महत्वपूर्ण ज्ञातव्य–2 - प्रज्ञापुत्रों के कल्प साधना सत्र

May 1982

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प्रज्ञा परिवार में तीन स्तर की जागृत आत्माओं को एकत्रीकरण हुआ है। वातावरण में प्रभाव प्रेरणा भर सकने की दृष्टि से–उपयुक्त “प्रज्ञापुँज”, नव सृजन के अग्रदूत युग शिल्पी, जो परिवर्तन के महान निर्णय को अपने में उतारने और दूसरों में प्रवेश कराने के लिए प्रचण्ड पराक्रम करेंगे, उन्हें “प्रज्ञापुत्र” कहा गया है। तीसरे “प्रज्ञा परिजन” जो जन संपर्क और लोक सेवा के क्षेत्रों में भी अपनी विशेषताओं के कारण कुछ अधिक न कर सकेंगे किन्तु आत्म−निर्माण और परिवार निर्माण की दृष्टि से कुछ उठा भी न रखेंगे। इन दोनों में से प्रज्ञा पुँजों को विशिष्ट, प्रज्ञा पुत्रों को वरिष्ठ, और प्रज्ञा परिजनों को कनिष्ठ कहकर सम्बोधित किया जाता है। इन्हें मूर्धन्य, प्रखर और पराक्रमी भी कहा जा सकता है।

पिछले दिनों शान्ति−कुँज में चान्द्रायण साधना, ब्रह्मवर्चस् साधना के नाम से आत्म−शोधन–आत्मपरिष्कार की–साधनाएँ कराई जाती रही हैं। समय−समय पर पुरश्चरण एवं परिष्कृत रूप ‘कल्प साधना’ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। चान्द्रायण पूर्णिमा से पूर्णिमा तक चलते थे। तिथियों की घट बढ़ से सभी को असुविधा होती थी अब उसे तारीखों के हिसाब से पहली से तीस तक का किया गया है। अवधि महीने भर की ही पूर्ववत् रहेगी। चान्द्रायण में पन्द्रह दिन आहार घटाना और पन्द्रह दिन बढ़ाना पड़ता था। अब उसमें परिशोधन करके शाकाहार पर निर्धारित ‘आहार कल्प’ की व्यवस्था की गई है। साथ ही शारीरिक और मानसिक परिशोधन के लिए जड़ी−बूटी कल्प भी साथ−साथ चलते रहने की अभिनव व्यवस्था का समावेश किया गया है।

शांतिकुंज में इस वर्ष से तीनों के लिए तीन प्रकार की शिविर व्यवस्था की गई है विशिष्ट प्रज्ञापुत्रों के कल्प सत्र जो एक−एक मास के होंगे। पहली से तीस तारीख तक हर महीने चला करेंगे। दूसरे प्रज्ञापुँजों के युग−शिल्पी सत्र यह भी पहली से तीस तक एक−एक महीने लगातार चलेंगे। तीसरे प्रज्ञा परिजनों के पाँच−पाँच दिन के होंगे। प्रज्ञा परिजनों के–तीर्थ पर्यटन सत्र 1 मई से प्रज्ञापुत्रों के युग शिल्पी सत्र 1 जून से और प्रज्ञा पुँजों के कल्प साधना सत्र 1 जुलाई से आरम्भ होंगे और भविष्य में लगातार तीनों सत्र साथ−साथ चलते रहेंगे यही है अभिनव सत्र व्यवस्था जिसका निर्धारण इन्हीं दिनों किया गया है।

ऐसे महत्वपूर्ण प्रशिक्षणों के लिए लम्बी अवधि के शिक्षण होने चाहिए थे किन्तु परिजनों की सुविस्तृत संख्या–समय की तात्कालिक माँग और स्थान साधनों की कमी को ध्यान में रखते हुए यही सोचा गया कि थोड़ों को बहुत लाभ देने के स्थान पर बहुतों को थोड़ा−थोड़ा देने की नीति उत्तम है। फिर जिन्हें अधिक पाना है वे कई किश्तों में भी बार−बार आकर प्राप्त कर सकते हैं और अभ्यास को परिपक्व करने की सुविधा प्राप्त कर सकते हैं।

1] उपासना के निमित्त−साधक की स्थिति के अनुसार जप ध्यान, पुरश्चरण, स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन−मनन।

[2] साधना के निमित्त–आसन, प्राणायाम, चक्रवेधन नादयोग, लययोग, बिन्दुयोग प्राणायाम आदि की यथोचित साधनाएँ।

[3] संचित पाप कर्मों का प्रायश्चित।

[4] कल्प उपवास–शाकाहार कल्प, तथा छाछ कल्प। एक महीने तक एक ही वस्तु पर रहना आहार कल्प कहा जाता है। लौकी, तोरी, गाजर, परवल जैसे शाक, खरबूजा, आम−पपीता जैसे सस्ते फल इसके लिए सर्व सुलभ हैं। बन पड़े तो दूध या छाछ कल्प भी हो सकता है।न्यूनतम अमृताशन है। अमृताशन अर्थात् खिचड़ी, दूध−चावल मूँग आदि उबले अन्न।

[5] सौम्प औषधि कल्प–इसमें तुलसी, आँवला, हरीतकी, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शतावरी जैसी हानि रहित औषधियों की नियमित मात्रा महीने भर सेवन करना।

यह कल्प साधना के प्रयुक्त अंग हैं। इसके अतिरिक्त आयुर्वेदिक पंच कर्म स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, नस्य। पंचतत्व चिकित्सा के मिट्टी, पानी, हवा, अग्नि, आकाश आदि के विशेष प्रयोग। जब जिसके लिए जिस प्रकार उपयुक्त समझे जायेंगे, कराये जाते रहेंगे।

‘कल्प’ शब्द आयुर्वेद में पुनर्यौवन प्राप्ति के लिए किये गये उपचार रूप में प्रयुक्त होता है। च्यवन, ययाति आदि द्वारा इसी विधि से जराजीर्ण स्थिति से छुटकारा पाकर नवयौवन प्राप्त किये जाने का उल्लेख मिलता है। महामना मालवीय जी ने भी किन्हीं तपसी बाबा के संरक्षण में ऐसा ही उपचार कराया था और आँशिक लाभ पाया था। पाश्चात्य देशों ने बन्दर की पौरुष ग्रन्थियाँ मनुष्य के शरीर में फिट करके पशु भ्रूणों का सत्व पिलाकर इस उद्देश्य के लिए प्रयोग किये हैं और उनके सामयिक लाभ भी पाए हैं। स्थायी परिवर्तन किसी को भी नहीं हो सका। क्योंकि यदि प्रकृति का नियत क्रम जन्म, बन्धन और परिवर्तन का क्रम यथावत् रहना है तो मरण से पूर्व की स्थिति वृद्धावस्था का तो सामना करना ही पड़ेगा। सृष्टि व्यवस्था को बदल सकना मनुष्य की शक्ति के बाहर है। इसलिए टूटे की मरम्मत करके काम चलाऊ बना लेने की बात तक ही शरीर कल्प की बात सोचनी चाहिए। जितनी किसी चिकित्सा पद्धति से शरीर शोधन और नवीनीकरण की गुँजाइश है उतनी उपरोक्त कल्पसाधना में भी विद्यमान है। सच तो यह है कि यह प्रकृति के अधिक निकट और अध्यात्म उपचारों से मुक्त होने के कारण अधिक निर्दोष एवं अधिक चिरस्थाई है।

प्रस्तुत कल्प साधना का वास्तविक उद्देश्य मनुष्य के अन्तराल का काया कल्प करना है। दृष्टिकोण का व्यक्तित्व से सीधा सम्बन्ध है। देवतुल्य, महामानवों और हेय पतित, नर पामरों की मनःस्थिति–परिस्थिति में जो जमीन आसमान जैसा अन्तर पाया जाता है। व्यक्तित्व में पिछड़ापन और अभिनन्दनीय गौरव की आश्चर्यजनक भिन्नता देखी जाती है। उसका कारण लगता तो परिस्थितियों का विपर्यय है, पर वस्तुतः वैसा कुछ है नहीं। हर परिस्थिति में आन्तरिक गरिमा प्रगति का मार्ग बनाती हुई, चट्टान तोड़ कर बहने वाली गंगा की तरह अपना मार्ग बनाती है। इसके विपरीत समस्त सुविधाएँ रहते हुए अमीर उमरावों सन्तान की तरह अपना और साथियों का सर्वनाश करने में संलग्न रहा जा सकता है। शरीर तो प्राण रहने न रहने से जीते मरते रहते हैं। किन्तु व्यक्तित्व का उत्थान पतन विशुद्ध रूप से मानवी दृष्टिकोण पर निर्भर रहता है। दृष्टिकोण ही आकाँक्षा उभारता है। वही बुद्धि विचारणा में दिशा देता है और के दबाव में विवश होकर काया को कठपुतली का नाच नाचना पड़ता है। अन्तराल को ही अन्तरात्मा कहते हैं। अध्यात्म क्षेत्र का यही प्राण है। इसी क्षेत्र का परिशोधन परिष्कार करने के लिए अध्यात्म विज्ञान का समूचा ढाँचा खड़ा है। तत्व दर्शन–योग के आधार पर चिन्तन और तपश्चर्या व्रतशीलता के सहारे चरित्र में, स्वभाव, अभ्यास में अन्तर लाने का प्रयत्न किया जाता है। जो इस घुड़दौड़ में जितना आगे निकल जाता है वह उतना ही वरिष्ठ कहा जाता है। जो इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ गया वही पतित पराजित की दयनीय स्थिति में पड़ा खीजाता किसी प्रकार जिन्दगी के दिन पूरे करता है।

कल्प साधना का मूल प्रयत्न यह है कि इस एक महीने की अवधि में अपने आप पर नियन्त्रण करने का अभ्यास कराया जाय। अनगढ़ ढर्रे के विरुद्ध विद्रोह किया जाय, संचित कुसंस्कारिता पर पूरे जोश खरोश के साथ आक्रमण किया जाय और उस खरदूषण सूर्पणखा के साम्राज्य का उखाड़ फेंकने की विजयश्री का वरण किया जाय। इतना ही नहीं उन्मूलन की रिक्तता को भी तुरन्त ही भरा जाय और उस स्थान पर उत्कृष्टता की पक्षधर सत्प्रवृत्तियों को अपनाया जाय। अपनाने का अर्थ है न केवल विश्वास में वरन् स्वभाव अभ्यास में भी उस रीति−नीति को पूरी तरह भर लिया जाय।

आयुर्वेदोक्त काया−कल्प के दो तरीके हैं एक “एक प्रवेश”, दूसरा सीमित संपर्क से दोनों का उद्देश्य एक है। अभ्यस्त ढर्रे से एकदम कटकर अपनी दुनिया नई आसानी अभ्यस्त ढर्रे को एकाकी मनोबल के सहारे बदल डालना। बाहर के अवाँछनीय प्रभाव से पूरी तरह विलग हो जाना। न कोई मिलेगा, न कोई दीखेगा तो बाहरी प्रभाव व्यतिरेक भी क्यों उत्पन्न होगा। कन्दराओं में रहकर तपश्चर्या का मौन एकान्त का उद्देश्य भी यही है। दूसरे सीमित संपर्क में इस एकात्मता एवं एकाग्रता से थोड़ी छूट है। इसमें शरीर को खुली हवा के सौम्य वातावरण से संपर्क में रहने की स्वतन्त्रता है। साथ ही उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों, देवात्म क्षेत्र में धकेलने वाले माध्यमों के साथ संपर्क रखने की भी सुविधा है।

प्रज्ञापुँजों के लिए निर्धारित एक महीने की व्रत साधना में यथा सम्भव एकान्त सेवन का उतना अवसर दिया गया है जिसे हजम किया जा सके। एक साधक के लिए एक कुटिया। अपने हाथों अपना भोजन पकाना कुटी में ही यंत्र साधनों से अपने आसन पर बैठे हुए ही मार्गदर्शकों का भावभरा परामर्श सुनना। तृतीय नेत्र जगाने की आज्ञाचक्र उन्मीलन से सम्बन्धित त्राटक के लिए अपने कमरे में ही उपयुक्त प्रकाश की सुविधा रहना। देखने की इष्टदेव का ही एकमात्र चित्र कमरे में रहना। निर्धारित स्वाध्याय के अतिरिक्त और कुछ न पढ़ना। निर्धारित समय के अतिरिक्त और किसी से न मिलना। जैसे इस अवधि के निर्धारण ऐसे हैं जिसमें बाल कोठरी जैसी असुविधा न होते हुए भी आत्मावलंबी, आत्मकेन्द्रित रहने की बहुत कुछ सुविधा है। अनावश्यक पत्र व्यवहार एवं मिलने−जुलने पर भी अंकुश है। यह इसलिए कि आत्म निर्भरता में व्यतिरेक उत्पन्न न हो और मननचिन्तन की निर्धारित दिशाधारा में विक्षेप न पड़े।

उच्चस्तरीय साधनाओं के लिए मात्र पूजा की विधि−व्यवस्था ही पर्याप्त नहीं होती, वरन् उसके फलने−फूलने का अवसर देने वाला तद्नुसार वातावरण भी तलाशना पड़ता है। घर परिवार में एक अभ्यास ढर्रे का चक्र−व्यूह घिरा रहता है और उस जकड़न में ऊँचा उछलने आगे बढ़ने की सम्भावना बहुत कम रह जाती है। इसलिए सदा से उच्चस्तरीय साधन के लिए घर छोड़कर तीर्थ वातावरण के उच्चस्तरीय संपर्क में रहकर महत्वपूर्ण अभ्यास सम्पन्न करने की परम्परा है। राम को अयोध्या छोड़कर देव प्रयाग, लक्ष्मण को लक्ष्मण झूला, भरत को ऋषिकेश, शत्रुघ्न को मुनि की रेती में महाप्राण वशिष्ठ के सान्निध्य में अपनी साधना करनी पड़ी थी। अयोध्या में समस्त सुविधाएँ होते हुए भी अभ्यस्त ढर्रे का संपर्क और वातावरण का घेरा इतना प्रबल था कि वहाँ रहकर योग, तप, क्रियात्मक प्रयोगों में कदाचित ही कुछ सफलता मिलती। वस्तुस्थिति उनने समझी तो उपयुक्त वातावरण में आत्म निर्भर साधना की पृष्ठभूमि बनाकर महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हस्तगत कर सके। यही मार्ग अन्यान्यों के लिए भी है। वानप्रस्थ में घर छोड़कर वन में अर्थात् भिन्न स्तर के उपयुक्त वातावरण में रहने का पहला कदम उठाना पड़ता है। अन्यथा बाह्य कर्मकाण्ड भर चलते रहते हैं। दृष्टिकोण स्वभाव अभ्यास में काया−कल्प जैसा परिवर्तन सम्भव नहीं हो पाता।

प्रज्ञापुँजों के लिए निर्धारित एक मास की कल्प साधना में अन्तराल के परिशोधन, परिष्कार की कथा सम्भव अधिकाधिक सुविधा उत्पन्न की गई है। बड़ी बात यह है कि उसमें न केवल आत्मबल के सम्वर्धन का, वरन् मनोबल और शरीर शोधन के त्रिविधि प्रयोजनों का भी समुचित समावेश किया गया है। आहार कल्प और जड़ी−बूटी कल्प से शरीर शोधन का प्रयोजन बहुत कुछ सध जाता है। आसन−प्राणायाम, पुरश्चरण, तप, व्रत, तितिक्षा−प्रायश्चित्त की साधनाएँ मनन क्षेत्र की अवाँछनीयता को हटाने की भूमिका निभाते हैं। लययोग, प्राणयोग से परब्रह्म के साथ एकात्म सधता है। और द्वैत से अद्वैत की ओर अन्तराल की उन्मुखता, गतिशीलता में तीव्रता उत्पन्न होती है। इस त्रिविधि, त्रिवेणी, संगम में तीर्थराज के अवगाहन का वह पुण्यफल मिलता है जिसे रामायणकार ने कौए को कोयल, बगुले को हंस बनने की उपमा दी है। प्रकारान्तर से यह आन्तरिक कायाकल्प का ही अलंकारिक संकेत है।

प्रज्ञापुँज (विशिष्टों) को मनस्वी मल्लाह की भूमिका निभानी है। उन्हें न केवल प्रवाहमान प्रचण्ड धारा के लिए खिलवाड़ करने, आँख−मिचौली खेलने का मजा लूटना है, वरन् अपनी नाव में बिठाकर असंख्यों को पार भी करना है। अग्रदूतों को न केवल स्वयं जीवन मुक्त होना होता है, वरन् दूसरों को भी भव−बन्धनों से बन्धी मुश्कें छुड़ानी हैं। ऐसी दशा में उनका ओजस्, तेजस्, वर्चस् असाधारण स्तर का होना चाहिए। इसी को अर्जन करने के लिए यह एक महीने की कल्प साधना का प्रावधान रखा गया है।


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