विलुप्त जीव ही नहीं, मनुष्य भी होगा।

October 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

उपयोगी जीवों के प्रति सेवा भावना रखना अनुपयोगी के प्रति उपेक्षा और अनुदार होना मानवीय कृपणता के अतिरिक्त कुछ नहीं। जिस तरह परस्पर व्यवहार में छोटों के प्रति हम सम्वेदनशील होते हैं, अनुपयोगी बड़ों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना रखते हैं उसी प्रकार सभ्यता और प्रगतिशीलता का मापदण्ड यह है कि हम अनुपयोगी जीवों के प्रति भी वैसा ही उदारता की भावना रखें।

वैसे भी प्रकृति से सन्तुलन की दृष्टि से हर जीव उतना ही उपयोगी है जितने कि गाय, बैल, भैंस, घोड़े और गधे। चील, कौवे सड़े-गले मांस की ठिकाने न लगायें तो सारा वातावरण दूषित हो जाये। अनेक बैक्टीरिया कृषि उपज के लिए अत्यधिक लाभदायक होते हैं। कई जीव-जन्तुओं से बहुमूल्य चमड़ा और समूर मिलता है तो अनेक परस्पर एक-दूसरे खाकर ही एक-दूसरे की असह्य बाढ़ को नियन्त्रित कर अन्ततः मानव जीवन के लिए उपयोगिता सिद्ध करते हैं इस दृष्टि से सृष्टि का हर जीव उपयोगी और आवश्यक है। उनकी दुष्टता के प्रति ताड़ना का दृष्टिकोण रखा जाय यहाँ तक उचित है। किन्तु उनके प्रति दुष्टता का व्यवहार मनुष्य जैसे भावनाशील प्राणी के लिए कदापि उचित नहीं हो सकता। हमारी बुद्धि प्राणि मात्र के प्रति दया और करुणा की आत्मीयता पूर्ण सम्वेदना से ओत-प्रोत रहे यही मनुष्यता है। मात्र मनुष्य जाति के प्रति विनम्र और कृपालु रहता अपर्याप्त है।

आज देखने में यह आ रहा है कि मनुष्य जाति अपनी बढ़ती हुई मांस भोजी प्रवृत्ति के कारण अन्य जीवों के अंधाधुन्ध वध पर तुल गया है। बहुत से लोग तो शौकिया भी शिकार करते और वन सौन्दर्य को उजाड़ने में अपनी शान समझते हैं यह मानवीय आदर्शों का अपमान नहीं तो और क्या है कि मनुष्य स्वार्थ के लिए दूसरे जीवों का वध करे।

वन्य जीवों का शिकार प्रकृति के सन्तुलन को नष्ट भ्रष्ट करने का एक जघन्य कृत्य ही नहीं हिंसापूर्ण अपराध भी है। फ्रांसीसी दार्शनिक लीब्नित्स कहा करते थे पृथ्वी पर जीवन की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं। मनुष्य रूप में जीवन जागता है, प्राणियों में जीवन स्वप्न देखता है और पेड़ पौधों में सोता है। हिंसा चाहे वह सोते व्यक्ति की की जाये या जागृत की एक ही बात है। सुप्त तुरीय और जागृत चेतना जीवन की विलक्षण गति और महारहस्य है उसे उगते, चलते, उड़ते निहारने का आनन्द ही कुछ और है। हिंसा से तो दर्द ही पैदा होता है जिसमें समान रूप मनुष्य को भागीदार होना ही पड़ता है। साधु वास्वानी का कथन है- हर जीव प्रकृति संगीत का सुर है, हर प्राणी जगत् जननी प्रकृति का प्राण प्रिय पुत्र है उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिये। जीवों को प्यार न करना परमात्मा से प्यार न करने के बराबर है। कोई भी देश सच्चे अर्थों में तब तक स्वतन्त्र नहीं जब तक मनुष्य के छोटे भाई मूक पशु स्वतन्त्र और सुखी न हों।

व्यावहारिक तथा इससे विपरीत देख कर दुःख होना स्वाभाविक है। अन्य जीवधारियों की तुलना में बुद्धिमान और शक्तिशाली होने के कारण सम्भवतः उसे यह भ्रम हो गया है कि मानवेत्तर जीव उसके अनुचर और उपभोग के लिये है इसी से वह उनका निरन्तर उत्पीड़न करने पर तुल गया। आज स्थिति यह है कि अनेक सुन्दर और उपयोगी जीव-जन्तुओं की जातियाँ तो विलुप्त हो गईं, अनेक लुप्तप्राय स्थिति में है। गत शताब्दी तक पिनग्यूनस इम्पैनिस नामक ओक ग्रीनलैण्ड सेंट लारेंस ग्रेट ब्रिटेन से आइसलैण्ड तक उन्मुक्त विचरण करता था। यह एक अच्छा तैराक पक्षी था। दक्षिण स्पेन से लेकर फ्लोरिडा तक का क्षेत्र इसकी क्रीड़ास्थली थी किन्तु न्यूफाउण्ड लैण्ड वासियों ने इसका तीन शताब्दियों तक जघन्य वध किया। 1845 में इसका एक जोड़ा आइसलैण्ड में बचा था उसे भी सर्वभक्षी मानव ने मारकर उदरस्थ कर इस जीवन दीप को ही बुझा दिया अब मात्र उसके कंकाल ही संग्रहालयों में शेष हैं।

हमारी शिक्षा, हमारे संस्कारों में प्राचीन काल में ही इन तथ्यों का समावेश रहा है। प्राचीनकाल में राजकुमारों तक को प्रकृति के सान्निध्य में शिक्षा की व्यवस्था थी उसका अर्थ ही यह था कि उस वातावरण में वे प्रकृति की विशालता को अनुभव करें और अपने को उसी के एक अंग के रूप में देखें। इसी से उस समय की ज्ञान साधना में मानवीयता के उन गुणों का प्रचुर विकास होता था। तब वन्य जीवन राजकीय संरक्षित सम्पदा मानी जाती थी। कौटिल्य ने उनके वध को अपराध मानकर दण्ड की व्यवस्था की थी।

न केवल मनुष्य अपितु मनुष्येत्तर जीव भी प्रकृति की सृजन चेतना के अंग है। भावनात्मक दृष्टि से भी दोनों समान हैं। कबीर की यह उक्ति निःसन्देह सच है :-

साईं के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय। का पर दाया कीजिये कापर निर्दय होय॥

कीड़े हाथी-सभी जीवन के अंग हैं, यह सब दया के पात्र हैं निर्दयता के नहीं। किन्तु व्यवहार में आज हम भारतीय ही कितने पीछे हैं यह इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि आज भी नागालैण्ड में प्रतिदिन औसत 6 शेर मारे जाते हैं। असम के गोपाल पुरा जंगल में 30 वायसन निरर्थक मार दिये जाते हैं, तो राजस्थान में 11 हजार सैंड ग्राउज का शिकार होता है, लोमड़ियाँ, खरगोश, सियारों की प्रतिदिन की शिकार संख्या लाखों में है। मोर प्रतिवर्ष 10 हजार तक मार दिये जाते हैं। वन्य पशुओं का यह विनाश न केवल शर्मनाक अपितु मनुष्य के लिये कलंक की बात है।

इसे सन्तोष की बात भी कह सकते हैं, गौरव की भी। पक्षियों की संख्या विश्व के किसी भी देश की तुलना में भारत में अधिक है। गिद्ध, चील, कौवे आदि कुछ गिने-चुने पक्षियों को छोड़ देश में अनुमानतः 3300 तरह के शाकाहारी पक्षी हैं। धार्मिक भावना के कारण इनका वध न किये जाने के कारण ही अब तक इस सम्पदा को बचाये रहना सम्भव हुआ है आज यह विदेशी मुद्रा कमाने का एक साधन बन गये हैं। आस्ट्रेलिया, डेनमार्क बेल्जियम, पश्चिमी जर्मनी, जापान, स्वीडन आदि देशों में भारतीय पक्षियों की बहुत माँग है। योरोप और अमेरिका के लोग भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर को प्राप्त करने के लिये बड़ी से बड़ी रकम देने को तैयार रहते हैं। प्रसन्नता की बात है कि भारत सरकार ने इनका निर्यात रोक दिया है।

किन्तु तथाकथित आधुनिक सभ्यता और मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के कारण यहाँ भी इनका शिकार होने लगा है। इस निर्दयता के फलस्वरूप योरोपीय नहीं अनेक भारतीय जीव-जन्तु भी अब लुप्तप्राय हो चले। म.प्र. में जहाँ के जंगलों में हजारों की संख्या में शेर, बारहसिंगे और जंगली जैसे विचरण किया करते थे अब केवल 450 शेर बचे हैं। बारहसिंगे मात्र कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में बचे हैं। जंगली भैंसा अब केवल बस्तर जिले में बचा है। काला हिरण अमावस का चन्द्रमा हो गया। गीर सहित शेष देश में कुल 1300 शेर बचे हैं। सोहन चिड़िया जो फसलों के लिये वरदान थी, कीड़े-मकोड़े खाकर फसल की रक्षा करती थी अब लुप्तप्राय हो चली है।

इन दिनों “इकोलॉजी” नामक एक नये विज्ञान का विकास हो रहा है उसके अनुसार मनुष्येत्तर प्राकृतिक जीवों को भी समष्टि चेतना का ही अंग माना गया है। आज वन्य जीवों के विनाश से उत्पन्न हो रही समस्याओं की “इकोलॉजिकल बैलेन्स डिस्टर्व” की संज्ञा देकर समय रहते उसे सुधारने की चेतावनी दी गई है इसमें न केवल वृक्ष वनस्पति अपितु जीवों को भी समान रूप से महत्व दिया गया है। वास्तव में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, दोनों अन्योन्याश्रित हैं। एक के बिना दूसरे की न तो शोभा है न अस्तित्व। इसलिये इन सम्पदा के संरक्षण की सब प्रकार से आवश्यकता है।

अमेरिका के सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री। डॉ. फ्रैंक हिबन ने अपने कुछ साथियों के सहयोग से लुप्तप्राय जीवों के संरक्षण का एक अभियान प्रारम्भ किया है। यह कार्य न्यूमैक्सिको विश्वविद्यालय के तत्वावधान में चल रहा है। अफ्रीका की बारबारी भेड़ें तथा एण्टीलोप साइबेरिया के आइबेक्स कुदूं, ईरान से गैजिल, लाल एल्बुर्ज शिप तथा भारतीय मारखोर यहाँ रखे गये हैं। उनकी सुरक्षा और विकास के सभी प्रबन्ध किये गये हैं। यह सभी जीव यहाँ न केवल भली प्रकार पल रहे हैं। अपितु उन्होंने इस तथ्य को भी झुठला दिया कि जो वस्तु जहाँ की है वहीं रह सकती है। अफ्रीका से यहाँ कुल 50 भेड़ें आई थीं आज उनकी संख्या 5 हजार से भी ऊपर हो गई। प्रकृति के इस सौन्दर्य को यदि लुप्त होने से बचाया जा सके तो मनुष्यों को उसके सर्वांगीण लाभ निश्चित रूप से मिल सकते हैं। इस तरह के प्रयास चलें तो अच्छी बात है, पर शिकार और मांसाहार के लिये तो जीव-वध कभी भी नहीं करना चाहिये तभी इस वन्य सम्पदा की सुरक्षा और प्राकृतिक सन्तुलन बना रह सकता है।

जीव दया को अब योरोपीय देशों में अत्यधिक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है इसके दो जीते जगाते उदाहरण हैं। कनाडा के नगर विक्टोरिया के रोमन कैथोलिक चर्च की मदर सिसीलिया ने एक दिन अपने अहाते में तीन बकरियाँ देखीं, उन्हें जब वे भगाने लगीं तो देखा कि वे बार-बार दीवार से टकरा जाती हैं, बाहर निकलने का दरवाजा उन्हें नहीं मिल रहा था। मदर सिसीलिया ने समीप जाकर देखा तो यह देखकर कि तीनों बकरियाँ अन्धी होने के कारण ठोकरें खा रही हैं उनकी आन्तरिक करुणा उमड़ पड़ी उन्होंने बकरियों को बाड़े में ही रख कर उनके दाने चारे का प्रबंध कर दिया। चर्च अधिकारियों ने इस पर आपत्ति की तो वे बोलीं-‘‘क्या ईसामसीह ने एक नन्हें भेड़ के बच्चे को गोद में उठाकर यह नहीं कहा था जो जितना असहाय है वह उतनी ही करुणा का पात्र है? चर्च के अधिकारी इस बात का प्रतिवाद न कर सके उल्टे मदर सिसीलिया की करुणा से वे भी अत्यधिक प्रभावित हो उठे। सिसीलिया को इसके लिये न केवल समूचे कनाडा अपितु सम्पूर्ण योरोप से असीम सराहना श्रद्धा मिली। इसके लिये लोगों ने स्वयं ही कोष स्थापित करने का सुझाव दिया। देखते ही देखते एक बड़ी स्थिर पूँजी जमा हो गई, जिसके सहारे अब वहाँ न केवल बकरियाँ अपितु अपंग घोड़ों, अपाहिज बिल्लियों और अनाश्रित कुत्तों का एक ऐसा परिवार एकत्र हो गया है जिससे लोगों को जीव दया की प्रेरणा मिलती है। यह दवा की भावना का विकास मनुष्य को उसकी देहशक्ति बुद्धि से आत्मीय गुणों और संस्कारों की ओर ले जाती है जो इस युग की एक अदम्य आकांक्षा है।

इसी तरह का एक उदाहरण उत्तरी वेल्स (ब्रिटेन) की कोलविन खाड़ी में बनी आल्फ्रेड होरोविन की पशुशाला है, जिसमें विभिन्न जाति के लगभग 500 जीवों को आश्रय मिला है। आल्फ्रेड न केवल उनके लिये भोजन का प्रबन्ध करते हैं अपितु उन्हें अपनी सन्तान की तरह स्नेह और प्यार भी प्रदान करते हैं।

भारतवर्ष में ऋषिकेश के समीप गान्धी जी की शिष्या मीरा बहन का स्थापित पशुलोक भी इसी श्रेणी का एक जीव दया का उदाहरण है किन्तु यह अपवाद जैसे हैं। गौतम, गान्धी और भगवान महावीर का यह देश इससे भी व्यापक दृष्टिकोण की अपेक्षा रखता है जिसमें मानव और अन्य प्राणी एक जीव-समुदाय के रूप में बसर न करें तो न सही किन्तु उनका शोषण और उत्पीड़न तो नहीं ही किया जाना चाहिये। यह सभ्यता के नाम पर कलंक है कि मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए इन निरीह प्राणियों का वध करे, उनसे अधिक काम ले तथा अनुपयोगी समझ कर उनकी उपेक्षा करे।

करुणा में प्रकाश की तरह की उत्पादकता है। प्रकाश से हमें वस्तु के यथार्थ और अयथार्थ का अन्तर समझ में आता है तो चेतन-जगत में जो कुछ भी सुन्दर और सुसज्जित है, वह सब प्रकाश-कणों की देन है। इसी तरह जहाँ भी करुणा के दृश्य उदय होंगे वहाँ स्वार्थ और हिंसा के दुष्परिणाम प्रत्यक्ष समझ में आने लगेंगे। साथ ही मनुष्य जीवन की सुन्दरता और सुसज्जा मुखरित होगी जो मानवीय प्रसन्नता के प्रधान आधार हैं। करुणा सदा छोटों के प्रति अपने भावनाशील व्यवहार से अभिव्यक्त होती है अतएव यह आवश्यक है कि उसका अभ्यास जीव जगत से प्रारम्भ करें तो उसका प्रतिफल उत्पादकता के सिद्धान्त पर मानव समुदाय में स्वयं परिलक्षित होने लगेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118