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May 1982

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बाजार में हर स्तर की वस्तु दुकानों में सजी हुई पायी जाती है। वे सभी विक्रय के लिए हैं। दुकानदार पूरे समय एक ही आशा लगाए–प्रतीक्षा करते बैठे रहते हैं कि कोई ग्राहक आए–उन्हें खरीदे। दूसरी ओर उन आकर्षक वस्तुओं के इच्छुकों की भी कमी नहीं। रास्ते में उन लोगों की आँखें उन्हें ललचाती हुई देखी हैं। पैर थोड़े ठिठकते हैं, पर पा न सकने की स्थिति जब सूझती है तो मन मसोसकर आगे बढ़ जाना पड़ता है। दुकानदार आतुर, ग्राहक इच्छुक। फिर तालमेल क्यों नहीं बैठता? इस विडम्बना का कारण खोजने पर एक ही तथ्य निखर कर आता है कि मूल्य चुकाने की स्थिति नहीं थी।

मनुष्य बहुत कुछ चाहता है। उसे अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घजीवन चाहिए। मन में उत्साह−उल्लास भरे रखने वाली परिस्थितियों की आकाँक्षा रहती है। कौन नहीं चाहता कि उसे पैसे की तंगी न रहे। मित्रों का सम्मान व सहयोग किसे अपेक्षित नहीं है। इतने पर भी देखा यह जाता है कि उन अभिलाषाओं की पूर्ति कुछ बिरले ही कर पाते हैं। जिनसे अपेक्षा की गयी थी वे लोग सहयोग देने के इच्छुक न हों, यह बात भी नहीं। शरीर की दृश्य−अदृश्य संरचना ही ऐसी है जिसके सहारे पूर्ण स्वस्थ और दीर्घजीवी रह सकना हर किसी के लिये सम्भव है। फिर मनुष्य पर ही ऐसी क्या मुसीबत उतरी है कि उसे दुर्बलता और रुग्णता से निरन्तर कष्ट सहते हुए अकाल मृत्यु मरना पड़े?

प्रश्न अत्यन्त टेढ़ा है। किन्तु उत्तर अति सरल। इस संसार में हर वस्तु मूल्य चुका कर खरीदी जाती है। मुफ्त में तो काया, प्राण, धरती, आकाश, सूर्य, पवन, बादल जैसी विभूतियाँ पहले ही मिल चुकी हैं। अब जो कुछ पाना हो, उसके लिये तत्पर परिश्रम और तन्मय मनोयोग नियोजित करना होगा। उससे भी बड़ी बात है परिष्कृत व्यक्तित्व में पाया जाने वाला चुम्बक। यही है वह आकर्षण जिसके खिंचाव से अभीष्ट सफलताएँ खिंचती चली आती हैं। वह कथन अक्षरशः सत्य है जिसमें पसीने की हर बूँद को हीरे मोती के समतुल्य माना और तादात्म्य मनोयोग को चमत्कारों का पुँज कहा गया है। पात्रता इन्हीं के समन्वय का नाम है। इसी कीमत पर हर क्षेत्र की आत्मिक एवं भौतिक, विभूतियाँ, सफलताएँ खरीदी जाती हैं।

यदि जीवन साधना की गरिमा पर विश्वास किया जा सके तो समझना चाहिए, अध्यात्म शास्त्र में जिस ‘श्रद्धातत्व’ को सर्वोपरि बताया गया है, शुभारम्भ बन पड़ा। देवता वस्तुतः भीतर से उगते हैं, बाहर तो वे खड़े भर दीखते हैं। मनःस्थिति अदृश्य आन्तरिक है और परिस्थिति दृश्यमान परिणति। विभूतियाँ अन्तः से निकलती हैं। आज तक ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि कुपात्रता के रहते किसी दैवी शक्ति ने मात्र पूजा पत्री से प्रसन्न होकर पक्षपात किया हो और पात्रता से अधिक अनुपात में अनुग्रह उड़ेला हो।


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