प्रेम मानव जीवन की सर्वोपरि सम्पदा

October 1978

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संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में काम करने वाली संस्था ‘वर्ल्ड हैल्थ ऑर्गनाइजेशन में’ डाइरेक्टर मनीषी डी. चिसोम ने अपने एक प्रतिवेदन में कहा था। “अपनी दुनिया का भविष्य इस बात पर निर्भर है कि परिपक्व व्यक्तित्व और प्यार कर सकने में समर्थ कितने अधिक व्यक्ति हम तैयार कर सके। बदलती दुनिया की समस्याएँ बेशक बहुत ही जटिल हैं फिर भी वे ऐसी नहीं है कि सज्जनता और सद्व्यवहार के सहारे हल न हो सकती हों। घृणा और ध्वंस का उपयोग प्रतिकूलताओं के हटाने के लिए बहुत समय से होता रहा है। उससे सामयिक लाभ भले ही हुआ हो, पर अन्ततः उससे नये किस्म के ऐसे संकट उभरे हैं जो पहले से भी अधिक जटिल सिद्ध हुए। दण्ड की आवश्यकता नहीं यह तो नहीं कहा जा सकता, पर इतना निश्चित है। समाधान के दोनों सिरे प्याज और सहकार के साथ सम्बद्ध हैं। इनका उपार्जन और उपयोग कर सकने वाले व्यक्तित्व ही दुनिया को शान्ति और प्रगति की ओर ले जा सकेंगे। आज के निर्माण का सबसे अधिक महत्वपूर्ण और रचनात्मक पक्ष यही है।”

सन्तों और महामानवों ने अपने आचरण और परामर्श के द्वारा जन-साधारण को प्रेम करने की शिक्षा दी है। धर्म-कृत्यों में पुण्य परमार्थ की विधि व्यवस्था इसलिए है कि उसके सहारे मनुष्य उदारता का अभ्यास करे। भक्ति को ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख आधार माना गया है। भक्ति अर्थात् प्रेम। प्रेम का आरम्भिक अभ्यास भक्ति-योग की साधना के सहारे किया जाता है उसका विकास परिपाक जैसे-जैसे होगा वैसे-वैसे करुणा जगेगी और दूसरों के साथ आत्मीयता भरा उदार व्यवहार करने की नीति अपनानी पड़ेगी। साधु और ब्राह्मण परम्परा में संयमी और मितव्ययी जीवन पद्धति अपनाने का प्राविधान है। यह इसलिए कि व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं से विरत होकर दूसरों की सेवा सहायता करने के लिए समय और साधन बनाये जा सकें। अध्यात्म तत्व ज्ञान के प्रधान सूत्र ‘‘आत्मवत् सर्व भूतेषु”-‘‘वासुदैव कुटुम्बकम्”-‘‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्” ‘‘कामये दुःख तल्फानां प्राणिनां आर्त नाशनम्” आदि हैं। इनमें दूसरों से प्यार करने की शिक्षा दी गई है। यही है आधार अवलम्बन जिसे अपना कर व्यक्ति अपनी गरिमा को विकसित करने और सेवाधर्म अपना कर यशस्वी बनने में समर्थ होता है। समाज की प्रकृति और शक्ति भी इसी आस्था पर निर्भर है।

शारीरिक रोगों की उत्पत्ति में आहार-विहार की विकृति से भी अधिक दुःखदायी तथ्य यह है व्यक्ति एकाकी उपेक्षित और असहाय अनुभव करता है। अपनेपन का अभाव अनुभव करने वाला व्यक्ति कुपोषणग्रस्त लोगों से भी अधिक दुर्बल रहता और बीमार पड़ता है।

मानसिक रोगियों में से अधिकांश इसलिए विक्षिप्त स्थिति में जा पहुँचते हैं कि उन्हें आत्मीयता का उत्साहवर्धक आश्वासन न मिल सका। “मिल सका” का एक अर्थ भी है कि दूसरों ने तो उन्हें प्यार किया हो किन्तु वे उसे अनुभव न कर सके हों। परिवार और समाज के साथ व्यक्ति की घनिष्ठता के साथ जकड़े रहने और सद्व्यवहार करने के लिए समाज परम्परा और नियम विधान का इतना प्रभाव नहीं होता जितना कि भाव-संवेदना का। आत्मीयता, उदारता, सद्भावना, सहकारिता भरे व्यवहार का जहां अनुभव होगा मानसिक संतुलन का ठीक तरह बना रहना वहीं सम्भव है। उपेक्षा के वातावरण में रहने वाले अपनी मानसिक स्वस्थता खो बैठते हैं और सही सोचने की क्षमता गँवा बैठते हैं।

अमेरिका के टेपिका-केनास के मानसिक अस्पताल में रोगियों को अर्धनिद्रित किये रहने वाली औषधियाँ, बिजली के झटके जैसे पुराने उपचार यदा-कदा ही प्रयुक्त होते हैं। उनके उपचार में ‘बिन माँग प्यार’ का प्रयोग बताया जाता है। इसे अस्पताल के कर्मचारी तो क्रियान्वित करते ही हैं। उनके कुटुम्बियों एवं मित्रों को भी यही परामर्श दिया जाता है कि वे जब भी मिलें तब रोगी को अपने प्रेम भाव का परिचय दें। दुःख, शिकायतें और चिन्ता उत्पन्न करने वाली बात न कहे।

बाल-विकास की दृष्टि से उनके भोजन, मनोरंजन और शिक्षण को प्रधानता दी जाती है किन्तु इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया जाता है कि उन्हें स्तरीय प्यार की आवश्यकता इससे भी अधिक है। आमतौर से माता, दादी आदि ही बच्चों को अनगढ़ दुलार दे पाती हैं। बाकी तो पूरा परिवार उनकी हरकतों में हानि होती देखते हैं और दुत्कारते, फटकारते इधर से उधर भगा देते हैं। घर के वयस्क व्यक्तियों से उसका परिचय भर होता है। यदाकदा उपहार भले ही मिल जाए पर ऐसा व्यवहार कदाचित ही मिल पाता है जिससे वे उन सब को भी अपना मित्र मान सकें और उनके साथ जो खुल कर बात करने या खेलने का अवसर पा सकें। घरों में यदि दुलार होगा तो ‘खुश करने’ के लिए होगा। बच्चे जो भी माँगेंगे दिया जायगा। जो करेंगे करने दिया जायगा। यह अनगढ़ प्यार है। उससे सुधार परिष्कार का शिक्षण मार्गदर्शन को मात्रा न रहने से परिणाम हानिकारक ही होता है और बच्चे उद्दण्ड असंस्कृत हो जाते हैं। स्तरीय प्यार में बच्चे को आत्मीयता का आभास करने के अतिरिक्त खेलते खिलाते नीति मात्र का अभ्यास कराया जाता है। इस उपलब्धि के सहारे बालक अभावग्रस्त परिस्थितियों में सुविकसित और सुसंस्कृत बन जाते हैं। इसके विपरीत प्यार का अभाव या अनगढ़ दुलार मिलने से वे साधन सम्पन्न घरों में पलने पर भी असामाजिक एवं उच्छृंखल अथवा अविकसित मनःस्थिति से ग्रसित रह जाते हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य-मानसिक संतुलन और क्रमिक विकास के लिए अन्य साधनों की भी आवश्यकता रहती है, पर प्यार भरे वातावरण की उपयोगिता भी कम नहीं है। यदि उसका अभाव बना रहे तो फिर मात्र साधनों के सहारे वास्तविक स्वस्थता, समर्थता एवं सुसंस्कारिता का लाभ मिल ही नहीं सकेगा।

अपराधी प्रकृति के लोगों के उस स्थिति में पहुँचने के कारणों का पता लगाने के लिए संसार के विभिन्न भागों में नीति शास्त्रियों, समाजवेत्ताओं एवं मनोवैज्ञानिकों ने लम्बी शोधों के उपरान्त जो निष्कर्ष निकाले हैं उनमें सब से बड़ा कारण प्यार न पा सकना और प्यार न दे सकना बनाया गया है। स्नेह की संवेदनाओं के आधार पर ही व्यक्ति दूसरों के साथ बँधता है। शिष्टता और उदारता की सत्प्रवृत्तियाँ इसी आधार पर पनपती हैं। भावनात्मक परिपोषण के अभाव में व्यक्ति आत्म केन्द्रित बनता है। उसका स्वभाव संकीर्ण स्वार्थ परायण बनता है फलतः उससे निष्ठुरता की मात्रा बढ़ती चली जाती है। प्रायः ऐसे ही लोग चोरी डकैतों, ठगी, बेईमानी जैसे कुकर्म करते हैं। तनिक से कारणों पर असंतुलित होकर वे किसी पर भी आक्रमण कर बैठते हैं। हत्यायें एवं आत्महत्यायें करते हुए ऐसी ही मनःस्थिति वाले पाये जाते हैं।

दूसरे पर प्यार करना एक सामाजिक दीखने वाला किन्तु वस्तुतः आध्यात्मिक गुण है वह वस्तुओं में सौन्दर्य खोजता है और उससे उभरता है। दूसरों को उदार सद्व्यवहार देकर बदले में सम्मान और सहकार पाता है। अपने प्रति प्यार करने के उपयुक्त सद्गुण बढ़ाता और श्रेय सहायक सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहता है। समाज के प्रति प्यार को देश-भक्ति, लोक-साधना आदि नामों में पुकारते हैं। आदर्शों के प्रति किये जाने वाले प्यार को देवत्व कहते हैं। ईश्वर के प्रति प्यार विकसित करने वाले जीवन मुक्त बनते हैं। लक्ष्य के प्यार करने वाले परिश्रम करते और अभीष्ट सफलता के लक्ष्य तक जा पहुँचते हैं। जिसे इनमें किसी के लिए प्यार नहीं वे उच्छृंखल आवारागर्दी में भटकते और पतन तथा पराभव की दुर्गति की ठोकरें खाते हैं। स्वयं दुःख पाते और दूसरों को दुःख देते हुए विदा होते हैं।

नृतत्व विज्ञानी डॉ. पावर्ट अपनी पुस्तक प्रेम के प्रयोग में अनेक उदाहरण देते हुए सिद्ध किया है कि सद्भाव का परिचय पाकर अविकसितों को खिलने-अस्वस्थों को बलिष्ठ बनने और विक्षिप्तों को पुनः सामान्य स्थिति में लौटने का अवसर जिस तरह इस प्रयोग से मिलता है उतना और किसी प्रकार नहीं। वे अपराधी और उच्छृंखलों को भी सामान्य नागरिक बनाने का इस प्रक्रिया को अपनाने पर अत्यधिक सफलता मिलने का दावा करते हैं। उनके कथनानुसार खंडित व्यक्तित्व और कुछ नहीं प्रेम का अभाव सहन करने की प्रतिक्रिया मात्र है। यदि सद्-व्यवहार पाने और देने का सिलसिला चलता रहे तो न तो पिछड़ेपन पल्ले बंधेगा और न असफल अपमानित जीवन जीने की आवश्यकता पड़ेगी। हितैषियों की ही यह जिम्मेदारी है कि वे अपने प्रिय पात्र को समुचित स्नेह और सम्मान प्रदान करते रहें।

प्यार-आत्मा की भूख और प्यास है उसके बिना अन्तःकरण की पुष्टि और तृप्ति हो ही नहीं सकती। कुशलता, क्षमता और सफलता तो पुरुषार्थ के बल पर भी पाई कमाई जा सकती है, पर व्यक्तित्व का सुसंस्कृत होना प्यार की सच्चाई और गहराई पर ही निर्भर रहता है। यहाँ एक भारी भूल होती रहती है कि लोग पाने का उद्देश्य लेकर प्यार करते हैं जबकि उसमें आदि में अन्त तक देना ही देना पड़ता है। बदले में तो केवल आदर्शवादिता के निर्वाह का आत्मसंतोष मात्र मिलता है।

हेरी ओवर स्टेट कहते थे-”प्यार करने का तात्पर्य यह नहीं है कि प्रिय पात्र पर हमारा अधिकार हो गया और उसे मनमर्जी के अनुसार चलाने के लिए बाधित किया जायगा। अधिकार थोपने और वशवर्ती बनाये रखने का लाभ सोच कर जो दिलचस्पी लेते हैं और उसे प्यार करते हैं वे वस्तुतः इस महान शब्द का न तो अर्थ समझते हैं और न उपयोग।”

दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति कहते थे। ‘यह कैसी विडम्बना है कि हम प्यार करते नहीं- मात्र पाना चाहते हैं। मनःशास्त्री डीएरिक फ्रांस ने लिखा है-प्यार करने का अर्थ उतना ही है कि प्रिय पात्र को समुन्नत बनाने के लिए अधिकाधिक योगदान करना।

न्यूमन हर्बर्ट के अनुसार किसी के सौन्दर्य, प्रतिभा, कौशल आदि विशेषताओं के प्रति आकर्षित होना उन गुणों की स्वीकृति मात्र है प्यार नहीं। आकर्षण घटने पर दिलचस्पी घटती है और वह तथाकथित प्यार भी बादलों की छांह की तरह पलायन कर जाता है।

मनोविज्ञानी मार्टिन हेरी ने सच ही कहा है कि लोग अपने आप से प्यार करना सीख ले तो कितने ही अन्य लोगों का वजन बहुत हलका हो सकता है। रुग्णता, दरिद्रता, दुष्टता, मूर्खता आदि के कारण मनुष्य स्वयं खिन्न रहता और विपन्न बनता है। चिकित्सक, अर्थशास्त्री, पुलिस कर्मचारी, राजनेता आदि कितने ही वर्ग के लोक सेवी वर्ग इन खंडित व्यक्तित्वों के कारण उत्पन्न होने वाली विडम्बनाओं के समाधान में ही उलझे रहते हैं। उनके कारण समाज को अनेक दृष्टि से अनेक प्रकार की हानियाँ सहन करनी पड़ती हैं। व्यक्ति यदि आत्म तिरस्कार करना छोड़ दे तो अपने प्रति किया गया प्यार विकसित होते-होते विश्वव्यापी बन सकता है और उससे सभी का हित साधन हो सकता है।

दूसरों को देने के लिए यों हर मनुष्य के पास कुछ अधिक नहीं बचता। इतने पर भी अन्तःकरण में पाई जाने वाली प्यार भरी भाव संवेदना को यदि सघन आत्मीयता के साथ बखेरा जा सके तो यह देव सम्पदा घटेगी नहीं बढ़ती रहेगी। प्यार का उद्भव और उपयोग इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि उतने में ही सरसता और सफलता का दुहरा उद्देश्य पूरा हो सकता है। संसार के उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रेम सम्पदा का अभिवर्धन अन्य सभी प्रकार की आवश्यकताओं की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।


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