भगवान बुद्ध-उनका मार्ग और व्यक्तित्व

October 1978

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बुद्ध को क्या कहा जा सकता है? हम उन्हें देवता तो नहीं कह सकते, क्योंकि देवताओं में राग-द्वेष, सुख विलास होता है, जिससे बुद्ध विमुक्त थे और ऊपर उठे हुए थे। सम्पूर्ण मानवीय दुर्बलताओं और असंगतियों से अतीत होने के कारण बुद्ध एक तरह ‘मनुष्य’ भी नहीं कहे जा सकते। हम उन्हें केवल ‘बुद्ध’ ही कह सकते हैं। प्रबुद्ध मानव, आश्चर्यमय पुरुष।

बुद्ध एक योगी के रूप में ध्यान करते थे। बुद्ध संगीत की प्रशंसा भी कर सकते थे और अपने एक ममण कवि शिष्य के काव्यात्मक उद्गारों की भी सुन सकते थे। दुःखग्रस्त प्राणियों के लिए उनके हृदय में जो करुणा की विमल धारा बहती थी, उसके बारे में तो कुछ कहना ही नहीं बुद्ध प्राकृतिक दृश्यों की रमणीयता का अनुभव करते थे और पूर्ण ज्ञानी होते हुए भी उन्हें अपने एक शिष्य के वियोग में चारों दिशाएँ शून्य-सी जान पड़ने लगी थी। जिसने दुःख को जीवन के प्रथम सत्य के रूप में देखा था। उसकी संवेदनशीलता की सीमा नहीं आंकी जा सकती।

आज भी हम मनुष्यत्व के ऊपर देवत्व की बात कहते हैं। परन्तु तथागत ने इस क्रम को उलट दिया। उन्होंने कहा, “यह जो मनुष्यत्व है, वही देवताओं का सुगति प्राप्त करना कहलाता है।”

मनुस्सत्तं खो भिक्खेव देवानां सुगतिगमन संखाते।

देवता जब सुगति प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य बनता है। देवताओं में विलास है। राग, द्वेष, ईर्ष्या और मोह भी वहाँ है। निर्वाण की साधना वहाँ नहीं हो सकती। इसके लिए देवताओं को मनुष्य बनना पड़ता है। मनुष्यों में ही बुद्ध-पुरुष का आविर्भाव होता है, जिसकी देवता नमस्कार करते हैं। अतः मनुष्य धर्म देवता धर्म से उच्चतर है, जैसे कि विराग भोग से महत्तर है।

भगवान बुद्ध इतिहास के सर्वप्रथम पुरुष है, जिन्होंने बहुजन हित, बहुजन सुख और लोक की अनुकम्पा को अपने धर्मचक्र की धुरी बनाया। उनके बहुजन हित और बहुजन सुख की परिधि से शूद्र बहिष्कृत नहीं थे। बल्कि उन्हीं को लक्ष्य कर बहुजन हित शब्द का प्रयोग किया है।

जाति (जन्म) और वर्ण (रंग) की बाधा को दूर कर सका उसने उसके लिए ज्ञान के मार्ग को खोलने का प्रयत्न किया है। मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई जातिगत भेद नहीं है, इसको दिखाने का वासेट्ठसुत्त (मज्झियनिकाय 2/5/8) से अधिक स्पष्ट वैज्ञानिक आधार अन्यत्र दीखता नहीं।

क्रोध से क्रोध को हम कभी जीत लेंगे यह शक्य नहीं। अक्रोध से क्रोध को जीता जाता है इसे भगवान बुद्ध ने सनातन धर्म कहा है।

अनुकम्पक शास्ता ने कहा- मैं अपने चित को विकार युक्त न होने दूँगा और न दुर्वचन मुँह से निकालूँगा। मैत्री भाव से हितानुकम्पी होकर विहरूँगा। उस विरोधी व्यक्ति को भी मैत्री पूर्ण चित्त से आप्लावित कर विहरूँगा। उसको लक्ष्य कर सारे लोक को मैत्री पूर्ण चित्त से आप्लावित करूंगा जिसका कोई परिमाण नहीं है।

जिसने मैत्री भावना का अभ्यास किया है उसे क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता।

लोकानुकम्पा से प्रेरित होने पर भी वह उन लौकिक (लोकिय) बातों के प्रशंसक नहीं थे जिनमें साधारण जनता रमती है। जनता की प्रशंसा पाना उनका लक्ष्य नहीं था। इसलिये जन-जीवन को वह इतना ऊपर भी उठा सका। ब्रह्मा की प्रार्थना बुद्ध से उस समय की गई जिस समय उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था। हे शोक रहित! आप इस शोकमग्न जनता को देखें। “सोकावतिष्णं जनतं अपेत सोको अवेक्खस्सु” बौद्ध धर्म सच्चे अर्थों में जनता का जाति वर्ण, निर्विशेष लोक समूह का धर्म था।

बुद्ध-उपदेशों की एक बड़ी विशेषता यह है कि वे भगवान बुद्ध के अपने अनुभव पर आधारित हैं। उन्होंने जोर देकर कहा है, ‘‘मैं किसी श्रमण या ब्राह्मण से सुनकर नहीं कहता बल्कि मैंने जो स्वयं देखा है, स्वयं जाना है, स्वयं अनुभव किया है। उसे ही कहता हूँ।

आरामदण्ड ब्राह्मण का बुद्ध से प्रश्न- समाज में पारस्परिक कलह, ईर्ष्या-द्वेष क्यों हैं?

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए तथागत ने कहा था- ‘‘यह इन्द्रिय वासनाओं की दासता और उनके बंधनों के कारण है। इससे समाज में सर्वत्र कलह पारस्परिक संघर्ष और असंतोष व्याप्त है।’’

जिन साधकों ने शील की साधना पूरी कर ली है। उनके लिए ध्यान का अभ्यास आवश्यक माना गया है। ध्यान या समाधि में ही सत्य के दर्शन होते हैं। बिना ध्यान के प्रज्ञा की प्राप्ति नहीं होती और जिसमें प्रज्ञा नहीं है वह ध्यान नहीं कर सकता। अतः ध्यान और प्रज्ञा अन्योन्याश्रित हैं।

अब क्यों न मैं ध्यान सुख का अनुभव करते हुए निर्वाण में प्रवेश करूँ? कहा गया है कि तथागत के मन में इस प्रकार का विचार आना भी एक प्रलोभन था। वह भार का अन्तिम प्रयत्न था जिसे उसने सम्यक् सम्बुद्ध को मार्ग भ्रष्ट करने के लिए किया। किन्तु मारकी पराजय हुई। …… दुःखार्त लोक की करुणा के लिए उन्होंने ध्यान सुख छोड़ दिया। निर्वाण प्रवेश कुछ काल के लिए स्थगित कर दिया गया। तभी हमें बौद्ध धर्म मिला। इतने पर भी तथागत कभी ध्यान से रिक्त नहीं रहते थे। इसकी गवाही त्रिपिटक के प्रत्येक पृष्ठ पर हमें मिलती है। एक-एक वाक्य, एक-एक अक्षर जो तथागत के मुख से निकला है, उनकी सहज ध्यानावस्था का सूचक है। सम्पूर्ण त्रिपिटक बुद्ध का ध्यान ही है।

शास्ता शिष्यों की समान भूमि पर आ जाते हैं। उन्हें चिन्ता है कि कहीं उनका विशाल लोकोत्तर व्यक्तित्व शिष्यों के कल्याण में बाधक न बने। अतः वह उनके सुख अनतेडडडड हैं, ताकि शिष्य निःसंकोच भाव से उनसे पूछ सकें। धर्म स्वामी की वह विनम्रता मनुष्य धर्म की आधार भूमि है। भगवान बुद्ध ने अपने को भिक्षुओं का ‘कल्याण मित्र’ कहा है, जो उनकी मानवीय सहृदयता और विनम्रता को सूचित करता है। बुद्ध ने कहा- ‘‘जैसे मित्र, मित्र से पूछता है, वैसे तम मुझ से पूछो।’’ (सहायको विभिक्खेव सहायकस्य आरोचे तूति)

‘‘करुणा, विशेषतः स्त्री-जाति के प्रति करुणा, जिसके जीवन को भगवान पुरुष के जीवन से अधिक दुःख, भय मानते थे, तथागत के स्वभाव की एक प्रमुख विशेषता थी’’ गाथा- पटचारा नामक एक पागल, नंगी औरत जेतवन में बौद्ध के पास आ गई। लोगों ने इसे रोका पर बुद्ध ने आने देकर कहा- ‘‘भगिनी! स्मृति लाभ कर।’’ इससे होश आया। तब बुद्ध ने कहा- ‘‘पटचारे! चिन्ता मत कर। शरण देने में समर्थ व्यक्ति के पास तू आ गई है।’’ उसे उपदेश देकर उसका शोक दूर किया और वह एक प्रमुख साधिका बनी।

एक बार वक्कलि नामक अनुरक्त, भिक्षु शिष्य अधिक बीमार पड़ा। उसने भगवान का दर्शन करना चाहा। भगवान स्वयं गये। भिक्षु ने उन्हें सम्मान देने के लिए चारपाई छोड़नी चाही। किन्तु तथागत ने रोकते हुए स्वयं बिछे आसन पर बैठ गये। भिक्षु ने वंदना की कि दर्शन देकर आपने बड़ी कृपा की। इस पर भगवान ने कहा- ‘‘शान्त वक्कलि! जैसी तेरी गंदी काया है वैसी ही मेरी काया है। इस गंदी काया को देखने से क्या लाभ? वक्कलि! जो धर्म को देखता है, वह मुझे देखता है, जो मुझे देखता है, वह धर्म को देखता है।’’

एक बार एक भिक्षुणी सुन्दरी भगवान् के दर्शनार्थ श्रीवस्ती गई तो उनका स्वागत करते हुए भगवान ने उससे कहा था, ‘‘आ कल्याणी! तेरा स्वागत है।’’

‘‘तस्सा ते सागतं भद्दे।’’

बौद्ध धर्म बुद्धि प्रधान धर्म है। उसे ‘ऐहिपस्सिक’ धर्म कहा गया है, जिसका अर्थ ‘आओ और देख लो।’ विश्वास का यहां कोई स्थान नहीं है। वैज्ञानिक प्रक्रिया के समान खोज और परीक्षण उसके साधन हैं और विश्लेषण उसका मार्ग है। सत्य उसके लिए एक खोज करने की वस्तु है, पहले से तैयार की हुई देन-लेने के लिए नहीं। इसलिए मनुष्य को बांधने का प्रयत्न यहां बिल्कुल नहीं किया गया है। बौद्ध धर्म की यह एक ऐसी विशेषता है, जो उसे संसार के अन्य धर्मों से अलग कर देती है।

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