राजगृह पथ पर जा रहे गौतम बुद्ध ने देखा, एक गृहस्थ भीगे वस्त्र पहने सभी दिशाओं को नमस्कार कर रहा था।
बुद्ध ने पूछा-‘‘महाशय! इस छः दिशाओं की पूजा का क्या अर्थ है? यह पूजा क्यों करनी चाहिए?”
गृहस्थ बोला-‘यह तो मैं नहीं जानता।’
बुद्ध ने कहा-‘‘बिना जाने पूजा से क्या लाभ होगा।”
गृहस्थ ने कहा-‘‘भन्ते! आप ही कृपाकर बतलायें कि दिशाओं की पूजा क्यों करनी चाहिए।”
तथागत बोले-‘‘पूजा करने की दिशाएँ भिन्न हैं। माता-पिता और गृहपति पूर्व दिशा है, आचार्य दक्षिण, स्त्री, पुत्र पश्चिम और मित्र आदि उत्तर दिशा है। सेवक नीची तथा श्रमण ब्राह्मण ऊँची दिशा है। इनकी पूजा से लाभ होता है। गृहस्थ बोला-”और तो ठीक, भन्ते। परन्तु सेवकों की पूजा कैसे? वे तो स्वयं मेरी पूजा करते हैं।”
बुद्ध ने समझाया-‘‘पूजा का अर्थ हाथ जोड़ना, सिर झुकाना नहीं। सेवकों की सेवा के बदले उनके प्रति स्नेह-वात्सल्य ही उनकी पूजा है।” गृहस्थ ने कहा-‘‘आज आपने मुझे सही दिशा ज्ञान कराया।”
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