मानवी सामर्थ्य और प्रकृति से भी बृहत्तर शक्ति

October 1978

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एक समय था जब क्यूबा में रहने वाला सेनर ऐवेलिनो पेरेज नामक एक व्यक्ति व्यक्तियों और वैज्ञानिकों के आकर्षण और शोध का बहुचर्चित विषय बन गया था। पेरेज की यह विशेषता थी कि वह अपनी इच्छानुसार अपनी एक आँख या एक साथ दोनों आँखों की पुतलियों से दो इंच बाहर निकाल लेता था और उन्हें वापस यथा स्थान बैठा लेता था। इससे उसकी देखने की शक्ति में किसी भी तरह का दबाव नहीं पड़ता था।

यौगिक अभ्यास और प्राणायाम द्वारा शरीर और प्राणों पर नियन्त्रण करके उन्हें मनमाने ढंग से मोड़ने-मरोड़ने के यौगिक प्रदर्शन हमारे देश में कोई अनोखी घटनायें नहीं मानी जाती। यहाँ का प्रायः सामान्य नागरिक भी इस तरह के चमत्कारों से परिचित मिलेगा। कई शिक्षित लोग इसे उनका अन्ध-विश्वास भी मान लेते हैं, पर जिन्होंने भी योग साहित्य का अध्ययन किया होगा, शरीरस्थ, चक्रों, गुच्छकों, उपलब्धियों का जिन्हें थोड़ा भी विज्ञान ज्ञात होगा वे इस तरह के आश्चर्यजनक लगने वाले प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि भली प्रकार अनुभव कर सकते हैं। अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (ग्लैण्ड्स) के बारे में आधुनिक शरीर शास्त्रियों ने अब तक जो जानकारियाँ प्राप्त की हैं उनमें से भी यह सिद्ध हो गया है कि यदि इन स्रावों (हारमोन्स) पर पूरी तरह नियन्त्रण कर लेना मनुष्य के लिए सम्भव हुआ तो एक दिन वह आयेगा जब हनुमान जी की तरह मनुष्य एक क्षण में ‘मसक समान’ और दूसरे क्षण ‘शत योजन मुख सुरसा’ बन जाना बिलकुल साधारण बात हो जायेगी।

यह सब मनुष्य की प्रचण्ड इच्छा शक्ति, संकल्प और इनके द्वारा विकसित अभ्यासों की उपलब्धियाँ मात्र हैं। यद्यपि डॉक्टर लोग अब भी यह नहीं समझ सके कि पेरेज ने इस तरह आँख की पेशियों पर नियन्त्रण कैसे प्राप्त कर लिया जब कि यह मात्र नियन्त्रण का कौतुक है। पेरेज की आँखें बचपन में बड़ी कमजोर थीं, उसने अपने ही आप आँखों को इधर-उधर घुमाकर व्यायाम प्रारम्भ किया और यह क्षमता विकसित कर ली। इच्छा शक्ति सचमुच एक महान दैत्य है यदि वह अपनी पर आ जाये, संकल्प रूप धारण कर ले तो मनुष्य ऐसे-ऐसे एक नहीं लाख चमत्कार दिखाई देने वाले परिणाम प्रस्तुत कर सकता है। किसी व्यक्ति का स्वस्थ होना, किसी का जीवन भर रोगी बने रहना, किसी का सफलता के उच्च शिखर पर पहुँच जाना और दूसरे का जीवन भर परमुखापेक्षी बने रहना उस मनोबल के ही प्रतिफल हैं, जो मनुष्य को कुछ से कुछ बना देते हैं।

कन्या में सम्बरू नामक एक व्यक्ति ने निश्चय कर लिया कि वह जिन्दगी भर कभी बैठेगा नहीं और सचमुच ही अब वह लगभग 58 वर्ष का होने को आया, 28 वर्ष का था तब उसने यह प्रतिज्ञा की थी अब तक 30 वर्ष हो गये, खाना, पीना, टट्टी पेशाब सब उसने खड़े ही खड़े किया। लेटने या खड़े रहने की प्रतिज्ञा मृत्यु पर्यन्त निबाहने की आन अब उसकी सामान्य आदत बन गई है जबकि सामान्य व्यक्तियों के लिए उसकी चर्चा भी कम विस्मयकारक नहीं होगी। बुफेली अमेरिका के टाममीलिफ के एक भी हाथ नहीं था, पर वह विश्व का माना हुआ गोला चैम्पियन था उसने 18 बार चैम्पियनशिप जीती। योगी हरिदास अपनी जीभ से भ्रू-मध्य का स्पर्श कर लेते थे। अफ्रीका के सार्स जिन्जेस ने अपने दोनों ओठ इतने बढ़ा लिए थे कि वह उसकी पत्नी के लिए पूरी तकिया का काम देते थे। ओठों के इस राक्षसी आकार के कारण जिन्जेस न तो कड़ा खाना खा सकता था, न बोल सकता था। ऊपर से वह कहीं भाग न जाये इस भय से उसकी पत्नी उसके ओठों को तकिया बनाकर सोती थी ताकि वह कहीं खिसकने का प्रयास करे तो तुरन्त नियन्त्रित किया जा सके।

अच्छे हों या बुरे परिणाम संकल्प शक्ति को जुटाकर मनुष्य अति मानव बन सकता है इसमें सन्देह नहीं। इतना होने पर भी उसे सर्वशक्तिमान नहीं कह सकते। इसलिए कि उसकी इच्छा और माँग के विरुद्ध अनुवांशिकी, भौतिकी और पराभौतिकी क्षेत्र में ऐसी सैकड़ों घटनाएँ घटती रहती हैं, जिनका नियन्त्रण तो दूर वह उस रहस्य तक को नहीं जान पाता कि उसका कारण क्या है? जबकि निसर्ग में उस तरह का स्वयं में कोई सुनिश्चित सिद्धान्त नहीं होता। उदाहरण के लिये 1829 में लन्दन में चार्ल्सवर्थ नामक एक बच्चे ने जन्म लिया। सामान्यतः 4 वर्ष तक की आयु ऐसी होती है जब बच्चा अच्छी तरह बोल भी नहीं पाता किन्तु चार्ल्स वर्थ ने अनुवांशिकी के सारे वैज्ञानिक नियमों को उठाकर एक ओर फेंक दिया। चार वर्ष में ही वह पूर्ण वयस्क हो गया। उसके मूँछ, दाढ़ी भी निकल आई। उसके व्यवहार बातचीत में भी पूरी तरह बुजुर्गपन टपकने लगा था। सात वर्ष की आयु में उसके सम्पूर्ण बाल सफेद हो गये और इसी वर्ष उसकी मृत्यु हो गई।

अनुवांशिकी का सिद्धान्त यह है। बच्चे में यह तो हो सकता है कि उसके माता-पिता के न होकर बाबा, नाना, परबाबा, परनाना, दादी, परदादी, नानी, परनानी अथवा इससे ऊपर वहाँ तक जहाँ से उस वंश के आविर्भाव का महापुरुष पहुँचता है, भले ही वह ब्रह्माजी ही क्यों न हों, के आनुवांशिकीय लक्षण अवश्य होने चाहिए जबकि विश्व इतिहास में यह अपनी तरह का एकमेव उदाहरण है जो मनुष्य की संकल्प शक्ति से भी परे किसी विधेय-सत्ता की ओर संकेत करता है।

एक ही रंग रूप आकृति के एक से अधिक व्यक्ति हो सकते हैं, पर उनमें ऊँचाई, निचाई, तिल, मस्से, नाक, भौं, दाँत, माथा, बाल कहीं न कहीं कोई न कोई ऐसा अन्तर अवश्य रह जाता है जिससे उनकी पहचान सरल हो जाती है किन्तु सन् 1895 में न्यूयार्क में एक साथ एक ही मुहल्ले में हेनरी, थामस तथा वेर्नन नाम के तीन ऐसे व्यक्ति निकल आये जिनकी पहचान स्वयं उनके माता, पिता, भाई, बहिनों के लिए दुःसाध्य हो गई। कई बार थामस को घर पहुँचने में देर हो जाती तो उसकी माँ ढूँढ़ने निकलती और सामने पड़ जाता हेनरी तो वह उसी की पिटाई करते घर ले जाती। बेचारा हेनरी कहता भी कि मैं हेनरी हूँ, पर माँ उसकी आवाज तो पहचानती थी फिर वह कैसे धोखा खा सकती थी? पर सचमुच में खाती वह धोखा ही थी। उन तीनों की आवाज भी एक जैसी थी। आवाजों से भी उन्हें पहचानना कठिन था।

अब तक वे काफी बड़े हो गये थे। लोगों ने समझा अब दाढ़ी, मूँछ में तो कुछ फर्क आयेगा ही, पर न जाने किस सत्ता का निर्माण है यह जो मनुष्य की सारी कल्पनाओं को भी लाँघकर कल्पनातीत सृष्टि का सृजन करता रहता है। तीनों की मूँछ, दाढ़ी भी एक ही तरह की थी। अन्त में दाढ़ी, मूँछों, दाढ़ी भी एक ही तरह की थी। अन्त में दाढ़ी, मूँछों की आकृति भिन्न-भिन्न रखने का उन तीनों ने निश्चय किया हेनरी ठोढ़ी के नीचे के बाल तो साफ रखता था, पर दोनों गालों के नीचे दाढ़ी समानान्तर लटकती थी उन्हें मूँछ इस तरह जोड़ती थी कि दाढ़ी, मूँछ का आकार अँग्रेजी के एच की तरह बन जाता था। उसके नाम का पहला अक्षर भी यही था। थामस मूँछों के अतिरिक्त केवल ठोढ़ी के नीचे मुसलिम काट दाढ़ी रखता था दोनों गाल के बाल साफ रखने से उसकी मूँछ और दाढ़ी की आकृति अँग्रेजी के ‘टी’ वर्ण के आकार की हो गई और इस तरह उसकी पहचान सम्भव हुई। बर्नन ने तीसरी युक्ति निकाली उसने अपनी मूँछें तो सफाचट करा ली और दाढ़ी के बालों की इस तरह कटिंग कराता कि वह दोनों कनपटियों से चलकर ठोढ़ी में अँग्रेजी के वर्ण ‘वी’ कीसी आकृति बना देती। इस तरह मानवीय बुद्धि ने एक समस्या का निराकरण तो कर लिया, पर लगता है वह उस रहस्य का कुछ महत्व ही नहीं समझता कि ऐसा किस नियम के अन्तर्गत होता है कि भिन्न-भिन्न परिस्थितियों, वातावरण, माता-पिता, आहार-विहार के भी एक-सी शक्ल के वह भी इतने साम्य गुणों वाले कि उनकी पहचान तक न हो सके किसी बहुत ही कुशल कलाकार की तूलिका का ही चमत्कार हो सकता है। उस पूर्ण परात्पर रचनाकार को जानना ही मानव जीवन का लक्ष्य बताया गया है, पर मनुष्य तो अपने सांसारिक बखेड़ों में इतना उलझ गया है कि इस तरह की दुर्लभ घटनाएँ देखकर भी उसका विवेक जागृत नहीं होता।

इस तरह के विलक्षण अपवाद मनुष्य ही नहीं जीव जन्तुओं में भी मिलने लगें तो विकासवाद के सिद्धान्त को एक दूसरा प्रश्न चिन्ह लग जाता है और उसके समर्थकों के दावों पर सन्देह होने लगता है कहीं उन्होंने उपहास में ही तो दर्शन को विकृत नहीं कर डाला।

ऐली (इंग्लैण्ड) में एच.जी बाय के घर मुर्गी ने ऐसा बच्चा दिया जिसके चार पैर थे। तमाम उम्र इस बच्चे ने यों ही सामान्य स्थिति में बिताई। प्रजनन क्रियाएँ भी उसमें सम्मिलित थीं, पर उसकी सन्तानों में कहीं कोई इस तरह का अद्भुत देखने को नहीं मिला। मैन चेस्टर सागर में कैप्टन जे.टी. बैनेट ने एक ऐसा कछुआ पकड़ा जिसके दो सिर थे। यह कछुआ उन्होंने अपनी मृत्यु पर्यन्त पालकर रखा। ग्रोन्सवर्ग के वाल्टर रडिल मैन के पास एक ऐसी भेड़ थी जिसके सारे शरीर में बाल उगते थे किन्तु पीठ के बिलकुल ऊपरी हिस्से में विधिवत घास उगा करती थी। यह एक विलक्षण संरचना थी जिसका कोई भी अनुवांशिकी आधार, शारीरिक त्रुटि या कारण ढूँढ़ पाना आज तक भी वैज्ञानिकों के लिए सम्भव नहीं हो पाया। यह वैसा ही कठिन कार्य है जैसे घड़े में जमाये दूध को बिलौने वाला रई से समुद्र मंथन की बात सोची जाये। सृष्टि जितनी विराट है मानवीय ज्ञान की सीमाएँ उतनी ही नगण्य है अतएव सुनिश्चित अनुभूति प्राप्त न होने तक किसी को भी उस परम सत्ता पर अविश्वास नहीं करना चाहिए जिसकी शक्ति से ही इस विलक्षण निर्माण की प्रक्रिया चलती है।

हस्तक्षेप प्राणि-सत्ता तक ही सीमित नहीं है, लगता है प्रकृति को भी इच्छानुसार बनाने और बदलने की शक्ति का कोई और उद्गम है। स्काटलैण्ड के डंकल्स नामक स्थान में 13 फुट लम्बा 7 फुट चौड़ा तथा 5 फुट ऊँचा एक पत्थर तीन छोटे-छोटे पत्थरों पर इस तरह टिका है मानो कोई भीमकाय कछुआ चल पड़ने की तैयारी में हो, पुरातत्व वेत्ताओं के अनुसार यह पत्थर पिछले बीस लाख वर्षों से इसी तरह टिका हुआ है जबकि इस बीच आये अधड़ तूफानों से सैकड़ों पहाड़ ढहा दिये बिना किसी गणितीय आधार के ही यह तीन छोटे सिपाही खड़े अपने महान् सम्राट की अभ्यर्थना करते जान पड़ते हैं।

एण्डले फ्रान्स में भी एक इसी तरह का बोल्डर (पत्थर) इस तरह नन्हें से आधार पर नाचते हुए लट्टू की-सी आकृति में खड़ा है, मानो उसे किसी विद्युत चुम्बकीय शक्ति ने चारों ओर से साध रखा हो। वैज्ञानिक उस बल की सब तरह जाँच कर चुके, पर वे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। विचित्र बात यह है कि वह पत्थर गजब की भविष्य वाणी भी करता है। मौसम साफ रहेगा तो वह अपनी उसी धुरी पर चुपचाप खड़ा रहेगा, किन्तु तूफान आने को हो तो वह धीरे-धीरे हिल-डुलकर उसकी सूचना दे देता है उस स्थिति में भी उसका सन्तुलन यथावत् रहता है जबकि यदि कोई दूसरा पत्थर हो तो हाथ के रत्तीभर इशारे से सैकड़ों फिट दूर जा लुढ़क सकता है, पर उसे जोर देकर भी हटाया नहीं जा सका।

भारतीय वेद पुराण और दर्शन कहते हैं उसने अपनी इच्छा शक्ति को मुखर करने के उद्देश्य से सृष्टि की रचना की। अनेक-अनेक जीव योनियों की संरचना वस्तुतः इच्छाशक्ति का ही संगठन है, सम्भव है उससे सर्वशक्तिमान सत्ता परमात्मा का अस्तित्व सिद्ध न हो, पर इंग्लैण्ड के वाटफोर्ड नामक कस्बे में हुई एक घटना ने यह सिद्ध कर दिया है कि मानवीय इच्छा शक्ति किसी न किसी रूप में एक अति समर्थ सत्ता की ही सन्तान है उसे परमात्मा, विश्वात्मा, ब्रह्म परमेश्वर कुछ भी कहें, वह विचार की ही श्रेणी का कोई श्रेष्ठ तत्व। हुआ यह कि लिड नामक एक व्यक्ति को अंजीर बहुत प्रिय थे। उसकी मृत्यु होने लगी तो उसने कहा, अंजीर ने मुझे जीवन में अत्यन्त तृप्ति प्रदान की है मेरा मन है कि मेरे ताबूत में अंजीर का एक पौधा रखा जाये, मेरी आत्मा उसी से फूटे और इतने फल दे कि हजारों लोग उससे तृप्ति पायें।

ऐसा ही किया गया। लिड को जिस ताबूत में रख कर दफनाया गया उसी में अंजीर का एक नन्हा-सा पौधा भी रख दिया गया। कुछ दिन बात समय के गर्भ में रही, पर न जाने कैसे एक दिन ताबूत में बन्द मिट्टी में दबा हुआ वह अंजीर का पौधा पृथ्वी को फोड़कर ऊपर निकल आया। जैसे-जैसे उसका विकास होता गया वैसे-वैसे कब्र फटती गई और एक दिन वह पूर्ण वृक्ष के रूप में उभर उठा। सचमुच सामान्य अंजीर वृक्षों की अपेक्षा उसमें इतने अधिक, मीठे और बढ़िया अंजीर लगते हैं कि खाने वाला उस वृक्ष की याद अवश्य करता है। उसके अंजीरों पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं रखा गया ताकि लिड की इच्छा की पूर्ति हो सके।

गीता कहती है कि मृत्यु के समय मनुष्य की जो भी इच्छा हो परमात्मा उसे उसी रूप में स्वीकार और पूर्ण करता है। सम्भवतः यह भी उसी का एक उदाहरण हो जो भी हो संसार में कोई ऐसी शक्ति है अवश्य जो मानवीय सामर्थ्य और प्रकृति से भी वृहत्तर है।

इन्हें संयोग नहीं कहा जा सकता क्योंकि इस तरह की और भी घटनाएँ हैं जो मानवीय बुद्धि को प्रकृति में प्रतिघाटित होने का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करती है जिन्हें न तो वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत कहा जा सकता है न प्राकृतिक संयोग। सम्भवतः कोरिया की कोयम नदी “नाक्यवाह्य चट्टान” इस सम्बन्ध में सबसे प्रामाणिक और सृष्टि की सबसे बड़ी आश्चर्यजनक घटना कह सकते हैं। सन् 660 में चीन के बादशाह ने कोरिया पर आक्रमण कर दिया। कोरिया नरेश पाकजे, उनके पुत्र, महामन्त्री, मन्त्री और सचिव आदि सभी बन्दी बना लिए गये और उन्हें चीन भेज दिया गया। किन्तु साम्राज्ञी सहित राजघराने की दूसरी स्त्रियों तथा मन्त्री आदि की 71 (इकहत्तर) स्त्रियों ने केयम नदी के किनारे ढलवाँ बनी इस चट्टान से नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। ज्ञात नहीं मृत्यु के समय इन साध्वी स्त्रियों की इच्छाएँ क्या थी, यह भी अविज्ञात है कि परमात्मा उस घटना को क्यों अमर बनाये रखना चाहता है, पर यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग 1400 वर्ष होने को आये प्रतिवर्ष उस चट्टान पर एक ही नस्ल के केवल मात्र 71 (इकहत्तर) पौधे ही उगते हैं और उनमें 71 फूल लगते हैं। यह सभी इकहत्तर फूल एक ही दिन कली से पुष्प का आकार ग्रहण करते हैं और जब तक खिले रहते हैं सभी इकहत्तर के इकहत्तर। एक दिन वर्ष का, इसी बसन्त ऋतु का वह दिन आता है जिस दिन इन 71 महिलाओं ने सामूहिक जौहर किया था ठीक उसी दिन सभी इकहत्तर फूल एक साथ नदी में गिर जाते हैं। इस दृश्य को देखने और अपनी भाव भरी श्रद्धा समर्पित करने के लिए हजारों लाखों व्यक्ति वहाँ एकत्र होते हैं और यह मानते हैं, सृष्टि में कोई विराट् विचारशील चेतना कार्य अवश्य कर रही है भले ही दृश्य रूप में वह दिखाई न दे।


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