दान की महिमा और भिक्षा की गरिमा

October 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

प्राचीन काल में जितना महत्व उद्योग धन्धों के विकास और बाहरी संसाधनों की प्रगति को दिया जाता था उतना ही महत्व समाज के चिन्तन को ऊर्ध्वगामी बनाये रखने तथा जनमानस में आदर्शवादी आस्थायें विकसित करने की प्रक्रिया को भी प्राप्त था। समाज का एक मूर्धन्य वर्ग जनमानस को उत्कृष्ट और परिष्कृत बनाये रखने के लिए अहर्निश प्रयत्नशील रहता था और अपना सारा समय इसी कार्य में लगाता था। उद्योग धन्धों और उत्पादक कार्यों में लगे व्यक्तियों की जीविका तो उनसे प्राप्त होने वाले पारिश्रमिक से होता था। चूँकि वे उत्पादक श्रम में लगते थे इसलिए उत्पादन में उनका एक भाग आसानी से उन्हें मजदूरी या वेतन के रूप में मिल जाता था। परन्तु जो वर्ग जनमानस के निर्माण में, समाज में उत्कृष्ट आदर्शवादी आस्थाओं के विकास में रचनात्मक श्रम करते थे, उससे तो कोई स्थूल सम्पत्ति का उत्पादन नहीं होता था। जबकि जीविका का आधार उन्हें भी चाहिए। निर्वाह की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उन्हें भी आर्थिक संसाधन चाहिए।

कहा जा चुका है कि यह कार्य भी बहुत अधिक महत्व प्राप्त था और समाज का नेतृत्व करने वाले वर्ग को श्रद्धा सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इस तरह के समाज का नैतिक और बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के कार्य में लगे हुए प्रतिभाशाली व्यक्तियों को ऋषि-महर्षि, सन्त, महात्मा कहा जाता था। उपार्जन के कोई प्रत्यक्ष साधन तो उनके पास थे नहीं इसलिए उनके निर्वाह की व्यवस्था समाज करता था। समाज का दूसरा वर्ग जो उत्पादक श्रम करता था अपने उपार्जन का एक अंश इस वर्ग के लिए सश्रद्धा, ससम्मान सुरक्षित रखता और उन्हें देता था। इस अंश सहयोग को निकालने और समाज का नैतिक व बौद्धिक नेतृत्व करने वाले वर्ग को वह अंश समर्पित करने की व्यवस्था का नाम दान था।

शासन व्यवस्था में भी जो सत्ता का संचालन करते हैं, वे लोगों से उनके उपार्जन का एक अंश टैक्स के रूप में वसूल करते हैं। लोग वह देते भी हैं परन्तु सामन्तशाही में वह वसूली छीनने की शैली में ढल गयी। कर व्यवस्था जन कल्याण के दूसरे कार्यों का आर्थिक आधार तैयार करने के लिए विनिर्मित की गयी इसमें कोई संदेह नहीं है। परन्तु सामन्ती काल में लोगों से वसूल किये गये कर का उपयोग व्यक्तिगत उपयोग के लिए किया जाने लगा। कर वसूली का ऐसा ढंग भी प्रचलित हुआ जिसे खुली लूट समझा जाने लगा। पहले लोग खुशी-खुशी देते थे, पर उसका सदुपयोग न होते देख कर आनाकानी करने लगे तो जोर जबर्दस्ती का प्रयोग किया जाने लगा। इससे लोग किसी प्रकार बच निकलने के स्रोत ढूँढ़ने लगे।

सामूहिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कर निर्धारण तथा कर वसूली अलग बात हुई। उसका कितना सदुपयोग हुआ और कितना दुरुपयोग यह अलग बात है। परन्तु अधिकारपूर्वक वसूल किये जाने के कारण अधिकारियों में अहंभाव को प्रश्रय मिला तथा सदुपयोग न होते देख कर जनसामान्य में आस्था घटी। ऋषि-महर्षियों ने स्वयं को इस विकृति की सम्भावना से बचाने के लिए घर-घर जाकर भिक्षा माँगने तथा लोगों से दान लेने की पद्धति का अनुसरण किया। इससे अहंकार बढ़ने का खतरा भी कम हुआ और दानदाता में भी यह भाव उत्पन्न हुआ कि समाज का नेतृत्व करने वाला यह वर्ग हमारे साथ सीधे जुड़ा हुआ है।

“दान देने और भिक्षा लेने” की यह व्यवस्था विशुद्ध रूप से लोक कल्याण के लिए बनी, पली और आगे बढ़ी। लेकिन जिस प्रकार अन्य परम्परायें विकृत हुईं हैं उसी प्रकार यह परम्परा भी वीभत्स रूप से विकृत हो गयी है। आज-कल किसी को कुछ दान देना कुँए में पैसे फेंकना जैसा बना हुआ है। क्योंकि कहीं भी उसका सदुपयोग होता नहीं दीखता। ऐसे त्यागी, वीतरागी और सम्पूर्ण रूप से समाज सेवा के लिए समर्पित व्यक्तित्वों का दर्शन भी दुर्लभ है जिन्हें दान देना आवश्यक लगे। अथवा जिस उद्देश्य से वह व्यवस्था निर्मित की गई वह उद्देश्य सार्थक या पूरा होता दिखाई दे और जो व्यक्ति लोगों की उदारता, दानशीलता से लाभ उठाने के लिए आगे आते हैं उनमें भी शायद ही ऐसा कोई हो जो किसी उपयोगी उद्देश्य के लिए भिक्षा माँग रहा हो।

किसी समय में ‘भिक्षु’, जिसका अर्थ भिखारी होता है, शब्द सुनते ही लोगों के मस्तक श्रद्धा से झुक जाते थे और उन्हें अपने घर के आमन्त्रित कर लोग उनकी चरण धूलि को मस्तक से लगा लेते थे। परन्तु आज भिक्षु या भिखारी शब्द सुनते ही लोगों के मन में घृणा, तिरस्कार तथा नफरत के भाव आने लगते हैं। इसका कारण है दान देने और भिक्षा माँगने की व्यवस्था का गरिमाहीन हो जाना। आजकल भिक्षा एक व्यवसाय ही बन गया है जिसमें लगने वाला वर्ग किसी सामाजिक उद्देश्य से नहीं अपना निर्वाह करने के लिए भीख माँगता है और व्यावसायिक नुस्खों की तरह लोगों की करुणा उभार कर दान प्राप्त करने के लिए तरह-तरह के नुस्खे काम में लाता है, भिक्षा पद्धति का प्रचलन प्राचीनकाल में हुआ यह ठीक है, परन्तु आजकल भिक्षा का जो स्वरूप प्रचलित है उसे भिक्षा का नाम देना भी प्राचीन संस्कृति और समाज व्यवस्था की अवमानना करना होगा।

जगह-जगह बैठ कर तरह-तरह से लोगों की करुणा उभारने तथा पुण्य प्राप्त होने का प्रलोभन दे कर भीख माँगने वाले व्यक्तियों की जीविका केवल उससे प्राप्त होने वाली सहायता अथवा लोगों द्वारा दी जाने वाली भीख से ही चलती है। कहा जा सकता है कि भिक्षा वह व्यवसाय है जिसमें कमाई तो होती है परन्तु कमाने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। देश के कोने-कोने में रह कर तरह-तरह से भीख माँगने वाले भिखारियों की संख्या 1 करोड़ से भी अधिक कूती गयी है।

इस व्यवसाय में धर्मजीवी वर्ग भी आ जाता है। भारत में 6 लाख के करीब गाँव हैं। प्रत्येक गाँव में औसतन 1 मन्दिर तो मानना ही चाहिए। यद्यपि कस्बों और शहरों में एक-एक स्थान पर सैकड़ों मन्दिर हैं। फिर भी न्यूनतम को ही औसत माना जाय तो प्रत्येक स्थान पर एक मन्दिर तो मानना ही चाहिए। एक मन्दिर में एक पुजारी तो होगा ही। यद्यपि बड़े मन्दिरों में दासियों कर्मचारी, पुजारी, मैनेजर, क्लर्क, चौकीदार और सफाई कर्मचारी होते हैं। इनके सही-सही आँकड़े उपलब्ध नहीं है। फिर भी प्रत्येक मन्दिर में औसतन दो कर्मचारी मान लेने में कोई हर्ज नहीं है। प्रति मन्दिर पीछे दो व्यक्ति अपने परिवार का निर्वाह मन्दिर में चढ़ायी गयी भेंट, पूजा, दान-दक्षिणा से ही करते हैं। एक परिवार में पाँच व्यक्ति भी माने जायें तो 12 लाख परिवारों में 60 लाख व्यक्तियों की जीविका केवल धर्मश्रद्धा से प्रेरित दान द्वारा चलती है।

भिक्षाजीवियों में साधु, बाबाओं, महन्त, मठाधीशों को भी लें तो यह संख्या कम से कम दुगनी तो हो ही जायेगी। एक करोड़ से अधिक की संख्या तो इसी प्रकार हो जाती है। सड़कों, चौराहों पर, बस स्टेण्डों, मन्दिरों के बाहर पंक्तियाँ लगाकर बैठने वाले भिखारियों की संख्या तो इसमें सम्मिलित ही नहीं की गयी है। हिन्दुओं में तो ‘नाथ’ और ‘जोगी’ दो जातियाँ तो भिक्षा द्वारा ही अपनी जीविका चलाती हैं और भीख से इतना कमा लेते हैं कि उसके सहारे न केवल अपना रोजमर्रा का खर्च चलाते हैं बल्कि सामान्य व्यक्तियों से भी अधिक अच्छे ढंग का जीवन व्यतीत करते हैं।

भिक्षा द्वारा अपनी जीविका चलाने वाली इन जातियों में केवल महिलायें ही भीख नहीं मांगतीं, शेष परिवार का प्रत्येक सदस्य भीख माँग कर परिवार की अर्थव्यवस्था जुटाता है। कहा जाता है कि गरीबी और धनाभाव के कारण लोग इस क्षेत्र में आते हैं। वस्तुतः ऐसी बात नहीं हैं। यह मान लिया जाय तो प्रश्न उठता है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत से भी अधिक व्यक्ति गरीबी के मानदण्ड से निचले स्तर पर जीवनयापन करते हैं वहाँ सभी व्यक्ति यह पेशा क्यों नहीं अपना लेते? शारीरिक असमर्थता, चत्रुपन या अन्धत्व भी भिक्षा व्यवस्था अपनाने का कारण नहीं है क्योंकि अधिकांश भिखारी शारीरिक दृष्टि से काफी हृष्ट-पुष्ट स्वस्थ और सबल शरीर के स्वामी होते हैं। किस तरह के व्यक्ति भिक्षा माँगते हैं? इसके एक सर्वेक्षण में पता चला कि केवल 12 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे, जो शारीरिक दृष्टि से असमर्थ या अपंग होने के कारण भिक्षा द्वारा अपना गुजारा चला रहे हैं। बाकी सभी शारीरिक दृष्टि से समर्थ और स्वस्थ पाये गये।

ऊपर जो आँकड़े दिये गये हैं। उनमें धार्मिक संस्थानों, मन्दिरों, देवालयों पर निर्भर रहने वाले व्यक्तियों की गणना नहीं की गयी है। लेकिन दान और भिक्षा की परम्परा विकृत रूप में वहाँ भी कायम तो है ही। इतनी बड़ी संख्या और इतने विशाल समुदाय की कल्पना करते ही आँखें विस्मय से फटी रह जाती हैं कि ये लोग अपना आत्म सम्मान गंवा कर किस प्रकार दूसरों की दया पाने के लिए याचना के हाथ फैलाते हैं। तमाम कारणों का विश्लेषण करने के बाद इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जो लोग भिक्षा व्यवसाय को जीविका के रूप में अपनाये हुए हैं उनके लिए अकर्मण्यता के अतिरिक्त और कोई कारण नहीं है जिससे विवश होकर उन्हें इस क्षेत्र में आना पड़ा हो। अभी कुछ महीनों पूर्व बम्बई पुलिस ने करीब 14 सौ से भी अधिक भिखारियों को भिखारी उन्मूलन कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार किया था। उन्हें गिरफ्तार कर एक बाँध पर मजदूरी करने के लिए भेजा गया।

जब तक पुलिस अधिकारियों की देख-रेख बनी रही तब तक तो वे काम करते रहे परन्तु जैसे ही देख-रेख ढीली हुई चौदह सौ में से 12 सौ के करीब भिखारी भाग गये और बाकी जो बचे वे भी रो पीट कर काम करते। अन्ततः उन्हें भी छोड़ दिया गया। कई स्थानों पर ऐसी घटनायें घटती देखी गयी हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि भिक्षा व्यवसाय में लगे व्यक्ति केवल अकर्मण्यता के कारण ही इस पेशे को अपनाये हुए हैं।

दुनिया के किसी भी देश में भिक्षा व्यवसाय का इस प्रकार प्रचलन नहीं है जिस प्रकार का अपने देश में। दूसरे देशों से आने वाले पर्यटक जब यहाँ किसी को भीख माँगते देखते हैं। तो प्रायः उनके चित्र खींच लेते हैं और अपने यहाँ के समाचार पत्रों में प्रकाशित कराते हैं। यूरोपीय देशों में तो भारत के सम्बन्ध में प्रायः कहा ही जाता है कि यह साँपों, साधुओं और भिखारियों का देश है। अर्थात् यह स्थिति विदेशों में भारतीय जनता की घृणित और गिरी हुई तस्वीर प्रस्तुत करती है।

दान देने और भिक्षा लेने की परम्परा यदि अपने मूल स्वरूप में प्रचलित रही होती तो भी वह एक आदर्श स्थिति होती। क्योंकि दान देने से उदारता और सामाजिकता का भाव विकसित होता है। लोग यह समझ लें कि जो कुछ हम कमा रहे हैं उस पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है वरन् उसके एक अंश पर समाज का भी हक है और जिसका अधिकार उसी को दिया जा रहा है तो उसमें अहंकार करने जैसी कोई बात नहीं है। इस परम्परा के परिष्कृत स्वरूप को प्रचलित रहने तक उन व्यक्तियों को भी निर्वाह और भविष्य की सुरक्षा के आश्वासन का आधार पुष्ट होता है। जो वर्ग समाज का नेतृत्व मार्गदर्शन करने में लगा होता, उसे प्रत्यक्षतः यह अनुभव भी होता कि हम समाज की उदारता का लाभ उठा रहे हैं, समाज पर निर्भर है तो उसका मूल्य चुकाने के लिए किसी भी तरह पीछे नहीं रहना चाहिए।

खेद है कि दान देने वाले न इस तथ्य को समझते हैं कि किसे दान दिया जाना चाहिए और क्यों दिया जाना चाहिए। दूसरों पर अपने बड़प्पन का रौब डालने, उदारता का विज्ञापन करने तथा जिसे दान दिया जा रहा है स्वयं को उससे बड़ा अनुभव करने के लिए लोग दूसरों को दिखा कर अपनी जेब से दो-चार सिक्के निकाल कर भिक्षुक के भिक्षापात्र में डाल देते हैं और जो वर्ग समान की उदारता के सहारे जी रहा है। वह इस परम्परा को व्यवसाय की तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। भिखारियों की बात छोड़ दें तो कई व्यक्ति ऐसे भी हैं जो प्रतिभाशाली हैं और चाहे तो अपनी प्रतिभा का उपयोग समाज हित में कर सकते हैं। परन्तु मुफ्त में मिलने वाली रोटी कुछ ऐसा चस्का लगा देता है कि उसे छोड़ कर और कुछ करने का जी ही नहीं होता।

आवश्यकता इस बात की है कि इस विकृत परम्परा को जल्दी से जल्दी नष्ट किया जाय। पहले जिस उद्देश्य से यह व्यवस्था बनी उन उद्देश्यों को पूरा करना अभीष्ट भी हो तो उसका विकल्प खोजा जाय किन्तु भिक्षा व्यवसाय को वर्तमान रूप में तो जीवित रहना ही नहीं चाहिए।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118