स्मरण शक्ति प्रयत्न पूर्वक बढ़ाई भी जा सकती है।

October 1978

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स्मरण शक्ति की प्रखरता से मनुष्य अधिक विचारशील समझा जाता है और उसके ज्ञान की परिधि अधिक बड़ी होती है। जबकि भुलक्कड़ लोग महत्वपूर्ण ज्ञान संचय से तो वंचित रहते ही हैं, साथ ही दैनिक काम-काज में भी जो आवश्यक था उसे भी भूल जाते हैं और समय-समय पर घाटा उठाते तथा ठोकरें खाते हैं।

किसी-किसी को स्मृति की प्रखरता जन्मजात रूप से भी मिलती है और वह इतनी पैनी तथा व्यापक होती है कि दूसरे लोग चमत्कृत होते और अवाक् रहते देखे जाते हैं।

इंग्लैण्ड निवासी एक अन्धे व्यक्ति फिल्डिंग को दस हजार व्यक्तियों के नाम याद थे। इतना ही नहीं वह आवाज सुनकर उस व्यक्ति का नाम बता देता था। इसी प्रकार की विलक्षणता एक और माण्टुगुनस नामक अंग्रेज में थी। वह जन्मान्ध था। पच्चीस वर्ष तक उसने पोस्ट मैन का काम किया। घर-घर जाकर चिट्ठी बाँटता था। उसके बाँटने में कभी गलती नहीं पकड़ी गई। वह पत्रों को सिलसिले से लगाता था और बाँटने से पहले दूसरों की सहायता से नाम और क्रम मालूम कर लेता था। इतने भर से हर दिनों सैकड़ों चिट्ठियाँ बाँटने में उसकी स्मरण शक्ति सही काम दे जाती थी।

जर्मन इतिहास में स्मरण शक्ति की प्रखरता के लिए विद्वान नेबूर प्रसिद्ध है। यह ख्याति उन्हें सबसे प्रथम तब मिली जब वे एक दफ्तर में क्लर्क थे। कागजों में संयोगवश आग लग गई। इस पर नेबूर ने सारे रजिस्टर और जरूरी कागज पत्र मात्र स्मरण शक्ति के आधार पर ज्यों के त्यों बना दिये। इसके बाद वे अपनी स्मृति की विलक्षणता के एक से एक बड़े प्रमाण देते चले गये और उस देश के प्रख्यात लोगों में गिने गये।

जर्मनी में ही म्यूनिख की नेशनल लाइब्रेरी लाइब्रेरी के डायरेक्टर जोनफ वर्नहर्ड डोकन की भी ऐसी ही ख्याति है। उन्हें आती तो कितनी ही भाषाएँ थीं, पर 9 भाषाओं पर उनका पूरा अधिकार था। उन्हें पत्र व्यवहार बहुत करना पड़ता था। इसके लिए उनके पास नौ विभिन्न भाषाओं के नौ अलग-अलग सेक्रेटरी थे। वे सबको एक साथ बिठा लेते थे और सभी को पत्र लिखते जाते थे। इतना ही नहीं उन्हें पूरी बाइबिल कंठस्थ थी। प्रसंग के अनुसार वे कहीं से भी उसे सुना सकते थे।

राजा भोज के दरबारी एक श्रुतिधर नामक विद्वान का उल्लेख मिलता है जो एक घड़ी (24 मिनट) तक सुने हुए प्रसंग को तत्काल ज्यों का त्यों सुना देते थे।

इतने पर भी यह नहीं समझा जाना चाहिए कि स्मरण रखने की विशिष्ट क्षमता कोई दैवी वरदान या जन्मजात सौभाग्य ही होता है। वह अन्य शारीरिक क्षमताओं की तरह एक सामान्य सामर्थ्य ही है जिसे प्रयत्नपूर्वक आसानी से बढ़ाया जा सकता है। जिस बात पर अधिक ध्यान दिया जाता है। वह स्वभावतः विकसित होने लगती है और जिसकी उपेक्षा की जाती है। उसका घटना भी सुनिश्चित है। यह तथ्य स्वास्थ्य, सम्पत्ति, शिक्षा आदि सामान्य बातों से लेकर यश, वर्चस्व और स्मृति तक पर समान रूप से लागू होता है। घटनाओं की, अवधारणाओं की उपेक्षा की जाय, उन्हें अन्यमनस्क होकर उपेक्षित भाव से देखा जाय और महत्वहीन समझा जाय तो वे स्मृति पटल पर देर तक न टिक सकेंगी। इसके विपरीत यदि उन्हें तन्मयता के साथ एकाग्र होकर समझने, देखने का प्रयत्न किया जाय तो उनका स्मरण बहुत समय तक बना रहेगा। अधिकांश महत्वपूर्ण घटनाएँ मनुष्य को आजीवन स्मरण बनी रहती हैं जबकि महत्वहीन समझी जाने वाली दो-चार दिन पुरानी होते ही विस्मरण हो जाती हैं।

मनुष्य-मनुष्य के बीच मस्तिष्कीय संरचना में अन्तर नहीं, मात्र उसमें स्थूलता और सूक्ष्मता का अन्तर पाया जाता है। वह भी जन्म-जात नहीं परिस्थितिजन्य होता है। जिस प्रकार व्यायाम, भोजन आदि से शरीर को सुदृढ़ बनाया जा सकता है उसी प्रकार मस्तिष्कीय प्रखरता की भी अभ्यास द्वारा अभिवृद्धि की जा सकती है।

मनोविज्ञानी कार्ल सीशोर का कथन है कि औसत व्यक्ति अपनी स्वाभाविक स्मरण शक्ति का मात्र दस प्रतिशत प्रयोग करता है। 90 प्रतिशत तो ऐसे ही मूर्छित और अस्त-व्यस्त स्थिति में पड़ी रहती है। फलतः मनुष्य मंद बुद्धि और मूर्ख स्तर का बना रहता है। यदि प्रयत्न किया जाय तो ऐसे लोग अपने को बौद्धिक दृष्टि से कहीं अधिक सक्षम बना सकते हैं। विकसित मस्तिष्क वालों को भविष्य में और भी अधिक तीक्ष्णता उत्पन्न कर लेने की पूरी-पूरी गुंजाइश है।

विस्मरण के तीन कारण है- (1) किसी बात को स्मरण रखे रहने की पूर्व इच्छा का न होना (2) प्रस्तुत विषयों को पूरे मनोयोगपूर्वक समझने का प्रयत्न न करना (3) प्रसंगों में अरुचि और उपेक्षा का भाव रहना, महत्व स्वीकार न करना। यही है वह मनोभूमि जिसमें देखी, सुनी, बातों को उथले और आधे-अधूरे रूप में ग्रहण किया जाता है। रुचि की गहराई न होने से वे बातें चिन्तन के लिए काम करने वाले कणों में गहराई तक प्रवेश नहीं करती और जल्दी ही विस्मरण के गर्त में गिरकर खो जाती हैं।

यदि प्रसंगों को भविष्य में स्मरण रखने की आवश्यकता, उपयोगिता समझी जा सके तो निश्चय ही उन्हें अधिक ध्यानपूर्वक पढ़ा या सुना जायेगा। आवश्यकतानुसार उन्हें मन ही मन कई बार दुहराया भी जायगा। किस सन्दर्भ में इस स्मृति की आवश्यकता पड़ सकती है, इसका भी तारतम्य मिला लिया जायगा। ऐसी दशा में जब भी वैसे अवसर आवेंगे, वे स्मृतियाँ सहज ही ताजा हो जायेंगी और विस्मरण की कठिनाई से हैरान होकर सिर न खुजाना पड़ेगा।

मनःशास्त्री वार्टलेट का कथन है कि जिन तथ्यों को भविष्य में याद रखने की आवश्यकता समझी जाय उनमें गहरी रुचि उत्पन्न करनी चाहिए और यह विचार करना चाहिए कि स्मरण से क्या लाभ और विस्मरण से क्या हानि होने की सम्भावना है। वे प्रसंग कब याद करने की आवश्यकता पड़ेगी और उन संस्मरणों का किस प्रकार क्या उपयोग होगा। इतना सोच विचार कर लेने के उपरान्त यदि किन्हीं तथ्यों की परत मस्तिष्क पर जमाई जायगी तो देर तक स्थिर बनी रहेगी और उन प्रसंगों को भूल जाने की कठिनाई उत्पन्न प्रायः नहीं ही होगी।

विद्वान गेट्स वर्ग ने पुनरावृत्ति पर बहुत जोर दिया है। वे प्राचीन काल की तोता रटन्त पद्धति का मजाक नहीं उड़ाते वरन् स्मरण को चिरस्थायी बनाने के लिए उपयोगी मानते हैं। शब्दों के रूप में रटना एक बात है और प्रसंग की क्रम शृंखला बनाकर उसे मानस पटल पर जमा लेना दूसरी। घटना अथवा प्रसंग को कल्पना चित्र की तरह देखा जाय और उसमें पूरी दिलचस्पी रखी जाय तो वह बात चिरकाल तक स्मरण बनी रहेगी। कविताएँ कितने ही लोग आसानी से याद कर लेते हैं, इसी प्रकार यदि प्रयत्न किया जाय तो किन्हीं आवश्यक सन्दर्भों को गद्य रूप में भी याद रखा जा सकता है।

प्रो. इवेगाडस का कथन है, ‘‘प्रसंगों को न केवल कल्पना चित्र के रूप में वरन् उनके तात्पर्य और फलितार्थ को भी ध्यान में रखते हुए यदि मानस पटल पर जमाया जाय तो जल्दी याद भी हो जायेंगे और देर तक टिकाऊ भी बने रहेंगे। आवश्यकतानुसार उनको स्मरण करने में किसी प्रकार की कठिनाई न होगी।’’

देखा जाय कि कौन घटनाएँ स्मरण रखने योग्य हैं? किन बातों की उपयोगिता है? किन तथ्यों को चिरकाल तक स्मृति पटल पर जमाये रहना आवश्यक है। जो उपयोगी हो उसे गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयत्न किया जाय, उन पर चित्त को एकाग्र किया जाय। कई-कई बार उन्हें वाणी एवं स्मृति से दुहराया जाय। आवश्यक हो तो नोट करके रखा जाय। ऐसा करते रहने से ही न केवल उपयोगी तथ्य स्मरण बने रहेंगे वरन् स्मरण शक्ति भी अनायास ही बढ़ती चली जायगी।

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