विषया शक्ति के मायावी घेरे

October 1978

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चीन में पैराडाइज नाम की एक ऐसी मछली पाई जाती है जो अपने मुँह से एक विशेष प्रकार के लस-लसे रसायन के बुलबुले छोड़ती है। थोड़ी देर में बड़ी संख्या में एकत्र हुए इन बुलबुलों में एक सिरे से छेद कर वह भीतर-भीतर ऐसी सुन्दर छंटाई करती है जिससे बुलबुलों का समुदाय अनेक मकानों वाला नगर दिखाई देने लगता है। अब मादा अण्डे देने प्रारम्भ करती है। और उन्हें इसी बबूल-नगर में पहुँचाती जाती है स्वयं उस नगर की पहरेदारी करती रहती है। दुर्ग के किसी भी द्वार से बच्चे निकल न भागने पावें वह इसकी बराबर देख-रेख रखती है, इसी तरह उसकी वंशवृद्धि होती रहती है।

माया ने उसी तरह अपना विस्तार अनेक प्रकार के शरीर बना कर किया। ऐसे शरीर जहाँ जीव के अस्तित्व को किसी प्रकार संकट न पावे। पीछे वह ऐसी व्यवस्था और उपक्रम जुटाती रहती है जिससे जीव उसी मायावी नगर में फँसा रहे उससे बाहर न निकलने पावे। माया के इस घेरे को बिरले ही तोड़ पाते हैं।

अमेरिका के दक्षिणी भागों में पानी में पाया जाने वाले कछुये की-सी शक्ल का एलीगेटर स्नैपर बड़ा चतुर जीव है। वह अपनी जीभ को बाहर निकाल कर इस तरह दायें-बायें, आगे-पीछे लपलपाता है कि देखने वाले को यह जीभ किसी स्वतन्त्र जीव-सी लगती है, उसे देख कर कई मछलियाँ उसे खाने के लिए दौड़ पड़ती हैं जैसे ही वह उसके पास पहुँचती हैं। एलीगेटर स्नैपर उन्हें दबोच कर खा जाता है।

यही स्थिति शरीर में इन्द्रियों में बसे विषयों की लपलपाहट से भ्रमित जीव उनकी तृप्ति के लिए भाग-भाग कर आता है और बार-बार काल के द्वारा दबोच लिया जाता है। थोड़े से बुद्धिमान भी होते हैं जो इन्द्रियों की इस आसक्ति को आत्मा का नहीं शरीर का विषय मानते हैं और उनसे दूर रह कर ही अपनी रक्षा कर पाते हैं।

नदियों में पाया जाने वाला घड़ियाल जितना क्रूर होता है उतना ही चतुर भी। शिकार के लिए वह नदियों के किनारे आकर इस तरह निश्चेष्ट पड़ा रहता है। मानो वह कोई चट्टान या निष्प्राण वस्तु हो जैसे ही कोई मूर्ख मछली पास पहुँची कि उसने पकड़ा और उदरस्थ किया।

मनुष्य की इन्द्रियाँ भी उतनी धूर्त और चालाक होती हैं, सामान्यतः वे निर्जीव दिखाई देती हैं। इसलिए मनुष्य आहार-विहार और परिस्थितियों की सतर्कता नहीं रख पाता। जैसे ही खान-पान और मर्यादाजन्य भूलें हुईं कि इन्हीं निष्प्राण लगने वाली इन्द्रियों की उत्तेजना ने धर पकड़ा फिर तो उनके चंगुल से निकल पाना कठिन ही होता है। ज्ञानी और विचारशील लोग पहले से ही सतर्क रहते और संयमित तथा मर्यादित जीवन जीते हैं तभी उनसे बचते और अपनी शक्ति, शान्ति और सम्मान सुरक्षित रख पाते हैं।

योरोप में एक चिड़िया पाई जाती है “स्पैरो”। उसका मूल आहार है टिड्डा, पर वह मिले कैसे। स्पैरो एक कोने में दुबक कर बैठती है और ठीक टिड्डे की आवाज में बोलना शुरू करती है। टिड्डे यह आवाज सुनकर उसके पास आ जाते हैं और स्पैरो पक्षी के आहार बन कर मौत के मुँह में चले जाते हैं।

इन्द्रियजन्य सुखों की स्थिति भी ऐसी ही है जब वे कुलबुलाते हैं तो मनुष्य यह नहीं समझ पाता कि उनका शरीर से सम्बन्ध है। आत्मा से नहीं। वह उन्हें अपना ही स्वजन सहायक समझ कर उनकी तृष्णा बुझाने में लगा रहता है और इस तरह आत्मा को अवनति के गर्त में धकेलता रहता है।

माया के इन खेलों का समझने वाला और उनसे दूर रहने वाला व्यक्ति ही बुद्धिमान, विचारशील और आत्म-निष्ठ होता है। उसी का जीवन सफल और सार्थक कहलाता है।

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