नहीं है। जो उत्तर वे देते हैं उनसे सन्तोषप्रद समाधान नहीं निकलता इस संदर्भ में जो अगली खोजें हुई हैं ‘रिअला−इजेशन’–अनुभूति को एक स्वतन्त्र सत्ता मानना पड़ा है और यह समझा जाने लगा है कि चेतना का नियन्त्रण जब पदार्थगत हलचलों के साथ जुड़ता है तभी जीवन का स्वरूप सामने सामने आता है।

“मिस्टीरिअस यूनीवर्स” ग्रन्थ के रचियता सरजेम्स जीन्स ने लिखा है–’विज्ञान जगत अब पदार्थ सत्ता नियन्त्रण करने वाली चेतना सत्ता की ओर उन्मुख हो रहा है और यह खोजने में लगा है कि हर पदार्थ को गुण धर्म की रीति−नीति से नियन्त्रित रखने वाली व्यापक चेतना का स्वरूप क्या है? पदार्थ को स्वसंचालित, अचेतन, सत्ता समझने की प्रचलित मान्यता अब इतनी अपूर्ण है कि उस आधार पर प्राणियों की चिन्तन क्षमता का कोई समाधान नहीं मिलता। अब वैज्ञानिक निष्कर्ष आणविक हलचलों के ऊपर शासन करने वाली एक अज्ञात चेतन सत्ता को समझने का प्रयास गम्भीरतापूर्वक कर रहे हैं।

फिजियोलॉजिकल साइकोलॉजी के लेखक श्री मैकडूगल ने लिखा है– मस्तिष्कीय संरचना को कितनी ही बारीकी से देखा समझा जाय यह उत्तर नहीं मिलता कि पाशविक स्तर से ऊँचे उठकर मानव प्राणी अपने में उच्चस्तरीय ज्ञान, विज्ञान की धारायें कैसे बहाता रहता है और भावनापूर्ण संवेदनाओं से कैसे ओत−प्रोत रहता है? भाव संवेदनाओं की गरिमा समझते हुए हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि मनुष्य के भीतर कोई अमूर्तिक सत्ता भी विद्यमान है जिसे आत्मा अथवा भाव चेतना जैसा कोई नाम दिया जा सकता है।

अणु विज्ञान के आचार्य अलबर्ट आइंस्टीन ने परमाणु प्रक्रिया का विशद विवेचन करने के उपरान्त अपने निष्कर्ष को घोषित करते हुए कहा है–मुझे विश्वास हो गया है कि जड़ प्रकृति के भीतर एक ज्ञानवान चेतना भी काम कर रही है।

सर ए. एस. एडिग्टन का कथन है– भौतिक पदार्थों के भीतर एक चेतन शक्ति काम कर रही है जिसे अणु प्रक्रिया का प्राण कहा जा सकता है। हम उसका सही स्वरूप और क्रिया−कलाप अभी नहीं जानते पर यह अनुभव करते हैं कि संसार में जो कुछ हो रहा है–वह अनायास, आकस्मिक या अविचारपूर्ण नहीं है।

पी. गेईडर्स अपने ग्रन्थ ‘इवोल्यूशन’ में अपने निष्कर्ष व्यक्त करते हुए कहते हैं– सृष्टि आरम्भ जड़ परमाणुओं से हुआ और ज्ञान पीछे उपजा यह मान्यता सही नहीं है। लगता है सृष्टि से भी पूर्व कोई चेतना मौजूद थी और उसी ने क्रमबद्ध एवं सोद्देश्य रीति−नीति के साथ इस विश्व ब्रह्मांड का सृजन किया।

‘इन्ट्रोडेक्शन टू साइन्स’ पुस्तक में विज्ञानी जे. ए. थामसन ने कहा है–विश्व में जीवन कब और कैसे उत्पन्न हुआ उसका विज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है।

ख्याति प्राप्त विज्ञानवेत्ता टेन्डल ने अपने ‘ग्रन्थ फ्रेग मन्ट्स ऑफ साइन्स’ में स्वीकार किया है–हाइड्रोजन, आक्सीजन, कार्बन नाइट्रोजन, फास्फोरस प्रभृति तत्वों के ज्ञान शून्य परमाणुओं से मस्तिष्क की संरचना हुई है इस यान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से देखना, सोचना स्वप्न संवेदनाएँ एवं आदर्शवादी भावनाओं के उभार की कोई तुक नहीं बैठती। शरीर यात्रा की आवश्यकता पूरी करने के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ सोचता, चाहता और करता है वह इतना अद्भुत है कि जड़ परमाणुओं से बने मस्तिष्क के साथ उसकी कोई संगति नहीं बिठाई जा सकती। चौपड़ के फोसे खड़खड़ाने से होमर कवि की प्रतिभा एवं गेंद की फड़फड़ाहट से गणित के–डिफरेन्शियल सिद्धान्त का उद्भव कैसे हो सकता है इसका उत्तर मस्तिष्क को जड़ परमाणुओं की संरचना मात्र मानकर चलने से मिल ही नहीं सकता।

जे.वी. एस हेल्डेन का कथन है पदार्थ या शक्ति ही इस संसार का समग्र स्वरूप नहीं है। हम दिन−दिन इसी निष्कर्ष पर पहुँचते जाते हैं कि एक समष्टिगत मनःतत्व समस्त विश्व पर नियन्त्रण स्थापित किये हुए है।

आर्थर एच क्राम्पटन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि–संसार के पदार्थों को जलते हुए ईंधन जैसा समझा जा सकता है। जड़ चेतन की ज्वलन्त गतिविधियाँ ऐसे अग्नि तत्व के साथ सम्बद्ध हैं जिसे व्यापक चेतना या आत्मा आदि किसी नाम से सम्बोधित किया जा सकता है।

हर्बर्ट स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक ‘फर्स्ट प्रिंसिपल’ में कहा है–एक ऐसे विशेषतया मानव प्राणियों में जीवन की एक सुरम्य प्रक्रिया का निर्धारण करती है। प्राचीन काल में धर्माचार्य या दार्शनिक जिस प्रकार उसका विवेचन करते रहे हैं भले ही वह संदिग्ध हो, भले ही उसका सही स्वरूप अभी समझा न जा सका हो पर उसका अस्तित्व असंदिग्ध रूप से है और वह ऐसा है जिसका गम्भीर अन्वेषण होना चाहिए।

डॉ. गाल कहते हैं–संसार का मुख्य,तत्व, पदार्थ नहीं वरन् वह चेतन सत्ता है जो समझती, अनुभव करती, सोचती, याद रखती, और प्रेम करती है। मृत्यु के उपरान्त जीवन की पुनरावृत्ति का सनातन क्रम उसी के द्वारा गतिशील रहता चला आ रहा है।

संसार के प्रमुख विज्ञान वेत्ताओं के सम्मिलित निष्कर्ष व्यक्त करने वाले ग्रन्थ “दी ग्रेट डिजाइन” में प्रतिपादन किया गया है कि यह संसार निर्जीव यन्त्र नहीं है। यह सब अनायास अकस्मात ही नहीं बन गया है। चेतन और अचेतन हर पदार्थ में एक ज्ञान शक्ति काम कर रही है उसका नाम भले ही कुछ भी दिया जाय।

“साइन्स एण्ड सोल” के लेखक आर. डबलिन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि प्राणि जगत के अस्तित्व को जड़ परमाणुओं की हलचल मात्र–मान बैठने से काम नहीं चलेगा। भावना, विचारणा, कल्पना और संवेदना जैसी तरंगें उत्पन्न करने वाली ज्ञान सत्ता को यदि अस्वीकार किया जाय तो जीवधारियों की सत्ता की सही व्याख्या ही नहीं हो सकती।

इसी प्रकार विश्व के अगणित प्रख्यात विज्ञान वेत्ता चेतना के अस्तित्व को स्वीकार कर चुके हैं और इस संदर्भ में चल रहे शोध प्रयास निरन्तर अधिक स्पष्ट रूप से यह प्रामाणित कर रहे हैं कि चेतना प्रवाह की सत्ता को न आत्मा के अस्तित्व को संदिग्ध मानने का कोई कारण नहीं है।

क्रिएटिव इवोल्यूशन नामक अपने ग्रन्थ में शरीर शास्त्री वर्गसन ने इस बात पर अत्यन्त विस्मय प्रकट किया है कि नेत्र गोलकों की संरचना अत्यधिक जटिलताओं के साथ हुई है। और साथ ही उनके द्वारा प्रकाश तरंगों को ग्रहण करके मस्तिष्क क्षण भर में पकड़ लेता है। इतनी लम्बी और जटिलताओं के बीच घूमती हुई दृष्टि प्रक्रिया इतनी अधिक सरलतापूर्वक गतिशील रह सकती है। इस पर यदि गंभीरता से विचार किया जाय तो यह तथ्य अधिक स्पष्ट को जाता है कि इतनी जटिल संरचनाओं वाला शरीर अनायास ही जड़ प्रकृति द्वारा नहीं बनाया जा सकता। इसकी सृजेता कोई विचारशील बुद्धिमान सत्ता होनी चाहिए।

चेतन सत्ता केवल प्राणधारियों के–अस्तित्व में चिन्तनात्मक एवं भावनात्मक संवेदना उत्पन्न करती हो सो बात नहीं। जड़ समझे जाने वाले वृक्ष वनस्पति से लेकर रासायनिक एवं खनिज पदार्थों में भी उसका न्यूनाधिक प्रभाव रहता है। चेतना तत्व के सम्बन्ध में जो शोध संशोधन चल रहे हैं उन्होंने वृक्ष−वनस्पतियों को भी प्राणि जगत का असंदिग्ध सदस्य बना दिया है। मनुष्य से लेकर वनस्पति तक की विभिन्न प्राण योनियों में संवेदनाओं का स्तर विभिन्न प्रकार का पाया जाता है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि इन सभी में चेतन सत्ता आत्मा का अस्तित्व विद्यमान है इससे आगे जल, खनिज, मृतिका आदि–रासायनिक वर्ग में आते हैं। इनके सम्बन्ध में भी दिन−दिन अधिक स्पष्ट समझा जा रहा है कि ये भी वैसे निःचेष्ट निर्जीव नहीं हैं जैसा दिखाई पड़ता है।

लोहे पर जंग लगना कीचड़ से कीड़ों का उत्पन्न होना, जल पर काई जमना, इस बात के प्रमाण हैं कि जीवन तत्व विद्यमान है। जल की प्रत्येक बूँद से अणुवीक्ष्ण यन्त्र से चलते फिरते कीड़े देखे जा सकते हैं इस प्रकार जल की सजीवता भी स्वयं ही प्रकट है। यह जीवन धातुओं, पत्थरों में कम भले ही हों पर क्रमशः उनकी बद्धता और विनष्ट होते रहने की रीति−नीति को देखते हुए उन्हें भी मन्द जीवनधारी वर्ग में विभाजित किया जा सकता है। इन तथ्यों से अब वैज्ञानिक मान्यताएँ परिपुष्ट हो चली हैं कि विश्व के कण−कण अणु−अणु में न केवल हलचलें हो रही हैं वरन् उनमें जीवन तत्व भी हिलोरें ले रहा है।

जीवन ही आत्मा है समष्टिगत आत्मा ही परमात्मा है। जिस ब्रह्मांड की छोटी प्रतिकृति पिण्ड ग्रह और ग्रह का छोटा घटक परमाणु है उसी प्रकार विभिन्न प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान जीवन सत्ता आत्मा का समग्र स्वरूप परमात्मा है।

विज्ञान अब उतना नास्तिक नहीं रह गया है जितना कि पचास वर्ष पूर्व था। अब वह आत्मा ही नहीं प्रकारांतर से परमात्मा सत्ता भी स्वीकार करने लगा है। शोध प्रयास इसी प्रकार जारी रहे तो चेतना के स्वरूप, लक्ष्य एवं क्रिया−कलाप का सर्वमान्य आधार भी सामने आ सकेगा भले ही धर्म, सम्प्रदायों द्वारा की गई चेतना की परिभाषाएँ कितनी ही भिन्न क्यों न हों। वह दिन भी दूर नहीं जब आत्मा और परमात्मा का जीवनोपयोगी, उपयोग, कर सकने का आधार भी उपलब्ध होगा और उपासना, साधना, का भी चिकित्सा एवं मानसोपचार की तरह ही सर्वोपयोगी मानकर उन्हें विधिवत् उपयोग में लाने की आवश्यकता स्वीकार की जायेगी।


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