विस्तार को नहीं स्तर को महत्व दिया जाय।

October 1978

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सामान्य दीखने वाला मनुष्य कितना विलक्षण है उसको दृढ़ता और सुसंस्कारिता के आधार पर नापा जा सकता है। यों उसमें सहज विलक्षणताएँ भी कम नहीं। यह कमी जन्मजात रूप से अनायास ही उभरती है, कभी प्रयत्नपूर्वक विकसित कर ली जाती है। यह कौतूहल बढ़ाती है और बताती कि साधारण के भीतर कितनी असाधारण सम्भावनाएँ विद्यमान हैं।

‘संख्या नहीं स्तर’ यह दृष्टि उपयोगी और सराहनीय है। काम थोड़ा करें, पर उसमें मनोयोग और कौशल का सारा समावेश किया जाय और उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाया जाय। ऐसा करने से वह छोटा दीखने वाला या थोड़ा लगने वाला काम ही कर्त्ता की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला और अधिक लाभ दे सकने वाला बन सकता है।

इसके विपरीत यदि संख्या वृद्धि एवं कलेवर विस्तार को महत्व दिया जाता रहा, स्तर का ध्यान न रखा गया तो वह बढ़ा हुआ विस्तार हितकर होने की अपेक्षा कष्टकर ही सिद्ध होता है। सिर पर लदा हुआ भार जितने परिमाण में अधिक होता है उतना ही वहनकर्त्ता को अधिक कष्ट उठाना पड़ेगा, भारी शरीर वाले मोटे दीखने वाले व्यक्ति हर दृष्टि से घाटे में रहते हैं। बढ़ा हुआ निरर्थक मांस क्रिया शक्ति को कुण्ठित करने और रुग्णता उत्पन्न करने के अतिरिक्त और किसी काम नहीं आता।

रूस के यूक्रेन क्षेत्र में ओडिसा गाँव का एक आठ वर्षीय छात्र संसार भर के बालकों में अपनी विशालता का कीर्तिमान स्थापित किये हुए है। नाम विट्या, ऊँचाई पाँच फुट, वजन 150 पौण्ड। आठ वर्ष की आयु में इतना विस्तार आश्चर्यजनक है।

इस व्यक्ति की आर्थिक स्थिति दयनीय ही बनी रही वह उतना उपार्जन भी न कर पाता था, जितना कि सामान्य व्यक्ति कर लेते हैं। कौतुकी दर्शकों की व्यंग उपहास करने वाली भीड़ से उसे कभी कोई लाभ नहीं हुआ वरन् उस जमघट से उसका समय ही बर्बाद होता रहा।

ऊँचाई अधिक होने से उनकी छाया का लाभ उतनी अच्छी तरह नहीं मिल पाता जितना कि सामान्य वृक्षों से काम चलता है। उनके फल-फूल भी निरर्थक होते हैं। लकड़ी काटने का साहस भी इतने ऊँचे चढ़कर कौन करेगा? यह पेड़ दीर्घजीवी तो होते हैं, पर जितनी जमीन घेरते हैं उतनी का किराया भी वापिस कर सकने जितनी उनकी उपयोगिता नहीं होती।

बहुलता का विस्तार कौतूहल भर बढ़ता है। भिन्नताएँ विचित्र तो लगती हैं, पर उनसे परेशानी ही बढ़ती है। अपने आज के संसार में 3064 भाषाएँ बोली जाती हैं। इस बहुलता ने मनुष्य की क्या सेवा की? यदि संख्या थोड़ी होती तो क्या हर्ज था? सच तो यह है कि थोड़ी भाषाएँ होने से ज्ञान के विस्तार में सहायता मिलती और मनुष्यों के बीच आदान-प्रदान का रास्ता सरल होता।

इन दिनों संसार भर में छोटे-बड़े 90 हजार मजहब हैं। इस सम्प्रदायों की कटीली घास अधिक भूमि पर छाई हुई तो दीखती है, पर उससे रास्ता चलने वाले को अनुयायियों को क्या लाभ मिलता है? अनेक रास्ते बना देने से मुसाफिर को भटकने की कठिनाई रहेगी। सीधा रास्ता एक दो ही हों तो अगणित टूटी-फूटी पगडंडियाँ खड़ी कर देने की तुलना में अधिक सुविधाजनक रहेगा।

अलग-अलग मन्दिर बनाने की प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। साधन रहित कितने ही देवालय बनते और अपनी दयनीय दरिद्रता का परिचय देते हुए कुरुचि और अश्रद्धा उपजाते रहते हैं। यह संख्या विस्तार न बड़े और थोड़े से ही साधन सम्पन्न धर्म मन्दिर सुनियोजित उद्देश्य लेकर काम करें तो वे ईसाई मिशन के गिरजाघरों की तरह अपनी उपयोगिता सिद्ध कर सकते हैं।

विस्तार की गरिमा सहज ही समझी जा सकती है, पर यदि प्रखरता का अभाव हो तो उस विशाल कलेवर को आदिम काल के दैत्याकार सरीसृपों के समतुल्य ही माना जायगा। जिसे एक नई जाति के भेड़िये ने उन सभी को कतरव्यौंत करके रख दिया। प्रशंसा प्रखरता की है विस्तार तो कौतूहल बढ़ाने भर के काम आता है।

अपना भारत भूमि की दृष्टि से ब्रिटेन से 14 गुना जापान से 9 गुना बड़ा है। योरोप के विकसित समझे जाने वाले सभी देशों का क्षेत्रफल जितना होता है उसकी तुलना में भी भारत का विस्तार अधिक है। 400 करोड़ जनसंख्या वाले विश्व में 60 करोड़ से अधिक लोगों का भारत प्रायः छठा भाग है। संसार के विकसित अविकसित निवासियों में से हर छह के पीछे एक भारतीय की गणना की जा सकती है। संख्या और भूमि के विस्तार की तुलना में यदि अपनी प्रखरता भी बढ़ी-चढ़ी रही होती तो निश्चय ही उसे अपने आप में अति बलिष्ठ होने और दूसरों की प्रचुर सहायता कर सकने का श्रेय वैसा ही मिला होता जैसा कि अतीत में भारत के भूमि पुत्रों को मिलता रहा है।

संख्या और विस्तार को सौभाग्य का चिह्न कभी माना जाता रहा है अब तो बड़े परिवार एक प्रकार से निग्रह और असंतोष के अखाड़े ही बने दीखते हैं। समझा और समझाया जा रहा है कि परिवार छोटे रखे जायं ताकि उनके स्तर उठाने के प्रयासों में अधिक सफलता मिल सके।

अधिक धनी होना अन्य लोगों को चमत्कृत कर सकता है, पर जिन पर वह लदान लदा रहता है वे विद्वेषी, चिन्ताओं और दुर्व्यसनों से घिरते ही चले जाते हैं। इस कुचक्र में शारीरिक आरोग्य, मानसिक सन्तुलन, पारिवारिक सद्भाव भी गँवा बैठते हैं। लोभ की ललक बढ़ते जाने से बहुत बार वे अवाँछनीय रीति से कमाई करने लगते हैं और लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। अधिक धन का होना आवश्यक नहीं। आवश्यक यह है कि नीति से कमाया जाय और श्रेष्ठ प्रयोजनों के लिए उसका सदुपयोग किया जाय। ऐसा धन थोड़ी मात्रा में होने पर भी उपार्जनकर्त्ता को सुख और श्रेय प्रदान करता है। हमें विस्तार का नहीं स्तर का ही अधिक ध्यान रखना चाहिए।


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