समर्थक सहयोगी का पातक

October 1978

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पातक केवल वे ही नहीं होते जो अपने शरीर से किये गये हैं। कुकर्मकर्ताओं को सहयोग, परामर्श देना, उनके साथ सम्बन्ध रखना, समर्थन करना भी प्रकारान्तर से उस पातक में भागीदार होने जैसा ही है। दुष्टता एकाकी उतनी नहीं बन पड़ती, जितनी कि इस विश्वास के कारण होती है कि हमारे कितने ही सहयोगी मौजूद हैं। ऐसे लोगों को यदि यह आभास हो जाय कि हमारा समर्थनकर्ता कोई नहीं है, किसी से सहयोग की आशा नहीं है। तो उसकी हिम्मत आधी टूट जाती है। अन्ततः पूरा सहयोग भले ही न मिले, पर वाणी के सद्भाव प्रकट करने पर भी दुष्ट उसका अनुमान यही लगा लेते है कि अमुक व्यक्ति हमारा साथी है। इतने भर से उनके हौसले बढ़ जाते हैं और दूनी हिम्मत से अपना कुकृत्य करते हैं। हौसला बढ़ाना भी एक प्रकार से समर्थन ही है। इसलिए वाणी से सत्कार करना तथा साधारण व्यवहार के अतिरिक्त किसी प्रकार की घनिष्ठता बढ़ाना भी स्वयं पाप कर्म करने जैसा पातक हो जाता है। ऐसे लोग भी प्रायश्चित्त करें ऐसा शास्त्र विधान है।

यो येन पतितेनैषां संसर्ग याति मानवः। स तस्यैव व्रतं कुर्यात् संसर्गस्य विशुद्धये॥

-हारीत

जो जिस पतित का सहायक समर्थक रहा हो उसे उस अपराधी जैसा प्रायश्चित्त करना चाहिए।

आसनांच्छयनाद्यानात्संभाषण सह भोजनात्। संक्रामन्तीह पापानि तैलबिंदुरिवाँभसि॥

-पाराशर

पतित मनुष्य का साथ देने, उसके साथ सहयोग रखने से भी पाप उस सम्पर्ककर्ता पर चढ़ जाता है जैसे तेल की बूँदें समूचे जल स्तर पर फैल जाती हैं।

यो येन पतिते नैषां संसर्ग याति मानवः। एतस्यैव व्रतं कुर्यात् तत्संसर्ग विशुद्धये। पतितेन तु संस्पर्श लोभेन कुरुते नरः। स कृत्यायनोदार्यं तस्यैव व्रत माचरेत्।

-उशनन्न स्मृति

जो जिस पतित का सहयोग समर्थन करता है-सम्पर्क में आता है। वह उसी पाप का भागी बन जाता है। लोभवश ऐसा करने वाले भी उसी प्रकार प्रायश्चित्त के अधिकारी हैं।

कानूनी प्रक्रिया में भी अपराधी की हिम्मत बढ़ाना अपराध माना गया है और उसके लिए भी समान रूप से सजा का विधान रखा गया है किन्तु इस प्रक्रिया में अनेक बार प्रभाव के कारण राजदंड से लोग बच निकलते हैं इसलिये अपने यहाँ सामाजिक बहिष्कार की परम्परा अपनाई गई थी। अर्थात् समीपवर्ती कुटुम्बी पड़ोसी और ग्रामवासी जो भी कहीं बुराई पनपती देखें वह बहिष्कार की नीति अपनाकर अपराधी का मनोबल तोड़ें आज यह परम्परा विश्रृंखलित हो गई है। इसे एक प्रकार से अनैतिकता के विरुद्ध आवाज न उठाने का सामूहिक पातक कहना चाहिये। उससे मुक्त होना हो तो अनैतिक आचरण का डटकर प्रतिरोध करने की नीति हर किसी को अपनानी चाहिये।

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