वृक्ष की दृश्य सम्पदा ही चर्म चक्षुओं को परिलक्षित होती है और प्रतीत होता है कि यह सारा कलेवर धरती की सतह से उठता और ऊँचाई तक उठ कर शाखा प्रशाखाओं, टहनियों और पत्र-पल्लवों के रूप में अपनी सफलता का परिचय देता है। इन्द्रियों की पहुँच इतनी ही है और वे उनके साधन इतनी ही जानकारी दे सकते हैं।
विवेक दृष्टि से देखने पर आगे की बात का पता चलता है। वृक्ष जितना ऊपर फैला दीखता है, भूमि की गहराई में उसकी मोटी-पतली जड़े उतने ही विस्तार में फैली होती हैं। उन्हें आँख से नहीं बुद्धि एवं अन्य साधनों की सहायता से जाना जा सकता है। फूल और फल कहाँ से आते हैं? नई कोपलें कहाँ से प्रकट होती है? उसके उत्तर में स्थूल दृष्टि आसमान की ओर ही ताकती हैं? सोचती है जब यह वृक्ष के ऊपर वाले भाग से चिपके हैं तो सम्भवतः आसमान से ही टपके होंगे।
वृक्षों की स्थिति के सम्बन्ध में अधिकांश लोगों की समझ में वास्तविकता आ गई है। यह जान लिया गया है कि पेड़ का सारा वैभव भूमिगत जड़ों का ही विकास विस्तार और उदार अनुदान है। मानवी विकास के सम्बन्ध में यह भ्रम अभी भी बना हुआ है कि उसे भौतिक सिद्धियाँ और आत्मिक ऋद्धियाँ किसी बाहरी सत्ता द्वारा उपहार में प्रदान की जाती है। सिद्ध पुरुषों मन्त्र उपचारों और देव परिवार से मनोकामनाओं की पूर्ति के वरदान मिलने की अपेक्षा की जाती है। इसी प्रकार समर्थ व्यक्तियों के सहयोग और साधनों के बाहुल्य से प्रगति के अपने सपने सँजोये जाते हैं। यह भूल ठीक वैसी ही है जैसा कि वृक्ष के वैभव को आसमान से टपका हुआ मानना।
काया के खोखले में संव्याप्त अन्तर्जगत ही व्यक्ति की सर्वतोमुखी प्रगति का वास्तविक क्षेत्र है। अन्तःकरण की सत्प्रवृत्तियों में वे जड़े हैं जिनमें मनुष्य को सर्वतोमुखी सफलता और महानता का श्रेय प्राप्त होता है। इस तथ्य को समझा जा सके तो यही माना जायगा कि सत्य और तथ्य का अति महत्वपूर्ण आलोक प्राप्त कर लिया गया।
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