मौन-भंग (kavita)

October 1978

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बन्दी बहुत रख चुकी अब तक, वाणी! तुम्हें मौन की कारा।

जीवन भर बन्दी रहना ही, वाणी! है क्या धर्म तुम्हारा॥1॥ मौन-व्रतों की गरिमाओं की, वाणी! यूं बदनाम करो मत। निष्क्रिय, दीन, कायरों जैसे, मौन-व्रतों के नाम धरो मत।

वाणी से विष-वमन अगर हो, तभी मौन-व्रत जाता धारा॥2॥ लेकिन अब अनुचित-कृत्यों का, कार्य क्षेत्र बढ़ता जाता हो। जब दुष्कृत्यों का दुस्साहस, छाती पर चढ़ता जाता हो।

कौन कहेगा तुम जीवित हो, जब तक तुम न करो ललकारा॥3॥ व्यक्ति वासनाओं, तृष्णा का क्रीतदास होता जाता है। स्वार्थ-सिद्धि के शूल सहज ही जन-पथ पर बोता जाता है।

पेट और प्रजनन के पीछे, आत्म-रूप, सर्वार्थ क्सिाराडडडड॥4॥ शोषण, उत्पीड़न का क्रम तो मनमाना-मगरूर हुआ है। सबके सुख में आग लगाता, स्वार्थ इस कदर क्रूर हुआ है।

मौन-भंग कर वाणी तुमने बोलो! किस-किस को धिक्कारा॥5॥ जो भी चलता है चलने दो, यही नीति खूंख्वार बनी है। दुष्प्रवृत्तियों, दुष्कृत्यों की हर गतिविधि असिधार बनी है।

मानव-आदर्शों की हत्या सहता कायर-मौन हमारा॥6॥ यह अनीति से समझौते ही नीति, बड़ी घातक होती है। पापों के प्रतिकार न करने की प्रवृत्ति पातक होती है।

संतोषी बन सब सह लेने वाला, मात्र आत्म-हत्यारा॥7॥ शब्द ब्रह्म की प्रतिनिधि हो तुम, वाणी! अब अपना मुँह खोलो। अतुलनीय है शक्ति तुम्हारी, अपनी शक्ति तनिक तो तोलो।

अनुचित और अनैतिक कृत्यों पर टूटो गन विद्युत धारा॥8॥ हर अवांछनीय गति-विधि को बढ़ने से पहले ही टोको। अत्याचारों, अन्यायों को धिक्कारो, ललकारो, रोको।

व्यक्ति और परिवार सुधारो! है नूतन-युग का यह नारा॥9॥ नव-युग-परिवर्तन बेला में, युग-परिवर्तन-मंत्र उचारो। उटान, सम्मोहन, मारन मंत्रों के समुचित–शर मारो।

वांडडडडडडा युग अभिषेक हुआ है, वाणी ने जब मंत्र उचारा॥10॥

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*समाप्त*


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