महत्वपूर्ण ज्ञातव्य–1 - प्रज्ञा परिजनों के पाँच−पाँच दिवसीय तीर्थ सत्र

May 1982

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प्रज्ञा परिजनों में सबसे बड़ा वर्ग प्रज्ञा परिजनों का है। इस वर्ग में समर्थक और सहयोगी आते हैं। वे परिस्थितिवश घर से बाहर किये जाने वाले कार्यों के लिए तो अधिक बड़े योगदान नहीं दे सकते किन्तु घर रहकर भी आत्म−निर्माण, परिवार निर्माण जैसे महत्वपूर्ण कार्य सीमित क्षेत्र में सीमित प्रयासों के साथ करते रह सकते हैं। स्त्री−बच्चे, वयोवृद्ध, गृहस्थी की भारी जिम्मेदारियाँ उठाने वाले व्यस्त व्यक्ति इसी श्रेणी में आते है।

प्रज्ञा परिजनों की व्यस्तता को देखते हुए उनके प्रशिक्षण सत्र कम समय के लिये हलके−फुलके रखे गए हैं। वे मात्र पाँच−पाँच दिन के होंगे। विशिष्टों और वरिष्ठों के एक−एक माह वाले सत्रों में स्त्री−बच्चों को साथ लाने की कतई छूट नहीं है, किन्तु प्रज्ञा परिजनों के हलके−फुलके सत्रों में वैसी मनोयोग पूर्ण साधना न रहने से स्त्री−बच्चों समेत आने की भी छूट रहेगी। परिभ्रमण मनोरंजन करते रहने की भी उन्हें सुविधा रहेगी। दो दिन दोपहर से शाम तक की छुट्टी देकर उन्हें हरिद्वार, कनखल, ऋषिकेश, लक्ष्मण झूला आदि देखने की सुविधा मिलने से बाल−सुलभ मनोरंजन में कोई कटौती नहीं करनी होगी।

ये परिजन सत्र पाँच−पाँच दिन के होंगे। बीच का एक दिन आने जाने वालों के लिये खाली रखा गया है। हर माह 5 सत्र होंगे। एक से पाँच, सात से ग्यारह, तेरह से सत्रह, उन्नीस से तेईस, पच्चीस से उनतीस तारीखों में। बीच की छह, बारह, अठारह, चौबीस तारीखें आने−जाने वालों के लिये खाली रखी गयी हैं। शिक्षा पूरे पाँच दिन चलेगी, छठे दिन अनुष्ठान की पूर्णाहुति करके आशीर्वाद लेने के उपरान्त भोजन करके सभी प्रातः दस तक चले जाया करेंगे।

छोटे से परिजन सत्र में पाँच बहुद्देशीय कार्यक्रम सम्मिलित हैं। [1]108 माला का गायत्री अनुष्ठान जिसमें हर दिन 20 मालाएँ और नित्य हवन करना होता है। दोनों कार्यों को मिलाकर कुल तीन घण्टे प्रातःकाल के लग जाते हैं। साथ ही अब तक के पाप कर्मों का प्रायश्चित उपक्रम,[2] भोजन से पूर्व डेढ़ घण्टे का मंगल प्रवचन जिसमें आत्म−निर्माण, परिवार−निर्माण, समाज−निर्माण का सर्वसुलभ एवं नितान्त व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जायगा। [3] बच्चों के–बड़ों के संस्कार कराने की शास्त्रोक्त विधि व्यवस्था। बालकों के पुंसवन, नामकरण, अन्न, प्राशन, मुण्डन, विद्यारम्भ यज्ञोपवीत संस्कार। बड़ों के दीक्षा, जन्म दिवस, विवाह दिवस, वानप्रस्थ संस्कार। स्वर्गीय आत्माओं के लिये श्राद्ध तर्पण। [4] पर्यटन के लिये हरिद्वार, कनखल, ऋषिकेश लक्ष्मण झूला के सभी प्रमुख दर्शनीय स्थानों का परिभ्रमण। यह वो दिन में मध्याह्नोत्तर से सायंकाल तक की अवधि में भली प्रकार पूरा हो जायेगा। [5] निजी समस्याओं के सम्बन्ध में उपयुक्त मार्ग दर्शन– उज्ज्वल भविष्य की रूपरेखा बनाने के लिये आवश्यक निर्धारण।

उपरोक्त पाँच प्रसंगों के लिए अलग−अलग एक−एक दिन नहीं रखा गया है किन्तु पाँचों दिन पाँचों का परस्पर गुँथा हुआ कार्य−क्रम बनाया गया है ताकि हर प्रसंग को ठीक तरह समझने का अवसर मिलता रहे और जो सन्देह रह गये हों, उनका निराकरण पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होगा कि समय सीमित और कार्यक्रम हल्का−फुल्का होने पर भी उनके साथ महान सम्भावनाओं के बीजाँकुर जुड़े हुए हैं। तीर्थ सेवन में साधना अनुष्ठान आवश्यक है। साथ ही पाप कर्मों का प्रायश्चित्त भी। स्वाध्याय, सत्संग से गुत्थियों को सुलझाने और चिंतन−मनन के सहारे भविष्य निर्धारण का निश्चय जिसमें जुड़ा हुआ हो उसी को तीर्थसेवन कहा गया है। शास्त्रों में उसी के पुण्यफल की चर्चा है। प्रतिमा−दर्शन, जल, स्नान, और लुटेरों जैसी भगदड़ से तो तीर्थ पुण्य तो दूर, पर्यटन का मनोरंजन भी पूरा नहीं होता। प्रस्तुत परिजन−सत्र की अवधि तो कम है पर उनमें उन तथ्यों का समुचित समावेश किया गया है जिन्हें यदि ठीक तरह समझा जा सके तो अन्तराल में ऐसा बीजारोपण हो सकता है जिसे कल्पवृक्ष की उपमा दी जा सके। प्राचीन काल के तीर्थों में गुरुकुल, तीर्थ−परायण और आरण्यक–यह तीन उपक्रम चलते थे। शान्तिकुँज को उपरोक्त स्थापनाओं को पुनर्जीवित करके सच्चे अर्थों में तीर्थ बनाया गया है। कनिष्ठों को बालक, वरिष्ठों को प्रौढ़ और विशिष्टों को अधेड़ माना जाय तो उनके लिए गुरुकुल, पारायण और आरण्यक की व्यवस्था यहाँ मौजूद है। वातावरण में हर दृष्टि से वे विशेषताएँ देखी जा सकती हैं जिनके आधार पर प्राचीन काल में किसी आश्रम को तीर्थ कहा जाता था।

इमारतें नहीं, प्रेरणाएँ और निर्धारणाएँ ही पुण्यफल प्रदान करती हैं। शान्ति−कुँज में भारत के सभी प्रमुख तीर्थों के चित्र मन्दिर बनाये गए हैं। दृश्य रूप में तो यह छोटे और सस्ते दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु आगन्तुकों को इन तीर्थों की प्रेरणाओं से अवगत कराने की व्यवस्था रहने से देशव्यापी सुविस्तृत तीर्थयात्रा का पुण्यफल इस एक ही जगह पहुँचने से मिल जाता है। गंगा की गोद और हिमालय की छाया में आत्मोत्कर्ष का सुयोग अधिक अच्छी तरह बनता है। चित्र तीर्थों की तरह हिमालय और गंगा का अद्भुत देवालय भी यहाँ प्रतिष्ठित है अखण्ड दीपक, अखण्ड अग्नि, नित्य का यज्ञ, वर्ष में 24 करोड़ जप का संकल्प, गायत्री में रहने से पुरातन काल की तीर्थ परम्परा की छोटी किन्तु प्रभावी झाँकी उपलब्ध होती है। मार्गदर्शन, समाधान या अनुदान के लिए भी अभी तो ऐसी आत्माएँ भी यहाँ मौजूद हैं जिन्हें जीवन्त तीर्थ कहा जा सके। उत्तराखण्ड की यात्रा पर जाने वाले अगणित व्यक्ति सर्वप्रथम इन जीवित तीर्थों का आशीर्वाद प्राप्त करके अपनी यात्रा निर्विघ्न सम्पन्न होने, सफल रहने का विश्वास लेकर आगे प्रयाण करते हैं।

संस्कारों का अपना महत्व है। इसे व्यक्तित्व निर्माण को अध्यात्म उपचार पद्धति कह सकते हैं। प्राचीन काल में सोलह बार संस्कारित करके पशु को मनुष्य, मनुष्य को देव बनाने की पद्धति अपनाई जाती रही है। इसमें शिक्षा, प्रेरणा तो है ही, साथ ही अध्यात्म विज्ञान पर निर्भर ऐसे तथ्य भी हैं जिनसे इन उपचारों द्वारा मानवी अन्तराल में उत्कृष्टता का बीजारोपण और अभिवर्धन का लाभ भली प्रकार समझा जा सकता है। ऐसी सुविधा प्राचीन काल में भी तीर्थों में ही रहती थी। वहाँ स्थान बच्चों के संस्कार तीर्थ में ही कराते थे। प्रज्ञा परिजनों का मूर्धन्य तीर्थ–युग तीर्थ–गायत्री तीर्थ ही है। यहाँ जन्म दिवस व आदर्श विवाह मनाने देश−विदेश से अनेकों परिजन आते रहते हैं। अब यही क्रम हर संस्कार के विषय में चल पड़ने से ऋषि प्रणीत धर्म परम्परा में एक कड़ी और जुड़ गयी है।

तीर्थयात्रा, सोद्देश्य शिक्षण, संस्कार मानना, सिद्ध पीठ में साधना तथा ऊर्जा स्रोत से सघन सम्बन्ध ये ऐसे पंचविधि लाभ इस तीर्थ सत्र शृंखला के हैं जिसके समाज निर्माण सम्बन्धी दूरगामी परिणाम परिजन अगले दिनों देखेंगे। हिमालय के साथ जुड़ी नदियाँ बहती ही रहती हैं। गायत्री तीर्थ हिमालय है, जिसके साथ सम्बन्ध जोड़ लेने वाले परिवारों को उत्कृष्टता के अनुदान एक सुनिश्चित परम्परा के आधार पर मिलते रहेंगे। यह संपर्क सूत्र पाँच दिन के संपर्क से भी जुड़ जाता है। लम्बी अवधि के ये लगाए भी नहीं जा सकते थे क्योंकि लाखों परिजनों में से सभी को थोड़े−थोड़े दिन का अवसर मिल सके, इस सदृष्टि से भी उन्हें छोटा मात्र पाँच दिन जितना ही रखा जा सकता था।

रास्ता चलते परामर्श तो कोई भी किसी को दे सकता है किन्तु किसकी मनःस्थिति और परिस्थिति में प्रगति पथ पर पर बढ़ सकने वाला व्यवहार पथ कौन-सा है और उस पर चल सकने का साधन उपलब्ध करने की चाबी कहाँ है? इस प्रसंग का अवसर किन्हीं सौभाग्यशालियों को ही मिल सकता है। प्रज्ञा परिजन सत्र के आगन्तुकों को ये सभी सुविधाएँ अति सरलतापूर्वक प्राप्त हो सकती है, इसी कारण इसमें सम्मिलित होने के लाभों को असंख्य गुना कहा जा सकता है।


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