यज्ञाग्नि और सामान्य अग्नि का अन्तर

May 1982

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यज्ञ की सामान्य प्रक्रिया वायु को सुगन्धित करने के लिए किये गये अग्नि पूजन जैसी प्रतीत होती है और कम महत्व की लगती है। किन्तु बात वैसी है नहीं। यज्ञ एक समूचा विज्ञान है। दूसरे शब्दों में इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि अध्यात्म विज्ञान का प्रत्यक्ष माध्यम यज्ञ है। आत्म संयम की तपश्चर्या और भावनात्मक केन्द्रीकरण की योग साधना का समन्वय ब्रह्मविद्या कहलाता है। उसे अध्यात्म विज्ञान का भाव पक्ष कह सकते हैं। दूसरा क्रिया पक्ष है। क्रिया में हलचलें होती हैं और उसके लिए साधन जुटाने पड़ते हैं। यह यज्ञ प्रक्रिया में भी सम्पन्न किया जाता है। उपरोक्त दोनों पक्षों को मिलाने से ही समान आत्म विज्ञान बनता है। भक्ति भाव की तरह ही यज्ञ कृत्य को भी अध्यात्म विज्ञानियों ने समान महत्व दिया है। और दोनों को एक दूसरे का पूरक कहा है।

जड़−जगत के पदार्थ विज्ञान की उपलब्धियों से सभी परिचित हैं। प्रकृति के अन्तराल में छिपे हुए अनेकानेक शक्ति स्रोतों को मनुष्य ने जाना और उनमें से जो उपयोगी था उसे दुहा है। विश्व व्यवस्था में दूसरा चेतना जगत है। उस के विज्ञान को अध्यात्म कहा जाता है। इस विज्ञान की वरिष्ठता और भी अधिक है। पदार्थ की तुलना में प्राणी की सामर्थ्य अधिक है। उसी प्रकार पदार्थ विज्ञान की तुलना में अध्यात्म विज्ञान भी अधिक क्षमता सम्पन्न है। विश्व व्यवस्था में चेतन जगत की ही प्रमुख भूमिका है। भौतिकी तो उसका आहार भर जुटाती है। इसलिए संसार का सुख−दुःख भौतिक परिस्थितियों पर निर्भर जैसा लगता भर है। वास्तविकता इससे कहीं अधिक गहरी है। वह बताती है कि यह संसार चेतना शक्ति के सहारे ही संचालित, अनुप्राणित और नियन्त्रित, परिवर्तित होता रहता है।

इस तथ्य को जिज्ञासु अपने ढंग से कवित्व जैसी भाषा में पूछता है और उसका उत्तर भी उसे उसी लहजे में मिलता है :–

“पृच्छामि यज्ञ भुवनस्य नाभिः।”

अर्थात्–इस ब्रह्माण्ड की नाभि– ध्रुव केन्द्र जैसी− आधारभूत सत्ता यज्ञ में सन्निहित है।

स्पष्ट है कि अग्नि पूजा यज्ञ का उपचार स्वरूप है किन्तु वह इतने तक ही सीमित नहीं है। वह अध्यात्म का चेतना जगत का अति प्रभावशाली ऊर्जा केन्द्र है जिसके सहारे व्यक्ति सूक्ष्म जगत से संपर्क साधने में समर्थ होता है।

यज्ञीय ऊर्जा के सम्बन्ध में ऋषि−मनीषियों का प्रतिपादन गम्भीरतापूर्वक समझा जाना चाहिए उनने ‘अग्नितत्व’ को तीन भागों में विभाजित किया है और प्रत्येक का अलग−अलग महत्व एवं उपयोग बताया है। (1) पावक (2) पवमान और (3) शुचि। पावक वह है जो गर्मी उत्पन्न करती है चूल्हा जलने जैसे लौकिक कार्यों में प्रयुक्त होती है। पवमान मनुष्य की काया में रहने वाली वह अग्नि है जो भोजन पचाने से लेकर गतिशीलता तक के अनेक क्रिया−कलापों में काम आती है। तप संयम द्वारा इसी को बढ़ाया जाता है और व्यक्तित्व के हर पक्ष को प्रखर किया जाता है। तीसरी ‘शुचि’ वह है जिसके सहारे वातावरण को प्रभावित किया जाता है अदृश्य जगत को अनुकूल बनाया जाता है विश्व व्यवस्था को वही प्रभावित करती है।

यज्ञ विज्ञान में अग्नि का प्रयोग तो चूल्हा जलने जैसे ईंधन डालकर ज्वाला जलाने की तरह ही होता है किन्तु यह प्रत्यक्षीकरण है। उसका मात्र वास्तविक स्वरूप पवमान और शुचि स्तर तक पहुँचने पर ही बिखरता है और चमत्कारी सत्परिणामों का शुभारम्भ यहीं से गतिशील होता है।

अग्निहोत्र के माध्यम से लौकिक प्रयोजनों में आने वाली ऊर्जा को विकृत होकर ऋतु प्रभावों और प्रकृति उपद्रवों को प्रेरक नहीं बनने दिया जाता और इस स्तर को देखा जाता है कि वह वर्षा से लेकर तूफानों तक की सभी प्रकृति हलचलों को जीव जगत के लिए उपयोगी बनाये रह सके ‘पावक’ यही है। यज्ञाग्नि का पावक पर भी प्रभाव रहता है।

दूसरा अग्नि पवमान है इसे व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रयुक्त किया जाता है। कषाय−कल्मषों की कुसंस्कारिता भी इसी से दूर होती है। सद्गुणों, सत्प्रवृत्तियों एवं विभूतियों को इसी आधार पर पाया बढ़ाया जाता है। पवमान को साधना क्षेत्र की प्राण ऊर्जा कहा जा सकता है।

तीसरी शुचि की समर्थता और व्यापकता अत्यधिक है उसके सहारे अदृश्य जगत के प्रवाह को निष्कृष्टता की विभीषिका उत्पन्न करने से रोका जा सकता है और सुखद सम्भावनाओं से भरा−पूरा सतयुग की स्थापना में योगदान लिया जा सकता है।

संक्षेप में अग्नि के तीन क्षेत्र ऊर्जा, प्रखरता एवं विश्व नियामक शक्तियों के रूप में जाना जा सकता है। यज्ञाग्नि का स्वरूप ऐसा बनाया जाता है कि उसके द्वारा पवमान और शुद्धि की भूमिका सम्पन्न की जा सके।

अग्नि का शब्दार्थ है–ऊर्ध्वगामी। (अगि−गतौ, अगर्ना लोपश्च, अंग–नि और न का लोप) इस व्याकरणिक विश्लेषण से अग्नि शब्द से अग्नि तत्व में ऊर्ध्वगमन की विशेषता का संकेत मिलता है। वस्तुतः है भी वैसी बात अग्नि शिखा सदा ऊपर की ओर उठती है। उसके माध्यम से उठने वाला धुआं भी ऊपर की ओर ही चलता है। भाप की दिशा भी वही है। हवा गरम होने पर न केवल फैलती है वरन् ऊपर की ओर भी बढ़ती है। यह क्रिया−कलाप चेतना को प्रभावित करने वाली ‘यज्ञाग्नि’ की भी है वह संपर्क साधने वालों को ऊँचा उठाती–आगे बढ़ाती है। उत्कर्ष की उमंगे उठाने और तदनुरूप साहस प्रदान करने में यज्ञाग्नि के माध्यम से असाधारण योगदान मिलता है।

पावक, पवमान और शुचि के अतिरिक्त प्रयोग एक प्रयोजन भेद से उसके और भी अनेकों नामकरण हुए हैं। जिनमें से कुछेक इस प्रकार हैं–

अग्नेस्तु मारुतो नाम गर्भाधाने विधीयते। पुँसवने चन्द्रनामा शंगणकर्मणि शोभनः॥

सीमन्ते मंगलो नाम प्रगल्भो जातकर्मणि। नाम्नि स्यात्पार्थिवो प्राशने च शुचिस्तथा॥

सत्यनामाथ चूडायाँ व्रतादेशे समुद्भवः। गोदाने सूर्यनामा च केशान्ते ह्यग्निरुच्यते॥

वैश्वानरो विसर्गे तु विवाहे योजकः स्मृतः। चतुर्थ्यान्तु शिखी नाम धृतिरग्निस्तथा परे॥

प्रायश्चिते विधुश्चैव पाकयज्ञे तु साहसः। लक्षहोमे तु वह्निःस्यात् कोटिहोमे हुताशनः॥

पूर्णाहुत्याँ मृडो नाम शान्तिके वरदस्तथा। पौष्टिके बलदश्चैव क्रोधाग्निश्चाभिचारके॥

वश्यर्थे शमनो नाम वरदानेऽभिदूषकः। कोष्ठे तु जठरो नाम क्र्रव्यादो मृत भक्षणे॥ (गोमिलपुत्रकृत संग्रह)

गर्भाधान में अग्नि को ‘मारुत’ कहते हैं। पुँसवन में ‘चन्द्रमा’, शुँगाकर्म में ‘शोभन’, सीमान्त में ‘मंगल’ जातकर्म में ‘प्रगल्भ’, नामकरण में ‘पार्थिव’, अन्नप्राशन में ‘शुचि’, चूड़ाकर्म में ‘सत्य’, व्रतबन्ध (उपनयन) में ‘समुद्भव’ गोदान में ‘सूर्य’, केशान्त (समावर्त्तन) में ‘अग्नि’, विसर्गं (अर्थात् अग्निहोत्रादि क्रिया−कलाप) में वैश्वानर’, विवाह में ‘योजक’, चतुर्थी में ‘शिखी’, धृति में ‘अग्नि’,प्रायशित्त (अर्थात् प्रायश्चित्तात्मक महाव्याहृति होम) में ‘बिधु’, पाकयज्ञ (अर्थात् पाकाँग होम, वृषोर्त्सग, गृह प्रतिष्ठा आदि) में ‘साहस’, लक्ष होम में ‘वह्नि’, कोटि होम में ‘हुताशन’, पूर्णाहुति है ‘मृड’, शान्ति में ‘वरद’, पौष्टिक में ‘बलद’, आभिचारिक में ‘क्रोधाग्नि’, वशीकरण में ‘शमन’, वरदान में ‘अभिदूषक’, कोष्ठ में ‘जठर’ और मृत−भक्षण में ‘क्रव्याद’ कहा गया है।

अनेक नामों से प्रख्यात यज्ञाग्नि के विभिन्न उद्देश्य है। इनमें से सभी कर्मकाण्डपरक नहीं कुछ भावपरक भी है। इस प्रकार अध्यात्म क्षेत्र को समस्त उत्कर्षपरक गतिविधियाँ यज्ञ तत्व की परिधि में आ जाती हैं।

जैसाकि गीता में उल्लेख है−

द्रव्य यज्ञास्तपो यज्ञा योग यज्ञास्तथा परे। स्वाध्याया ज्ञान यज्ञाश्च यतयः संशित व्रताः। −गीता 4। 28

यज्ञों के अनेक प्रकार हैं−अग्निहोत्र, तप यज्ञ, योग यज्ञ, स्वाध्याय, ज्ञानयज्ञ आदि।

भगवान ने स्वयं भी कहा है−

यज्ञानाँ जप यज्ञोस्मि स्थावरणाँ हिमालयः। −गीता 10।25

यज्ञों में जप यज्ञ और पर्वतों में हिमालय मैं हूँ।

नादयोग में शब्द को ब्रह्मा माना गया है। इस साधना में शब्द ब्रह्मा को इष्टदेव मानकर चला जाता है। इसके लिए अभीष्ट ऊर्जा कहाँ से प्राप्त होती है इस पर संस्कृत के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ संगीत दर्पण में प्रकाश डाला गया है और संगीत के मूल में− नाद ब्रह्मा की साधना में अग्नि तत्व को ही आधारभूत कारण ठहराया गया है। इस प्रकार नाद ब्रह्मा −संगीत साधना का उद्गम स्रोत दिव्याग्नि में ही केन्द्रित माना गया है। संगीत दर्पण में इस तथ्य का उल्लेख इस प्रकार मिलता है :−

आत्मना प्रेरित चित्त बह्निमाहन्ति देहजम्। ब्रह्माग्रन्थिस्थितं प्राणं स प्रेरयति पावकः॥

पावक प्ररितः सोऽथ क्रमादूर्ध्वपये चरन्। अति सूक्ष्म ध्वनिं नाभौ ह्दि सूक्ष्मं गले पुनः॥

पुष्टं शीर्षे त्वपुष्टंच कृत्रिम बदने तथा। आविभवियतीत्ये वंञ्चधा कीर्त्यते बुधैः॥

नकारं प्राणानामानं दकारमनलं विदु। जातः प्राणाग्निसंयोगात्तेन नादोऽभिधीयते॥

अर्थात् − आत्मा के द्वारा प्रेरित चित्त देह में उत्पन्न अग्नि को आहत करता है। ब्रह्म में स्थित प्राणवायु को वह अग्नि प्रेरित करता है। अग्नि के द्वारा प्रेरित वह प्राण क्रम से ऊपर चलता हुआ नाभि में अत्यन्त सूक्ष्म ध्वनि करता है तथा गले और हृदय में भी सूक्ष्म ध्वनि करता है। सिर में पुष्ट तथा मुख में कृत्रिम ध्वनि करता है। इस प्रकार विद्वानों ने पाँच प्रकार का अग्नि बताया है। नकार प्राण का नाम है, दकार अग्नि का नाम है। प्राण और अग्नि के संयोग से नाद की उत्पत्ति होती है।

योगाग्नि अथवा ज्ञानाग्नि के रूप में भी ‘अग्नि’ का प्रयोग होता है। गीता में कथन है।

ज्ञानाग्निःसर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।’ ज्ञानग्नि दग्ध कर्माणिं तमाहुः पण्डितं बुधाः॥

आग को शरीर और यज्ञाग्नि को उसका दैवी प्राण तत्व कहा जाता है। शरीर और आत्मा के मिलने से जिस प्रकार जीवनचर्या चलती है उसी प्रकार अग्नि प्रज्ज्वलन की प्रत्यक्ष प्रयोग प्रक्रिया को ‘यज्ञ’ स्तर की तब बनाया जाता है जब उसके साथ उच्चस्तरीय भावनात्मक आधारों का समावेश हो। यज्ञ माहात्म्य के रूप में जो कुछ में आध्यात्मिक विज्ञान के विशेष प्रयत्नों के आधार पर उत्पन्न की गई’यज्ञाग्नि’ कहना चाहिए। यह पदार्थ जैसी दीखती भर है उसकी उच्चस्तरीय प्राण ऊर्जा का समावेश करना पड़ता है तभी वह चमत्कारी प्रतिकूलता उत्पन्न कर सकने में समर्थ होती है।


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