विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय सन्निकट

October 1978

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पदार्थ का सूक्ष्मतम घटक जब परमाणु माना जाता था, तब बात बहुत पुरानी हो गई। परमाणु भी इलेक्ट्रोन, प्रोटोन, न्यूट्रोन आदि अनेक घटकों में विभाजित हो गया और उसका स्थान एक संघ संचालक भर का रह गया है।

विज्ञान क्रमशः आगे ही आगे बढ़ते-बढ़ते पदार्थ की मूल इकाई को तलाश करने की दिशा में पिछली शताब्दियों और दशाब्दियों की तुलना में बहुत प्रगति कर चुका है और अब बात चेतना के घटक समुदाय तक का स्पर्श करने लगी है। इन दिनों चेतना के मूल घटक के रूप में एक नये घटक को मान्यता मिली है। उसका नामकरण हुआ है साइकोट्रान। इस नयी खोज का स्वरूप जिस तरह सामने आया है उससे जड़-चेतन का मध्यवर्ती विवाद निकट भविष्य में नये करवट बदलता दिखाई पड़ता है। इसलिए उस परिशोध को असाधारण महत्व दिया गया है। उसकी खोज पर विज्ञान जगत का ध्यान नये सिरे से केंद्रीभूत हुआ है और उसकी शोध को एक अतिरिक्त प्रकरण की तरह मान्यता मिल रही है। इसकी शोधचर्या की साइकाट्रानिक विज्ञान नामक एक अतिरिक्त धारा ही मान लिया गया है। जुलाई 75 की अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान परिषद के अधिवेशन में यह प्रसंग उभरा था तब से लेकर अब तक इन तीन वर्षों की अवधि में बहुत काम हो चुका है और पदार्थ की नई परिभाषा करने की तैयारियाँ जोरों में चल रही है।

इस अभिनव शोध धारा ने पदार्थ सत्ता और मनुष्य की अन्तःचेतना को पारस्परिक तारतम्य बिठाने वाला आधार ढूँढ़ निकाला है। चेतना ऊर्जा और पदार्थ ऊर्जा में दिखाई देने वाली भिन्नता इस आधार पर अधिकतम निकट तो दीख ही रही है उसके अविच्छिन्न सिद्ध होने की भी सम्भावना है।

फोटोग्राफी में प्रायः उन्हीं पदार्थों के चित्र उतरते थे तो आँखों की सहायता से देखे जा सकते हैं। सूक्ष्मदर्शी और दूरदर्शी यन्त्रों की सहायता से जो देखा जा सका वह भी नेत्रों की परिधि में ही आया समझा जाना चाहिए। कैमरों का लेन्स प्रकारान्तर से नेत्र की ही अनुकृति है। साइक्राट्रानिक विज्ञान के अन्तर्गत क्लिर्लियन फोटोग्राफी के आधार पर अब भाव सम्वेदनाओं के उतार-चढ़ावों को भी फोटो प्लेटों पर कैद कर सकना सम्भव हो गया है। इस सफलता से यह निष्कर्ष निकलता है कि ताप, तरंगों-ध्वनि, कम्पनों और रेडियो विकरण की तरह इस अनन्त ब्रह्माण्ड में भाव सम्वेदनाएँ भी प्रवाह मान रहती हैं और अभीष्ट लक्ष्य तक पहुँच कर विशिष्ट प्रभाव उत्पन्न करती हैं। यदि लेसर आदि किरणें किसी अभीष्ट स्थान तक पहुँचा कर इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है तो अब यह मानने के पक्ष में भी आधार बन गया है कि विचारणाएँ एवं भावनाएँ भी अमुक व्यक्ति को वही, अमुक पदार्थ को भी प्रभावित कर सकती हैं। बन्दूक की गोली अन्तरिक्ष में तैरती हुई निशान तक पहुँचती और प्रहार करती है। रेडियो, टेलीफोन भी व्यक्तिगत वार्तालाप की भूमिका बनाते हैं। भाव सम्वेदना को पदार्थ सत्ता के साथ तालमेल बिठा सकने वाला साइकोट्रानिक्स भी इस सम्भावना को प्रशस्त करता है कि भाव सम्वेदनाएँ भी अब भौतिक पदार्थों को प्रभावित करने में समर्थ रह सकेंगी।

परम्परागत मान्यता में इतना तो जाना और माना जाता रहा है कि पदार्थ से चेतना प्रभावित होती है। सौन्दर्य और कुरूपता से दृष्टि मार्ग द्वारा मस्तिष्क में उपयुक्त एवं अनुपयुक्त भाव-सम्वेदनाएँ उत्पन्न होती हैं। अन्य इन्द्रियाँ भी जो रसास्वादन करती हैं उनसे भी चेतना को प्रसन्नता, अप्रसन्नता होती है। त्वचा द्वारा ऋतु प्रभाव की प्रतिक्रियाएँ अनुभव की जाती हैं और उनसे प्रिय-अप्रिय का भान होता है। चोट लगने आदि की प्यास बुझाने जैसी पदार्थजन्य हलचलों का मनःसंस्थान पर प्रभाव पड़ता है। अब नये तथ्य सामने इस प्रकार आ रहे हैं मानो चेतना में भी यह शक्ति विद्यमान है जिससे पदार्थों एवं प्राणियों के शरीरों को भी प्रभावित किया जा सकता है। इस प्रकार के प्रमाण मिलते तो पहले से भी रहे हैं किन्तु उनके कारण न समझे जाने से किसी मान्यता पर पहुँच सकना सम्भव न हो सका।

अतीन्द्रिय क्षमता मनुष्य में विद्यमान है और वह कई बार ऐसी जानकारियाँ देती हैं जो उपलब्ध इन्द्रिय शक्ति को देखते हुए असम्भव लगती है। ऐसी घटनाओं को या तो छल, भ्रम आदि कहकर झुठला दिया जाता है या फिर दैवी चमत्कार का नाम देकर किसी अविज्ञात एवं अनिश्चित के गर्त में धकेल कर पीछा छुड़ा लिया जाता है। पैरासाइकोलॉजी- मैटाफिजिक्स के आधार पर जो शोधें हुई हैं, उनसे इतना ही जाना जा सकता है कि चमत्कारी अनुभव और घटनाक्रम होते हैं। वे प्रपंच नहीं तथ्य है। इतने पर भी यह नहीं जाना जा सका कि भौतिकी के किन नियमों के आधार पर ऐसा हो सकने की बात सिद्ध की जा सकती है। अतीन्द्रिय क्षमता को मान्यता तो मिले, पर उसके कारणों का पता न चल सके तो वस्तुतः यह एक बड़े असमंजस की बात है। अब तक स्थिति ऐसी ही रही है।

चमत्कारी सिद्धियों और शक्तियों से यही प्रमाणित होता है कि पदार्थ ही चेतना को प्रभावित नहीं करता वरन् चेतना भी पदार्थ को प्रभावित कर सकने में समर्थ है। मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म के आविष्कार ने इस दिशा में एक और प्रमाण मूल तथ्य सामने रखा था फिर भी बात अधूरी ही रही। प्राण ऊर्जा को मान्यता देने के लिए तथ्य तो विवश करते थे, पर साहसिक प्रतिपादन कैसे सम्भव हो? विज्ञान की किस शाखा के आधार पर इसका सुनिश्चित समर्थन किया जाय? अटकलें तो लगती रही हैं और कुछ संगति बिठाने के लिए तर्क और प्रमाण भी प्रस्तुत किये जाते रहे हैं, पर वह सब रहा संदिग्ध ही। जब तक कुछ प्रमाणिक तथ्य सामने न आयें तो उसे निश्चित कहने का साहस किस आधार पर किया जाय?

साइकोट्रानिक्स ने इस असमंजस को किसी निष्कर्ष तक पहुँचाने की आधारशिला रख दी है और उस सिद्धान्त को उजागर किया है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि चेतना और पदार्थ के बीच तालमेल बिठाने वाले कोई सुनिश्चित सूत्र विद्यमान हैं। वे दोनों परस्पर गुंथे हुए ही नहीं हैं वरन् एक ही सत्ता के दो रूप हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष की संज्ञा दी जा सकती है। इस विज्ञान के अन्तर्गत चेतना की एक अति प्रभावशाली क्षमता-साइकोकायनेसिस दूरस्थ व्यक्ति के प्रति आदेश प्रेषण क्षमता को तथ्य रूप में स्वीकार कर लिया गया है।

साइकाट्रानिक विज्ञान के मूर्धन्य शोधकर्ता डॉ. राबर्ट स्टोन का प्रतिवेदन है कि जड़ और चेतन के विवाद को सुलझाने के लिए अब तक जो प्रयत्न चलते रहे हैं उसे देर तक अनिश्चित स्थिति में न पड़ा रहने देने की चुनौती स्वीकार कर ली गई है और अपनी पीढ़ी के ही शोधकर्ता किसी निश्चित स्थिति तक पहुँच जाने योग्य आधार प्राप्त कर चुके हैं। विज्ञान की पिछली पीढ़ी के कुलपति आइन्स्टाइन के नेतृत्व में स्पेस-टाइम-युनिवर्स के सिद्धान्त ने काफी प्रगति की थी उससे ब्रह्माण्ड की मूल स्थिति को समझ सकने के लिए आशाजनक पृष्ठभूमि बनी थी। अब साइकाट्रानिक्स ने और बड़ा प्रकाश प्राप्त किया है। गुत्थी को अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह सुलझाने में उससे भारी सहायता मिलेगी।

गत वर्ष टोकियो के अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान कान्फ्रैन्स के अधिवेशन में भी यह प्रसंग प्रधान रूप से चर्चा का विषय रहा। स्टेनफोर्ड रिसर्च इन्स्टीट्यूट ने तो अपने कन्धे पर उस धारा के सम्बन्ध में अधिक विस्तारपूर्वक उच्चस्तरीय शोध करने के लिए मूल्यवान साधन भी जुटा लिये हैं।

चन्द्रमा के धरातल पर उतरने वाले 11 वें वैज्ञानिक एवं नोयटिक साइन्स इन्स्टीट्यूट के संस्थापक एडगर निचेल ने अपनी चन्द्र यात्रा से लौटने के उपरान्त यह मानना और कहना जोरों से शुरू कर दिया है कि ब्रह्माण्ड की संरचना जिन पदार्थों से हुई है वे किसी चेतना प्रवाह के उद्गम से आविर्भूत हुए हैं। भौतिक नहीं है। पदार्थ को जिन प्रतिबन्धों में बँध कर परिपूर्ण अनुशासन में रहना पड़ रहा है वह संयोग मात्र नहीं वरन् किसी महत्ती विश्व व्यवस्था का अंग है।

इस दिशा में मनोविज्ञानी डॉ. कार्ल सिमण्टन ने एक साधन सम्पन्न अस्पताल की स्थापना की है जिसमें चिकित्सा का जो नया आधार खड़ा किया है उसमें साइकोट्रानिक्स के सिद्धान्तों को ही क्रियान्वित किया गया है। यह प्रचलित मानसिक चिकित्सा से भिन्न है। इन दिनों मानसोपचार में सजेशनों को ही आधारभूत माना जाता है। स्व संकेत पर संकेत की जो प्रक्रिया पिछले दिनों हिप्नोटिज्म प्रतिपादनों के सहारे चलती रही है इन नये प्रयोग में उससे बहुत आगे की बात है। इसमें विचार सम्प्रेषण को एक शक्ति एवं औषधि के रूप में रोगी के शरीर और मस्तिष्क में प्रवेश कराया जाता है। परिणामों को देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा रहा है कि विचार सम्प्रेषण पद्धति प्रचलित अन्य चिकित्सा पद्धतियों की तुलना में किसी दृष्टि से पीछे नहीं है। उसके उत्साहवर्धक परिणामों का अनुपात अन्य उपचारों की सफलता के समतुल्य नहीं वरन् अग्रगामी है।

इस क्षेत्र में अधिक तत्परतापूर्वक शोध प्रयत्नों में लगे हुए डॉ. स्टोन ने मस्तिष्क विधा के परीक्षण निष्कर्षों का प्रतिफल यह बताया है कि मानवी मस्तिष्क का बायें भाग तो उसकी निजी आवश्यकताएँ जुटाने में लगा रहता है और दाहिना भाग इस सुविस्तृत ब्रह्माण्ड के साथ अपना तालमेल बिठाता और आदान-प्रदान बनाता रहता है। वह सम्पर्क एवं वातावरण से प्रभावित होता भी है और प्रभावित करता भी है। सामान्यतया वह प्रक्रिया उतनी ही छोटी परिधि में चलती है जिससे व्यक्ति को छोटा व्यक्तित्व अपनी सीमित इच्छाओं के अनुरूप सुविधा और सुरक्षा पाने में किसी कदर समर्थ होता रह सके। किन्तु इस परिधि का विकास होना सम्भव है। इस बात की पूरी सम्भावना है कि व्यक्ति की चेतना यदि अपने को अधिक समुन्नत स्थिति तक विकसित कर सके तो वातावरण से प्रभावित होने और प्रभावित करने से जो लाभ उठाया जा सकता है उसे उठा सके। स्टोन के कथनानुसार कला, संस्कृति, दर्शन तथा सम्वेदनाओं का बहुत कुछ आधार मस्तिष्क के इस दाहिने भाग पर ही बहुत कुछ निर्भर रहता है।

अतीन्द्रिय क्षमता का परिचय देने वालों के मस्तिष्क का यह दाहिना भाग-सेरीव्रम- अधिक सक्षम, परिपुष्ट पाया गया है। रहस्यों को जानने और अद्भुत कर सकने की चमत्कारी विशेषताएँ विकसित करने का श्रेय इसी भाग को है। इस क्षेत्र की क्षमताएँ भौतिक क्षेत्र से विकसित होने पर व्यापक पदार्थ सम्पदा के साथ अपनी घनिष्ठता स्थापित कर सकती हैं और ज्ञान एवं कर्म का क्षेत्र सीमित न होकर असीम बन सकता है। ऐसे ही आन्तरिक क्षमता सम्पन्नों को देव मानवों की संज्ञा एवं श्रद्धा प्रदान की जाती रही है।

न्यूरो सांइटिस्ट डॉ. कार्लप्रिब्रम और फ्रिजिसिस्ट प्रो. डेविड ब्रोहम ने व्यक्ति और ब्रह्माण्ड के गहन रहस्यों की झाँकी की है। उसे वे एक अद्भुत सत्य का अनिर्वचनीय आभास बताते हैं। दोनों के कथन मिलते-जुलते हैं वे मानवी मस्तिष्क इस निखिल ब्रह्माण्ड का लघु अणु रूप है। इसके प्रसुप्त संस्थानों को मेडीटेशन ध्यान-जैसे उपचारों से जागृत बनाया जा सकता है। अपने ही, संकल्प बल से इस क्षेत्र में ‘साइकाट्रानिक लेसर बीम’ तैयार की जा सकती है। उसका मेट्रिक्स के अभेद्य समझे जाने वाले क्षेत्र में प्रवेश हो सकता है और ऐसा कुछ प्राप्त करने का अवसर मिल सकता है जो मनुष्य की वर्तमान क्षमता को असंख्य गुनी अधिक समुन्नत बना दे।

औसत व्यक्ति की भौतिक सम्पन्नता की तरह आन्तरिक क्षमता भी सीमित है। किन्तु यह सीमा बन्धन अकाट्य नहीं है। व्यक्ति प्रयत्नपूर्वक अपने को क्रमशः ससीम से असीम बनने की दिशा में निरन्तर प्रयत्न करता रह सकता है। यह विशालता विश्व सत्ता और आत्मसत्ता के अन्तर को समाप्त करती है और सबको अपने में, अपने को सब में, देखने का अवसर मात्र भाव-सम्वेदना की दृष्टि से ही नहीं-तथ्यों के आधार पर भी उपलब्ध हो सकता है। आत्मा और परमात्मा का मिलन, नर का नारायण रूप में परिणति जैसे अध्यात्म लक्ष्यों के साथ विकासोन्मुख आत्म सत्ता की संगति पूरी तरह बैठ जाती है।

जीवनी शक्ति-चेतन सत्ता एवं पदार्थ ऊर्जा के क्षेत्र पिछले दिनों एक सीमा तक हो पारस्परिक घनिष्ठता स्थापित कर सके हैं, पर अब यह सम्भावना प्रशस्त हो रही है कि तीनों का परस्पर पूरक और सुसम्बन्ध मान कर चला जाय और एक की उपलब्धि से अन्य दो धाराओं को अधिक सक्षम बनाकर अभाव ग्रस्तताओं से उबरा जाय। अगले कदम इस स्थिति का भी रहस्योद्घाटन कर सकते हैं कि चेतना सागर के अतिरिक्त इस विश्व ब्रह्माण्ड में और कुछ है ही नहीं। प्राणियों के स्वतन्त्र अस्तित्वों का दृश्यमान स्वरूप उसी स्तर का है जैसा कि समुद्र की सतह पर उतरने वाली लहरों का होता है। उनकी दृश्यमान पृथकता अवास्तविक और मध्यवर्ती एकता वास्तविक होती है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने पर वेदान्त और विज्ञान दोनों एक हो जाते हैं। तत्वदर्शन और पदार्थ विज्ञान को एकीभूत करने के लिए नई शोध धारा साइकोट्रानिक्स के रूप में सामने आई है। उसका अभिनव प्रतिपादन, विश्लेषण प्रयोग और निष्कर्ष सापेक्षवाद की तरह ही जटिल है। उन्हें ठीक तरह समझ सकना इन दिनों कठिन प्रतीत हो सकता है, पर इन सम्भावनाओं का द्वार निश्चित रूप से खुला है कि चेतना को विश्व की मूलभूत शक्ति मानने का सिद्धान्त सर्वमान्य बन सके। ऐसा हो सका तो भौतिकी को जो श्रेय इन दिनों प्राप्त है उससे कम नहीं वरन् अधिक ही आत्मिकी को प्राप्त होगा।


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