अनुत्तरित प्रश्न सटीक समाधान

October 1978

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ऊँची अट्टालिकाओं वाले एक भव्य मकान के नीचे कोई ब्राह्मण उदास और गम्भीर मुद्रा में बैठा था। वेश-भूषा से वह कोई राजपुरुष लग रहा था, परन्तु उस मकान के नीचे दीनता और उदासी का आवरण ओढ़े उसकी मुख-मुद्रा बता रही थी कि वह किसी मानसिक उलझन से बुरी तरह त्रस्त है।

ऊपर वाली अट्टालिका से नीचे की ओर झांक रही उस भवन की स्वामिनी ने उक्त ब्राह्मण को देखा तो उसका वेश और उसकी स्थिति दोनों ने उसे असमंजस में डाल दिया। वेशभूषा से राजपुरुष-सा और बैठा हुआ इस तरह जैसे कोई भिक्षुक, दीन−हीन या दरिद्र व्यक्ति। उस भवन की स्वामिनी का नाम था कमलिनी। आयु कोई 34-35 वर्ष की रही होगी, परन्तु उसकी देहयष्टि इतनी गठीली, शरीर इतना कोमल और रूप इतना सुन्दर था कि वह कोई वयस्क नहीं नवयौवना ही प्रतीत हो रही थी। उसका व्यवसाय भी ऐसा था जो समस्त समाज में निन्द्य, गर्हित और पतित समझा जाता था। वह किसी कुलीन परिवार की कुलवधू नहीं समाज की मलीनता से पैदा हुई और उसी पंक में रही, पली नगर वधू थी। फिर भी कमलिनी ने सहज मानवीय भाव से प्रेरित होकर उस अज्ञात राजपुरुष से लगने वाले ब्राह्मण के पास अपनी एक दासी को भेजा।

दासी के साथ ही कुछ देर में वह ब्राह्मण आ गया। कमलिनी ने उसे यथोचित सम्मान के साथ आसन प्रस्तुत किया और सेवकों को उसी अनुरूप स्वागत प्रबन्ध का निर्देश देकर ब्राह्मण के सामने जा बैठी और बोली-‘मैं श्रीमान् का परिचय जानने का सौभाग्य प्राप्त कर सकती हूँ।’

‘मुझे याजक चन्द्रशेखर कहते हैं।’

उतना परिचय ही पर्याप्त था कमलिनी के लिए क्योंकि उन दिनों प.चन्द्रशेखर की ख्याति न केवल पूना में वरन् सारे महाराष्ट्र में थी। राज्य में उन्हें अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी। इसलिए कमलिनी ने इतने मात्र परिचय को ही पर्याप्त समझा और फिर पूछा-‘तो महाराज! आप कुछ उदास और चिन्तित दिखाई देते हैं। क्षमा करें? क्या मैँ इसका कारण जान सकती हूँ।

याजक चन्द्रशेखर ने कहा-‘गत दिनों एक शास्त्रार्थ में मुझे नीचा देखना पड़ा। वैसी पराजय मेरी कभी नहीं हुई और सोचता हूँ जब तक उन प्रश्नों का उत्तर न खोज लूँ, जिनके कारण कि मुझे पराजित होना पड़ा तब तक अपने घर में प्रवेश नहीं करूंगा।

‘क्या मैं आपकी उस समस्या का निवारण करने में मैं कोई सहयोग दे सकती हूँ?’

‘प्रश्न ही कुछ ऐसा जटिल है कि मैं आपसे क्या कहूँ। बताइये पाप की जड़ कहाँ है।’

‘हाँ प्रश्न तो जटिल है ही। मनुष्य जानते-समझते भी पाप पंक में क्यों पड़ता है। जबकि सभी कोई जानते हैं मर्यादाओं को तोड़ने का दण्ड प्रत्येक व्यक्ति को भोगना पड़ता है।

याजक चन्द्रशेखर इस पर मौन रह गये। फिर उन्होंने कहा-”आप इस समय घर से बाहर ही रहते हैं तो भोजन आदि की व्यवस्था कैसे करते हैं।”

‘मैं स्वपाकी, ब्राह्मण हूँ। इसलिए अपने हाथ से ही भोजन बनाता और खाता हूँ।’

‘धृष्टता क्षमा करें महाराज तो एक निवेदन करूँ।’

चन्द्रशेखर जी ने कमलिनी की ओर प्रश्न मुद्रा से अपने पापों को प्रक्षालित करने का सुअवसर दें तो बड़ी कृपा होगी।’

परन्तु कमलिनी इससे मेरा व्रत टूटेगा।

‘आप क्या इतनी भी उदारता नहीं कर सकते कि मुझ अधर्म का उद्धार करने के लिए कुछ देर तक व्रत बन्धनों का मोह छोड़ दें-कमलिनी बोली-’और फिर मैं आपको दस स्वर्ण मुद्राएँ भी दक्षिणा में देती रहूँगी।’

याजक चन्द्रशेखर के लिए वेश्या के उद्धार से भी अधिक आकर्षक थी इस स्वर्ण मुद्राओं की दक्षिणा। इससे पूर्व याजक ने कभी अपने व्रत को भंग नहीं किया था। वे घर में रहते थे तब भी अपने या अपनी पत्नी के हाथ से बना भोजन ही करते थे। नियम मर्यादाओं के इतने पाबन्द कि कदाचित ही उनसे स्खलित हुए हों। नीति-परायण और मर्यादाओं से बंधे जीवन के कारण उनके चरित्र पर कभी किसी ने उंगली नहीं उठायी थी। विद्वत समाज में भी वे आदर की दृष्टि से देखे जाते थे।

लेकिन एक विद्वत्सभा में किये गये इस प्रश्न ने पण्डित चन्द्रशेखर को इस भाँति आन्दोलित कर दिया कि उनके मन की शान्ति और मस्तिष्क का सन्तुलन सब कुछ विचलित हो उठा। उसी प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए निरुद्देश्य भटकने को ही उन्होंने अपनी शोध बना ली तथा संकल्प किया कि जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं कर लेंगे तब तक गृह में प्रवेश नहीं करेंगे। स्वाभाविक था कि यत्र-तत्र घूमने और यायावर जीवन व्यतीत करने के कारण साधनों का भी अभाव होता। पण्डित याजक चन्द्रशेखर ने कमलिनी का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दस स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन अर्थात् एक मास में ही तीन सौ स्वर्ण मुद्राएँ। राजसभा की विद्वत्परिषद के सदस्य होते हुए भी उन्हें इतना धन कभी नहीं मिला था और बढ़िया सुस्वादु भोजन।

प्राज्ञवर चन्द्र ने प्रतिदिन कमलिनी के आवास पर जाना प्रारम्भ कर दिया। नित्य प्रति प्रातःकाल और संध्या समय के भोजन के लिए पहुँचने लगे। कमलिनी स्वयं अपने हाथ से भोजन बनाती, प्राज्ञवर को सम्मान पूर्वक आसन पर बिठाती, स्वयं भोजन कराती और जब तक पण्डित जी भोजन करते तब तक उन्हें पंखा झलती रहती। भोजन करते-करते पण्डित जी की दृष्टि कई बार कमलिनी से भी मिलती और उसकी रूप माधुरी में उलझ कर खो जाती।’

एक दिन कमलिनी ने कहा-’पूज्यवर आप इन दिनों घर में तो जाते नहीं।’

‘हाँ’-पण्डित चन्द्रशेखर ने कहा।

तो फिर निवास कहाँ करते हैं?

कहीं भी।

कहीं भी अर्थात्-

‘खुले आकाश के नीचे विस्तृत धरती हो। जहाँ भी उपयुक्त स्थान देखता हूँ सो जाता हूँ।’

आपको यदि कोई आपत्ति न हो तो आप इसी भवन में विश्राम कर लिया कीजिए न।’

याजक चन्द्रशेखर को प्रतीत हुआ जैसे उनकी मन की बात ही कमलिनी ने कह दी है। वे इसके बाद वहीं रहने लगे। भवन में प्रतिदिन नृत्य गान और हास विनोद चलता था। रसिक प्रवृत्ति के व्यक्ति वहाँ प्रायः जुटे रहते और घुँघरुओं की झंकारों से भवन का कोना-कोना गूँजता रहता। कमलिनी जब किसी के सामने हँसती तो पण्डित चन्द्रशेखर के कानों में जैसे जलतरंग बजने लगती।

अब न उन्हें अपना प्रश्न स्मरण रह सका था और न उसके उत्तर की चिन्ता। दस स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन मिल जाती और सुस्वादु भोजन से रसना की तृप्ति तथा क्षुधा की निवृत्ति हो जाती। भवन के वातावरण ने पण्डित चन्द्रशेखर पर भी अपना रंग दिखाना आरम्भ किया। उनके मन में रह-रहकर यह आकांक्षा उठती कि वे कमलिनी से प्रणय निवेदन करते। रह-रहकर वे अपनी तुलना उस व्यक्तियों से करते जो कमलिनी के पास आते थे और उनसे अपने आपको किसी भी रूप में कम नहीं पाते। परन्तु न जाने कौन-सा संकोच था जो उनके होठों को सी देता।

अन्ततः! एक दिन उन्होंने सकुचाते-सकुचाते कमलिनी से अपने मन की बात कह दी। सुनकर खिलखिला पड़ी कमलिनी। कुछ समझ नहीं पाये याजक। तव कमलिनी गम्भीर हो गयी और बोली-‘मान्यवर! अब आपके प्रश्न का उत्तर प्राप्त हो गया है।’

लगा जैसे याजक आकाश से धरती पर गिर पड़े हों। फिर अपने आपको सम्हालते हुए बोले- मैं समझ नहीं पाया कमलिनी कि मुझे कौन-सा उत्तर प्राप्त हो गया है।

‘जिस प्रश्न की शोध में आपने गृह त्याग किया था वह यही था न कि पाप की जड़ क्या है?’

‘हाँ।’

‘उसी का उत्तर,- कमलिनी बोली- आपने स्वपाकी होने का व्रत स्वर्ण मुद्राओं के प्रलोभन से ही तोड़ा न था।’

लगा किसी ने गाल पर तमाचा जड़ दिया हो फिर भी याजक अपने को इतना दुर्बल अनुभव कर रह थे कि उनसे अस्वीकार करते नहीं बना। कमलिनी ने कहा-‘मान्यवर मेरी मान्यता है कि वह लोभ ही पाप की जड़ है। यदि आप स्वर्ण मुद्राओं के आकर्षण में फँसकर अपनी शोधचर्या से विमुख न होते तो इस अस्थि चर्म की देह को जो सैकड़ों व्यक्तियों द्वारा शहद की तरह चाटी और पीक की तरह थूकी गयी है, पाने के लिए आतुर होने की स्थिति में नहीं पहुँचते।’

याजक चन्द्रशेखर को समाधान मिल गया था और वह रूपजीवा अपने अतीत की उन स्मृतियों में तैरने, उतरने लगी जिनने उसे यह सूत्र थमाया था।

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