आत्म-परिष्कार की तीन सरल किन्तु महान साधनाएँ

October 1978

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मानवीय अस्तित्व को तीन भागों में बाँट सकते हैं (1) स्थूल (2) सूक्ष्म (3) कारण। अध्यात्म शास्त्र में इन्हें ही मनुष्य के तीन शरीर कहा गया है। केले के तने की तरह अथवा प्याज की तरह परत-दर-परत उधेड़ते जाने पर हमें रक्त-मांस निर्मित स्थूल शरीर के भीतर सूक्ष्म शरीर और उसके भी भीतर कारण शरीर का बोध होता है। मानो शरीर के ऊपर क्रमशः बनियान, कुर्ता, जाकेट पहन रखी गई हों।

स्थूल शरीर माँ के पेट से प्रारम्भ होकर श्मशानघाट में समाप्त हो जाता है। इहलौकिक क्रिया-कलापों का यही माध्यम है। खाने, सोने, चलने, रोटी कमाने, शुभ-अशुभ कर्म करने, इन्द्रिय-सुख भोगने आदि के प्रयोजन इसी शरीर से पूरे होते हैं।

सूक्ष्म शरीर चिन्तन-मनन, आकांक्षा, अभिरुचि आदि मानसिक गतिविधियों का केन्द्र व माध्यम है। इसका प्रधान कार्यस्थल मस्तिष्क ही है, यद्यपि सामान्यतः यह पूरे स्थूल शरीर में उसी तरह व्याप्त है, जैसे दूध में घी।

तीसरा कारण शरीर आत्म का के अति समीप है तथा उच्चस्तरीय दिव्य भावनाओं का आधार है। दया, प्रेम, कर्त्तव्यनिष्ठा, संयम, करुणा, सेवा, धर्म, कोमल संवेदनादिक उच्चभाव इसी में उठते रहते हैं। जो लोग क्रूरता और दुष्टता में ही परिपक्व हो जाते हैं, उनका कारण शरीर भी क्रूर चेष्टाओं हेतु सहमत हो जाता है।

साधना का अर्थ है इन तीनों ही शरीरों की समुचित साज-सम्हाल और उत्कर्ष की व्यवस्था। साधना की दिशा में प्राथमिक पग है-उपासना। भजन-पूजन, जप-ध्यान, व्रत-उपवास आदि उपासना-अभ्यास मन की प्रवृत्ति को पदार्थपरकता से चेतना की ओर मोड़ते हैं। विश्वव्यापी चेतना के स्मरण और सान्निध्य की अनुभूति की आकांक्षा जागृत हो जाने पर मनोवृत्तियों का वासना और तृष्णा की दिशा में भटकाव, समय, शक्ति और पुरुषार्थ का भयानक दुरुपयोग प्रतीत होने लगता है। तब मनःशक्ति को संयमित कर परमार्थ में नियोजित करने की प्रवृत्ति दृढ़ होती जाती है। यही साधना है। उपासना दिन के एक छोटे से अंश में, निश्चित समय तक की जाती है, साधना एक अविच्छिन्न प्रक्रिया है। वह पूरे जीवन का ही नाम है। साधनामय जीवन आन्तरिक पवित्रता को निखरता जाता है और ईश्वरीय प्रकाश का दिव्य दर्शन कराता है। मानवीय व्यक्तित्व में देवत्व के अवतरण की यह प्रक्रिया है।

साधना के दो वर्ग हैं- (1) विशिष्ट लोगों की विशिष्ट प्रयोजन हेतु विनिर्मित विशिष्ट प्रक्रिया। (2) सर्वसाधारण के लिए सहज सुगम सौम्य पद्धति।

विशिष्ट प्रक्रियाएँ असाधारण मनोबल-सम्पन्न, कठोर तपश्चर्या के लिए समुद्यत, सांसारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त लोगों, योगी यती एकान्तवासी लोगों के लिए हैं। हठयोग, षट्चक्र वेधन, कुण्डलिनी जागरण लययोग, ऋजुयोग, तन्त्रयोग, प्राणयोग आदि की साधनाएँ इसी वर्ग की है। पर यह मार्ग अत्यन्त कठिन है। भूल होने पर इस राह में खतरे ही खतरे हैं। निश्चय ही इसमें ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है। पर उन उपलब्धियों से चमत्कार-प्रदर्शन द्वारा लोगों को विस्मित-चकित कर देने की बात-आकांक्षा मात्र अहंकार ही बढ़ाती है। सिद्धियों द्वारा किसी का तात्कालिक कष्ट निवारण भी सम्भव है और उसमें थोड़ा बहुत आत्मसन्तोष भी प्राप्त हो जाता है। लेकिन यह मार्ग है जोखिम भरा ही।

चमत्कारों के लोभ से इस राह पर चल पड़ने वाले अधिकांश साधक साधना-पथ की कठिनाइयों और लम्बाई से निराश होकर या तो विरत हो जाते हैं या फिर अपनी असफलता की झेंप मिटाने के लिए धूर्तता के द्वारा लोगों का चमत्कृत करने का निकृष्ट व्यवसाय अपनाकर स्वयं भी पतित होते और दूसरों को भी गड्ढ़े में धकेलते हैं। मात्र असामान्य साहसी व्यक्ति ही इस मार्ग में बढ़ सकते हैं, सो भी विशिष्ट परिस्थितियाँ बन पड़े तभी।

सौम्य साधना पद्धति का राजमार्ग सर्वसाधारण के लिए सुगम है। आजीविका-उपार्जन तथा सामान्य गृहस्थ जीवन-यापन करते हुए इस साधना क्रम को अपनाया जा सकता है। इस पथ पर सहज ही गतिशील रहा जा सकता है। इसीलिए शास्त्रकारों और ऋषियों ने सर्वसाधारण को इसी पथ के अवलम्बन हेतु प्रोत्साहित किया है। इस मार्ग द्वार जादूगरी जैसे चमत्कार भले न प्राप्त हो, पर नर को नारायण की स्थिति तक पहुँचा देने का वास्तविक चमत्कार निश्चित ही सम्भव है।

इस सौम्य साधना पद्धति द्वारा स्थूल, सूक्ष्म कारण तीनों शरीरों का संस्कार-परिष्कार, परिमार्जन और परिवर्धन किया जाता है। इसके तीन प्रयोग हैं-(1) कर्मयोग (2) ज्ञानयोग (3) भक्तियोग। तीनों की सुसंतुलित क्रिया-पद्धति का अवलम्बन ही श्रेयस्कर है। श्रीमद्भगवद् गीता में इसी प्रक्रिया का विवेचन है। धर्मशास्त्रों का विशालकाय-कलेवर भी इसी त्रिविधि तत्वज्ञान की विवेचना में ही खड़ा किया गया है। अपनी विचारपद्धति, कार्यपद्धति और भावस्थिति में यदि इन आस्थाओं का समुचित समावेश कर लिया जाय, तो हम अपनी असह्य यन्त्रणा को वर्तमान मनोभूमि से मुक्त होकर इसी शरीर से अपने जीवन में देवत्व के अभ्युदय की अनुभूति कर सकते हैं। देश, काल, पात्र की स्थिति के अनुरूप साधनाओं को मूल उद्देश्य सुरक्षित रखते हुए कार्यपद्धति में सामयिक हेर-फेर किये जाते रहे हैं और किए जाने ही चाहिए। सृष्टि के आरम्भ से आज तक समय-समय पर ऋषियों ने इसी त्रिविधि साधना का-विभिन्न विधि-विधानों के रूप में, अपने समय के साधकों की मनोभूमि तथा सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मार्ग-निर्देश किया है। इस क्रिया-विधान में कर्मयोग, भक्तियोग एवं ज्ञान योग तीनों का इस ढंग से समावेश किया गया है कि व्यक्ति के तीनों शरीर परिपुष्ट होते चलें और समाज के विकास के पुण्य-प्रयोजन का भी कार्य होता चले।

कर्मयोग की आधार-शिला है प्रातःकाल आँख खुलते ही चारपाई पर पड़े-पड़े हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत की विचारणा प्रक्रिया को अपनाना तथा प्रस्तुत दिन के सर्वोत्तम सदुपयोग की तैयारी कर निश्चित कार्यक्रमों-गतिविधियों एवं विचार-प्रक्रिया का निर्धारण। सम्पूर्ण दिन मन में किस स्तर की भावनाएँ किस काम के साथ संयोजित की जाएगी, यह भी निश्चित कर लेना अनिवार्य है। दिनभर इसी निर्धारण का दृढ़ता से पालन सामान्य जीवन क्रम को ही कर्म-योग की साधना का फल प्रदान करेगा।

फिर रात्रि में शयन पूर्व बिस्तर पर पहुँचते ही दिन की गतिविधियों का लेखा-जोखा कर सफलताओं के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना तथा भूलों के लिए सच्चे पश्चाताप के साथ क्षमा प्रार्थना कर, पूर्ण निश्चिन्तता के साथ, शान्तिपूर्वक माता निद्रादेवी की गोद में सो जाना।

कर्मयोग की इस साधना के साथ ही ज्ञानयोग की साधना भी जुड़ी है। उस हेतु मन में उत्कृष्ट विचारों का अनवरत समावेश आवश्यक है। प्रेरक स्वाध्याय ही इसका मार्ग है। रूढ़िवादी रीति से किन्हीं पुरानी, किस्से कहानी जैसी किताबों का वासी रहना, घोटना स्वाध्याय नहीं। व्यावहारिक जीवन में आदर्शवादिता एवं उत्कृष्टता की दिशा दिखलाने वाला स्वाध्याय ही आवश्यक है और उसे दैनिक जीवन का एक नित्य क्रम मानकर किया ही जाना चाहिए। व्यक्ति एवं समाज के नव-निर्माण हेतु उपयोगी उत्कृष्ट साहित्य के दैनन्दिन स्वाध्याय के लिए समय अनिवार्यतः निकालना ही चाहिए।

यह हुई ज्ञान-योग की निजी साधना। इसे ज्ञान-यज्ञ का रूप देना चाहिए। समाज में सद्विचारों का सर्वाधिक अभाव है। विश्वव्यापी शोक-सन्ताप का यही कारण है। जन-मानस का स्तर परिवर्तित करने पर ही दुःख दारिद्रय की प्रचण्ड आग बुझेगी। विचार क्रान्ति आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। ज्ञान-यज्ञ इसी आवश्यकता की पूर्ति करने वाला महान अभियान है। एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य खर्च करना देखने में तो एक छोटा ही काम है, पर उसका सम्मिश्रित परिणाम अत्यधिक है, युग-परिवर्तन का वह एक सशक्त माध्यम है। साधक का आत्म-कल्याण एवं विश्व-कल्याण दोनों ही ज्ञान-यज्ञ द्वारा सहज सम्भव है।

भक्तियोग का अर्थ है अन्तरात्मा में दिव्य भावनाओं का अनवरत प्रवाह। परम ब्रह्म से अपने अनन्य प्रेम का स्मरण, तादात्म्य की प्रचण्ड अनुभूति और जघन्य उभयपक्षीय प्रेम-हिलोर की प्रखर अनुभूति का स्मरण-अभ्यास अवरुद्ध आन्तरिक रसस्रोतों को पुनः मुक्त करता है। इन गहरे प्रेमस्रोतों का प्रांजल प्रवाह सम्पूर्ण परिवेश में सरसता, सौमनस्य तथा प्रफुल्लता की वृद्धि करता है। सच्चा प्रेमी, सच्चा भक्त मात्र ईश्वरीय ध्यान, छवि को प्यार नहीं करता अपितु-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ईश्वरीय सत्ता से, प्राणिमात्र से, अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध प्रस्थापित कर लेता है। यह तादात्म्य भावना पग-पग पर करुणा, उदारता, सद्भाव, सहृदयता, सहानुभूति, सेवा, सज्जनता के रूप में कार्यरूप में प्रकट परिणत होती रहती है। ईश्वर भक्त परिग्रही या स्वार्थी कैसे हो सकता है? उसके लिए तो एक ही मार्ग है- अपनी समस्त उपलब्धियों का विश्वमानव के चरणों में व्यवहारतः समर्पित कर देना। इससे कम में कभी भी ईश्वरीय अनुकम्पा प्राप्त भी नहीं हो सकती। लोकमंगल में अपना सर्वत्र समर्पण करने वाला परमार्थ परायण व्यक्ति ही सच्चा ईश्वर भक्त कहा जा सकता है। अपने परिवार का पालन भी वह इसी भावभूमि के आधार पर ही करता है सभी लोगों के साथ उसके व्यवहार का भी यही आधार होता है। वासना-तृष्णा से सर्वथा रहित, निर्मल-निश्चिन्त अन्तःकरण वाला व्यक्ति ही, भक्तियोग का अधिकारी है। शबरी, मीरा, सूर, तुलसी आदि भक्तों ने तथा सभी ऋषि मुनियों ने इसी भावभूमि पर पहुँचकर ईश्वर दर्शन आत्मसाक्षात्कार का परमानन्द प्राप्त किया था और सभी दूसरों के लिए भी वही राजमार्ग खुला है।

स्थूल शरीर का कर्मयोग से परिष्कार सूक्ष्म शरीर का ज्ञानयोग द्वारा उत्कर्ष एवं कारण शरीर में भक्तियोग द्वारा परमेश्वर की प्रतिष्ठापना ही सार्वभौम राजमार्ग है।

परिष्कृत जीवन अपने लिए, परिवार के लिए और समस्त संसार के लिए मंगलमय होता है। मान्यतायें, आदतें, आकांक्षायें परिवर्तित करने पर जीवन से बाह्य रूप का बदल जाना सहज सुनिश्चित है। उपासना और साधना इसी स्थिति को प्राप्त करने के लिए है।

आत्मा का परिष्कृत स्वरूप ही परमात्मा है। इस परिष्कार की प्रक्रिया है आत्म-निरीक्षण, आत्म-सुधार, आत्म-निर्माण और आत्म-विकास। अपने आपको जितना निर्मल और परिष्कृत बनाया जायगा उसी अनुपात से ईश्वरीय दिव्य शक्तियों का अवतरण होता चला जायगा। निर्मल दर्पण में प्रतिबिम्ब स्पष्ट दीखता है। निर्मल अन्तःकरण में ईश्वर के दर्शन होते हैं और उसे देखने पर वह सब उपलब्ध हो जाता है जो कुछ इस संसार में पाने योग्य है।


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