समय और साधनों की अस्त-व्यस्तता पर भी ध्यान दें।

October 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन देखने में छोटा लगता है, पर वस्तुतः वह बहुत लम्बा होता है। कुछ ही वर्ष जीकर मर जाने की शिकायत सभी को रहती है पर यह समय भी इतना अधिक है कि उतने में भी बहुत कुछ कर गुजरना सम्भव हो सकता है। दैनिक कामकाज में भी कितना कुछ कर लिया जाता है इसका लेखा-जोखा कोई बिरला ही लेता है। कितना खर्च एक आदमी की जिन्दगी पर आता है और उसकी पूर्ति में सामान्य क्रिया-कलापों से ही कितना कुछ कर गुजरना पड़ता है उसको तनिक बारीकी से खोजा जाय तो आश्चर्य होता है कि इतनी सामर्थ्य और व्यवस्था होते हुए भी जीवन सम्पदा का अधिक श्रेष्ठ, सदुपयोग क्यों सम्भव नहीं हो पाता?

छोटी लगने वाली जिन्दगी में भी एक व्यक्ति का खर्च उतने समय में इतना अधिक होता है, जिसे एक बारगी सोचा और हिसाब जोड़ा जाय तो लगता है कि इतनी व्यवस्था कैसे बन पावेगी, पर रोज की आमदनी और रोज के खर्च का सामान्य ढर्रा ही उसे भली प्रकार पूरा कर देता है।

अब शाक भाजी की बारी आती है। आलू का प्रचलन सबसे अधिक होने से अनुमानतः वह 160 मन होगा। हरी सब्जियाँ इससे ड्यौढ़ी अर्थात् 250 मन के लगभग होंगी। औसत आदमी इतनी अवधि में 110 मन चीनी, 27 मन घी खा चुकेगा। चावल, दाल का विस्तार और परिमाण रोटियों के वजन और विस्तार के समतुल्य ही समझा जा सकता है।

पानी-स्नान, कपड़ा धोने, बर्तन माँजने, घर की सफाई आदि में कितना खर्च होगा? इसका हिसाब लगाना तो कठिन है, पर मात्र पीने के लिए प्रयुक्त होने वाले जल का हिसाब लगाया जाय तो उसका विस्तार 25 फुट ऊँची, 25 फुट चौड़ी और 25 फुट लम्बी टंकी जितना होगा। इतने पानी से एक छोटा तालाब ही बन जाता है।

स्नान में खर्च होने वाले पानी की तरह ही यदि नहाने और कपड़ा धोने के साबुन का खर्च जोड़ा जाय तो उसकी राशि इतनी हो जाती है जितने में एक छोटी गृहस्थी का रिहाइशी निजी मकान बन सकता है।

तन ढकने के कपड़े को लिया जाय और बिस्तर, बिछावन में जितना धागा काम में आता है उसे जोड़ा जाय तो उसकी लम्बाई प्रायः इतनी जा पहुँचेगी जितनी कि पृथ्वी से चन्द्रमा तक की है। इस धागे को कातने बुनने, सीने में मशीनों द्वारा अधिकांश काम निपट जाता है और जल्दी हो जाता है यह बात दूसरी है, पर यदि प्राचीन काल की तरह कपड़े सम्बन्धी आवश्यकताएँ आधुनिक ढंग से निपटानी पड़े तो उनके कातने बुनने में एक आदमी की आवश्यकता पूरी करने में एक मनुष्य के लगभग एक हजार दिन लग जायेंगे।

सोना है तो आवश्यक, पर उस बिना उपार्जन की मृतक जैसी स्थिति में पड़े-पड़े जीवन का कितना बड़ा भाग समाप्त हो जाता है, इसका हिसाब लगाया जाय तो दिन और रात को मिला कर सोने तथा उनींदे पड़े रहने में प्रायः आठ घण्टे रोज ही बीत जाते हैं। यह आयुष्य का एक तिहाई भाग है। इस हिसाब से 70 वर्ष जीने वाला मनुष्य प्रायः 25 वर्ष होता है। सभी जानते हैं कि बचपन में नींद से ही समय अधिक बीतता है।

कितने समय तक क्या किया गया? यदि इसका लेखा-जोखा तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि प्रायः एक तिहाई जिन्दगी सोने में गुजर जाती है और हर दिन तीन घण्टे सुस्ताने मस्ताने में लग जाते हैं। इतने समय तक कोई उपयोगी काम नहीं हो पाता, लगातार यह सुस्ताने का समय एक बार एक साथ नहीं होता इसलिए उसका पता नहीं चलता, पर यदि कोई घड़ी लेकर जाँच पड़ताल करने बैठे तो पता चलेगा कि औसत आदमी का कितना समय सोने सुस्ताने में चला जाता है। यह जवान आदमी की बात है। बच्चे, बूढ़े, बीमार, अमीर ओर निठल्ले आदमियों द्वारा की जाने वाली समय की बर्बादी इसके अतिरिक्त है।

समझा जाता है कि स्त्रियाँ घर पर निठल्ली बैठी रहती हैं। उन्हें कहीं बाहर नहीं जाना पड़ता और चौके चूल्हे की अतिरिक्त और कुछ करना धरना नहीं होता किन्तु हिसाब लगाकर देखा गया तो पता चला कि घर के छोटे-मोटे कामों में ही वे इधर-उधर चलते-फिरते कितनी लम्बी मंजिल पूरी करती हैं।

पुरुषों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक चलना-फिरना पड़ता है। कई तो हलकारे जैसी नौकरियों अथवा प्रचारकों, फेरी वाले जैसे धन्धों में बहुत समय चलने में ही बिताते हैं। स्त्रियों को अपेक्षाकृत कम चलना पड़ता है। वे घर की चहारदीवारी में ही अपना अधिकांश समय गुजारती हैं। बाहर तो उन्हें कभी-कभी ही जाना पड़ता है। इतने में भी घर के भीतर अपना दैनिक काम-काज निपटाने में एक वर्ष में प्रायः दो हजार मील चल लेती हैं। 70 वर्ष में से 4-5 वर्ष ही कम चलने के होते हैं शेष आयु में तो बचपन से लेकर 70 वर्ष तक की आयु तक चलने का काम लड़कियों को भी करना ही पड़ता है।

सारी जिन्दगी में एक नारी की सामान्य यात्रा प्रायः डेढ़ लाख मील मानी गई है। पृथ्वी की परिधि 25 हजार वर्ग मील है। 70 वर्ष की जिन्दगी में एक नारी धरती की छह बार परिक्रमा कर लेती है। पुरुष की तो बात ही क्या है। वह तो नारी की अपेक्षा कई गुनी यात्रा करता है। फलतः उसकी सारी यात्रा जोड़ी जाय तो वह अपेक्षाकृत कहीं अधिक परिक्रमाएँ इस धरती की कर लेता है।

काम तो हर आदमी को करना ही पड़ता है, पर वह होता अस्त-व्यस्त ढंग से बेसिलसिले ही है। यदि उसे क्रमबद्ध ढंग से एक प्रयोजन के लिए किया जाता रहा तो सामान्य स्तर का व्यक्ति अपने काम में प्रवीण पारंगत हो सकता है। विशेषज्ञों जैसी योग्यता उसमें उत्पन्न हो सकती है। व्यायाम, अध्ययन, गृह उद्योग जैसे कार्यों में बचत के थोड़े से घन्टे भी नियमित रूप से लग सकें तो स्वस्थता, बुद्धिमत्ता, सम्पन्नता की दृष्टि से उससे मनुष्य कहीं अधिक लाभ में रह सकता है जैसा कि आमतौर से रहता है।

गप्पबाजी, फैशन, मटरगश्ती जैसे कामों में जो समय बर्बाद होता है और तरह-तरह के व्यसनों में पैसा खर्च होता है उसे बचाया जा सके तो और उस बचत को उपयोगी कार्यों में लगाने का क्रम बिठाया जा सके तो इतने भर से मनुष्य की प्रगति और समृद्धि में उतनी अभिवृद्धि हो सकती है, जिसे दूसरों की दृष्टि में किसी देवता की चमत्कारी अनुकम्पा ही समझा जा सकता है।

चोरी, बेईमानी जैसे पाप अपराधों की हानि समझी जाती है और निन्दा की जाती है, पर अस्त-व्यस्तता में होने वाली बर्बादी को समझा जा सके और साधनों को सदुद्देश्य में लगा पाने की अनियमितता का मूल्यांकन किया जा सके तो प्रतीत होगा कि छोटी-सी जिन्दगी प्रचुर सम्भावनाओं से भरी होने पर भी क्रमबद्धता का अभाव ही जिन्दगी के व्यर्थ चले जाने का प्रधान कारण होता है।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118