समय दान की श्रद्धांजलियां ‘प्रव्रज्या’ के लिए

October 1978

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युग निर्माण योजना के इस रजत जयन्ती वर्ष में अपने देव परिवार की जागृत आत्माओं से ‘समय दान’ की माँग की है। इस युग निमन्त्रण समझा जाना चाहिए। जहाँ आत्मिक प्रौढ़ता विद्यमान हो वहाँ उसे समय की चुनौती अनुभव किया जाना चाहिए। युग की संधि बेला में सृजन शिल्पियों ने गिद्ध, गिलहरी, रीछ, वानरों जैसी साधनहीन परिस्थितियों में होते हुए भी अपने मनोबल का परिचय दिया है और जिस सम्पदा का हर किसी के पास परिपूर्ण भण्डार है उस समय का मुक्त हस्त से अनुदान प्रस्तुत किया है। साधन सम्पदा हर किसी के पास नहीं होती यह ठीक है, पर यह भी गलत नहीं कि श्रम, समय, मनोयोग, प्रभाव आदि की वास्तविक सम्पदा से सृष्टा ने किसी को भी वंचित नहीं रखा है। धन भी इन्हीं विभूतियों के द्वारा कमाया जाता है। निर्धन भी श्रम और समय की दृष्टि से धनवान होते हैं। दरिद्रता तो कृपणता और अकर्मण्यता को ही कहते हैं। जहाँ उदारता और तत्परता मौजूद हो वहाँ सम्पदा के विपुल भण्डार भरे हुए ही माने जायेंगे। इसी वैभव के सहारे उदारचेता मनुष्यों ने अपने को महान बनाया है और अपनी नाव पर बिठाकर असंख्यों को पार किया है। धनवान बनने के लिए साधनों की आवश्यकता हो सकती है, किन्तु महान बनने के लिए निर्धनता का व्यवधान तनिक भी बाधक नहीं होता। उसके लिए संकीर्ण स्वार्थपरता के बन्धन थोड़े से शिथिल करने भर से इतनी सम्पन्नता सामने आ उपस्थित होती है कि उतने भर में आत्म-कल्याण और विश्व-कल्याण के दोनों प्रयोजन भली प्रकार सध सकें। संसार के समस्त महामानवों की जीवन गाथा इस तथ्य की साक्षी देती हुई हुई देखी जा सकती है।

अपने युग की माँग ‘जागृत आत्माओं से समय दान’ की है। गत अंक में कहा जा चुका है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना का एक ही उपाय है-”घर-घर नव युग का सन्देश पहुँचाने और जन-जन को परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाने के लिए सहमत करने के लिए, अलख जगाने के लिए जागृत आत्माओं को समय दान।” रजत जयन्ती वर्ष का अत्यधिक महत्वपूर्ण कदम-परिव्राजक अभियान का पुनर्जागरण है। इसमें ऋषि युग की वानप्रस्थ, सन्त युग की तीर्थ यात्रा और बौद्ध युग की श्रमण संस्कृति का समन्वय है। इसे ‘युग त्रिवेणी’ कह सकते हैं।

बादलों की तरह बरसते और पवन की तरह प्राण बिखेरने के लिए हमें जन-सम्पर्क साधने के लिए कदम बढ़ाने होंगे। दुर्घटनाग्रस्त, रुग्ण, असमर्थ और पिछड़ी मनोभूमि के लोग समर्थों का पता पाने और उनके दरबार तक पहुँच सकने में असमर्थ रहते हैं। समर्थों को ही अपनी सहज करुणा से प्रेरित होकर उनके यहाँ स्वयं ही पहुँचना पड़ता है। सूर्य ही प्रकाश फैलाने के लिए परिभ्रमण करता है। चन्द्रमा को ही चाँदनी वितरण के लिए यायावरों की तरह भटकना पड़ता है। अण्डे से बाहर निकलते ही पक्षी उन्मुक्त आकाश में विचरण करने लगते हैं। पका फल पेड़ को छोड़ देता है और अपने रस से दूसरों का परिपोषण करने और नया वृक्ष उगाने के परमार्थ में जुट जाता है। नदियों की वंश परम्परा यही है। ग्रह-नक्षत्र इसी क्रम को अपना कर सृष्टि का सौन्दर्य बनाये हुए हैं। प्रगति के इसी तत्व ज्ञान को ऋषि परम्परा में प्रमुख स्थान दिया गया है।

जीवन सम्पदा का परिपक्व उत्तरार्ध तो आश्रम व्यवस्था के अनुरूप वानप्रस्थ और संन्यास प्रक्रिया के अन्तर्गत इसी के लिए सुरक्षित है। ऋषियों के गुरुकुल और आरण्यक किसी एक स्थान पर नहीं थे, वे निरन्तर भ्रमणशील रहते थे। ब्रह्मचारी की सांसारिक और वानप्रस्थ की आध्यात्मिक शिक्षा इसी परिभ्रमण प्रक्रिया के अन्तर्गत सम्पन्न होती रहती थी।

भारतीय तत्वदर्शन का, अन्तरात्मा का एक बिन्दु पर दर्शन करना हो तो उसे- ‘‘चरैविति” सूत्र के अन्तर्गत टटोला जा सकता है। शास्त्रकार का यह अनुभव स्वयं सिद्ध है कि जो सोता है उसका भाग्य सोता है। जो बैठा है उसका भाग्य बैठा है। “जो खड़ा है उसका भाग्य भी तनकर खड़ा है और जिसने चलना आरम्भ कर दिया उसकी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ-प्रशस्त हो गया।” अन्त में ऋषि कहता है ‘इसलिए चलते रहो, चलते रहो।’ यह चलना सैलानियों और आवाराओं का नहीं वरन् परिव्राजकों का है जिसमें शारीरिक और मानसिक प्रगति के बहुमूल्य आधार जुड़े हैं। व्यक्ति और समाज के उज्ज्वल भविष्य की सम्भावनाएँ भी इसी धर्म प्रयाण में सन्निहित है। परिपक्व व्यक्तित्व के बहुमूल्य लोक सेवी इस प्रव्रज्या परंपरा की खदान से निकलते रहे हैं। उसी सम्पदा से भारत का अतीत देवोपम स्तर का चिरकाल तक बना रहा है। इन्हीं परिव्राजकों ने भारत भूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाया और समस्त संसार को अपने अजस्र अनुदानों से कृत-कृत बनाया है।

नव युग के अवतरण में भी इसी आधार को अपनाना पड़ेगा। जलते दीपक ही नये दीपक जलाते हैं। साँचे में ही खिलौने ढलते हैं। व्यक्तित्ववान ही परिष्कृत व्यक्तित्व उत्पन्न करते हैं। परिव्रज्या में इन सभी तत्वों का समन्वय है। यदि यह पुष्प प्रक्रिया प्रचलन का रूप धारण कर सके तो गौरव भरे अतीत का वापिस लाने में मनुष्य में देवता का उदय एवं धरती पर स्वर्ग का अवतरण करने में किसी प्रकार का सन्देह नहीं रह जायगा।

प्रस्तुत रजत जयन्ती वर्ष का स्थिर स्थायी सुनियोजन यही है। यों युगान्तरीय चेतना को विश्वव्यापी बनाने के लिए भाषाई क्षेत्रों में प्रवेश और सामूहिक तप साधना के पुरश्चरण आयोजनों द्वारा सूक्ष्म वातावरण के अनुकूलन का प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है, पर जिस गंगावतरण के लिए किए गये भागीरथ प्रयास की उपमा दी जा सकती है वह मिशन का परिव्राजक अभियान ही है। इसमें राम की रीछ-वानर, कृष्ण के ग्वाल-बाल, बुद्ध के श्रमण और गान्धी के सत्याग्रही नये युग के अनुरूप नया कलेवर धारण करके नयी परम्परा अपनाते हुए स्पष्टतः देखे जा सकते हैं।

जागृत आत्माओं के नाम भेजा गया महाकाल का युग निमन्त्रण निरर्थक नहीं चला गया है। उसकी सन्तोषजनक प्रतिक्रिया हुई है। जीवन-दानियों की आत्माहुतियाँ शृंखलाबद्ध रूप में बढ़ती ही चली आ रही है। यह वे आत्माएँ हैं जो विभिन्न कार्यों के लिए युग देवता के चरणों पर पूरी तरह समर्पित है। इन बाहर से छोटे किन्तु अन्दर से महान् समर्पित साधकों को प्रशिक्षित किया जा रहा है और उनकी योग्यता तथा मिशन की आवश्यकता के अनुरूप कार्यक्रम बनते बदलते रहे हैं। जीवन दानियों की संख्या 108 होते ही उसे एक प्रकार से विराम दे दिया जायगा।

परिव्राजक अभियान उससे कुछ हलका है, व्यापक बनने और हजारों, लाखों युग शिल्पियों के सम्मिलित होने की उसी में गुंजाइश है। रजत जयन्ती वर्ष में ‘समय दान’ को माँग की गई है। निश्चित रूप से बड़ी संख्या में जागृत आत्माओं की श्रद्धांजलियाँ युग देवता की इस झोली में भी पड़ेंगी। इस भावभरी समय सम्पदा का उपयोग प्रधानतया परिव्राजक प्रक्रिया के अन्तर्गत ही होगा। थोड़े से व्यक्तियों को ही विशेष कामों के लिए शान्ति कुँज रोका जायगा। शेष के जिम्मे एक ही काम रहेगा-नव जागरण के लिए जन-सम्पर्क। जन-सम्पर्क के लिए परिभ्रमण। शाखा संगठनों में नव जागरण उत्पन्न करने युग निर्माण सम्मेलनों और गायत्री पुरश्चरणों को सफल बनाने, श्रमिक वर्ग में मिशन का कार्यक्षेत्र विस्तृत करने जैसे कार्यों में ही इस वर्ष तो अब तक के प्रशिक्षित परिव्राजकों को पन्द्रह-पन्द्रह दिन के लिए भेजा जा रहा है। निकट भविष्य में उनकी अधिक संख्या होने पर देश के कोने-कोने में तथा विदेशों में अधिक समय तक डेरा डालकर रहने और युग चेतना उत्पन्न करने के लिए भेजा जायगा।

जागृति केन्द्रों के निर्माण की बात उन्हीं परिव्राजकों की गतिविधियाँ उन क्षेत्रों में व्यापक बनाने के लिए केन्द्रीय धर्म संस्थान के रूप में बनेगी। जो लोग मात्र गायत्री माता के मन्दिर बनाने के लिए उतावले थे, उन्हें स्पष्ट रूप से इसके लिए मना कर दिया है। मन्दिर पहले से ही बहुत है। जीर्णोद्धार उन्हीं का हो सके तो बहुत है। तीन चौथाई मन्दिर अस्त-व्यस्त पड़े हैं और निहित स्वार्थों की सम्पत्ति बने हुए हैं। उनकी सुव्यवस्था बन सके तो बहुत है। इन्हीं प्राचीन मन्दिरों में गायत्री माता भी प्रसन्नता पूर्वक विराजमान हो सकती हैं। नये बनाने हों या पुराने मन्दिरों में हेर-फेर करके उन्हें अपने उपयोग का बनाना हो, हर हालत में वे जागृति केन्द्र का ही काम करेंगे और उनमें परिव्राजकों के जत्थे ही निवास करते हुए एक निर्धारित क्षेत्र में जन-जागृति का उद्देश्य पूरा करेंगे। समर्थ गुरु रामदास ने भी समूचे महाराष्ट्र में ऐसे ही धर्म संस्थानों की स्थापना करके छत्रपति शिवाजी की पीठ भारी करने वाले साधन जुटाये थे।

विदेशों से भारत में ईसाई मिशनरी हजारों, लाखों की संख्या में आते हैं, पर भारत के एक भी मिशनरी विदेश में नहीं जाता। लेक्चरबाजी करके मन्दिर, आश्रम बनाने के नाम पर प्रवासी भारतीयों को लूट लाने के लिए ढेरों योग शिक्षक और धर्मोपदेशक विदेशों में पहुँचते हैं, पर वास्तविकता तो खुलती है। उस वर्ग के प्रति विदेशों में अश्रद्धा ही बढ़ रही है। आवश्यकता ऐसे लोगों की है जो लम्बे समय तक डेरा डालकर उन क्षेत्रों में भारतीय संस्कृति की जड़ें जमाने का काम कर सकें और अपने आपको उसी में खपा सकें। ऐसे मिशनरी भी इन्हीं परिव्राजकों में से निकलेंगे।

इसी सितम्बर में पन्द्रह-पन्द्रह दिन के दो प्रशिक्षण सत्र लगाकर लगभग 100 परिव्राजक इस वर्ष के आयोजनों में सहायता करने के लिए पन्द्रह-पन्द्रह दिन के कार्यक्रम बनाकर भेजे जा रहे हैं, पर यह तो तात्कालिक आवश्यकता की आपत्तिकालीन पूर्ति हुई। अगले दिनों परिव्राजकों के प्रशिक्षण की वैसी ही व्यवस्था बनेगी जैसी कि बौद्ध विहारों में श्रमणों की शिक्षा सम्पन्न करने के लिए चलती थी। (1) आत्म-साधना (2) ज्ञान संचय (3) सेवा शिक्षण, इन तीनों का ही समन्वय करके एक पाठ्यक्रम बनेगा। उसे छोटे-बड़े प्रशिक्षण सत्र में पूरा कराने की व्यवस्था ब्रह्मवर्चस् आरण्यक में रहेगी, इसके उपरान्त ही प्रशिक्षित परिव्राजकों को कार्यक्षेत्र में युगान्तरीय चेतना उत्पन्न करने के लिए थोड़े या अधिक समय के लिए आवश्यकतानुसार भेजा जाता रहेगा।

युग आह्वान पर समय दान देने के लिए उद्यत युग सृजेताओं का इन दिनों पंजीकरण किया जा रहा है ताकि उनकी संख्या के अनुरूप कदम उठाने की योजना बनाई जा सके। योग्यता के अनुरूप काम सौंपे जा सकें और अगले दिनों जो किया जाना है उसका स्वरूप एवं कलेवर निर्धारित हो सके। यों सभी समयदानी परिव्राजक स्तर के माने जायेंगे। सभी का प्रशिक्षण इसी स्तर का होगा, किन्तु कइयों की शारीरिक क्षमता एवं कार्य की आवश्यकता को देखते हुए उन्हें एक स्थान पर रहकर काम करने के लिए भी कहा जा सकता है, किन्तु वे होंगे अपवाद ही। समयदान का उपयोग परिव्रज्या में होगा आमतौर से यही मानकर चला जाना चाहिए।

परिव्राजकों की स्थिति के अनुरूप उनके तीन वर्ग बनाये जायेंगे।

(1) वरिष्ठ परिव्राजक-जो पूरा समय देंगे और शान्ति कुँज को ही अपना भावी निवास मानकर चलेंगे। ऐसे लोग सपत्नीक भी रह सकेंगे। वर्ष में प्रायः छह-सात महीने जन-सम्पर्क के लिए बाहर रहेंगे। पाँच-छह महीने ब्रह्मवर्चस् में उनकी साधना एवं शिक्षा चलेगी। महिलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध पृथक रहेगा। पतियों के बाहर चले जाने पर भी इन महिलाओं का उपयोगी शिक्षण चलता रहेगा। सपत्नीक व्यक्तियों को एक ऐसा कमरा मिल जायगा, जिसमें वे चाहें तो अपना भोजन आप भी बन सकें।

स्थायी रूप से शान्ति कुँज रहने वाले अपने निर्वाह व्यय की व्यवस्था अपने घर से ही बना कर चलेंगे। कुछ कम पड़ता होगा तो अपवाद रूप से ही खर्च की आंशिक पूर्ति मिशन से हो सकेगी। आमतौर से आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी लोगों को ही वरिष्ठ वानप्रस्थ के रूप में शान्ति कुँज रहने के लिए बुलाया गया है।

इस श्रेणी के लोगों में कुछ ऐसे भी हो सकते हैं जो रहें तो अपने-अपने घर पर ही, किन्तु समीपवर्ती क्षेत्रों में परिभ्रमण करते रहें।

(2) कनिष्ठ परिव्राजक इस श्रेणी के समय दानी हर वर्ष न्यूनतम दो महीने बाहर जाया करेंगे। शेष महीनों में अपने क्षेत्रों में ही काम करेंगे। छुट्टी के दिन इसी कार्य में लगाया करेंगे और हर रोज दो घण्टा समय देने की योजना बना लेंगे।

(3) समय दानी परिव्राजक, जिनकी पारिवारिक स्थिति अधिक समय तक घर छोड़ने की नहीं है वे न्यूनतम दो घण्टा हर रोज और साप्ताहिक छुट्टी जन-सम्पर्क के लिए नियमित रूप से लगाया करेंगे। अपने निवास स्थान में यह दो घण्टे का समय लगाया जा सकता है और समीपवर्ती क्षेत्रों में साप्ताहिक अवकाश में जाया जा सकता है।

उपरोक्त तीनों प्रकार के परिव्राजकों की सूची इन्हीं दिनों तैयार की जा रही है और उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए क्रमबद्ध योजना बनाई जा रही है। किसको, कब, कितने समय का प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा, इसका निर्धारण उनकी सुविधा को ध्यान में रखते हुए ही करना होगा। उपयुक्त प्रशिक्षण के बिना कार्यक्षेत्र में सही रीति से उतर सकना और परिव्राजक का स्तर गौरव बनाये रह सकना सम्भव न हो सकेगा।

इन दिनों परिव्राजकों के पंजीकरण के लिए कोई अतिरिक्त फार्म छपाया नहीं गया है। सादे कागज पर हाथ से लिखकर यह भेजना होगा कि उपरोक्त तीनों वर्गों में से किसमें प्रवेश लिया जा रहा है। संकल्प कर्ता को (1) संकल्प की तिथि (2) अपना पूरा नाम (3) पूरा पता (4)शिक्षा (5) व्यवसाय (6)जन्म तिथि (7) जाति गोत्र स्पष्ट अक्षरों में लिखकर भेजना चाहिए। इस सूचना के साथ-साथ एक अलग कागज पर विस्तारपूर्वक अपनी वर्तमान स्थिति के सम्बन्ध में कुछ बातें और भी लिखनी चाहिए। (1) शारीरिक स्वास्थ्य (2) मनःस्थिति (3) परिवार का विवरण-शेष उत्तरदायित्वों की जानकारी (4) अर्थ व्यवस्था (5) दुर्गुणों और सद्गुणों की जानकारी (6) समस्याएँ तथा उलझनें (7) अब तक के जीवन में घटी, भली या बुरी महत्वपूर्ण घटनाएँ। (8) कोई विशेष योग्यता यदि हो तो।

संकल्पकर्त्ता का परिचय तथा विवरण प्रस्तुत करने वाले यह दोनों ही कागज अलग-अलग लिखे जाने चाहिए और एक साथ शान्तिकुँज हरिद्वार के पते पर भेजे जाने चाहिए। पंजीकरण इन्हीं आवेदन पत्रों के आधार पर होंगे। परिव्राजक योजना को समग्र और सुव्यवस्थित बनाने के लिए यह जानकारी मिलना आवश्यक है कि युग की पुकार पर किन जागृत आत्माओं में कितना समय देना और उसे जन-जागरण के लिए लगाना स्वीकार किया। प्रस्तुत जानकारी का संग्रह और समय दानियों का पंजीकरण इन दिनों इसी दृष्टि से किया जा रहा है। जिनने समय दान का साहस किया हो वे अपनी जानकारी यथासम्भव जल्दी ही हरिद्वार भिजवा दें।

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