प्रभावी प्रशिक्षण के लिये उपयुक्त वातावरण की आवश्यकता

October 1978

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शिक्षण के दे वर्ग हैं- एक भौतिक उपार्जन उपभोग, दूसरा व्यक्तित्व का विकास परिष्कार। समग्र शिक्षण के लिए दोनों ही वर्ग समुचित साधन और परिस्थितियाँ चाहते हैं। अनुपयुक्त परिस्थितियों में दोनों में से एक भी प्रयोजन ठीक तरह सध नहीं पाता। शिल्प उद्योग भर सिखाने हों, भौतिक जानकारियाँ देनी हों तो सुविधा की दृष्टि से जो जहाँ रहता है उसे वहीं पढ़ने-पढ़ाने का प्रबन्ध करना होता है। किन्तु व्यक्तित्व का निर्माण करना हो तो वातावरण की अनुकूलता भी चाहिए। अन्यथा शिक्षा के नाम पर जानकारियाँ सीखीं और सिखाई जा सकेंगी, ऐसा बन नहीं पड़ेगा जिसमें विद्या के गुण बताये गये हों। शिक्षा की जो महिमा गाई गई है वह परिणाम दृष्टि गोचर हो नहीं सकेगा।

देखा जाता है कि बड़े शहरों में पढ़ाई की दृष्टि से लड़के जाते हैं। प्रसिद्ध विद्यालयों में दाखिला पाते और पढ़ाई करते हैं। इससे उनकी जानकारी और अभीष्ट विषय में कुशलता भले ही बढ़ती रहे पर चारों ओर छाये हुए वातावरण का प्रभाव उनके कोमल मन पर पड़ता है। फलतः वे सम्पर्क जन्य अनेक बुरी आदतों के शिकार बन जाते हैं। पढ़ाई की दृष्टि से सफलता मिलते हुए भी व्यक्तित्व को गरिमा वाले शिक्षा प्रयोजन में प्रायः असफल ही रहना पड़ता है।

प्राचीनकाल में इस तथ्य को ध्यान में रखा गया था। शिक्षण संस्थाएँ बनाते समय सुविधाओं का उतना ध्यान नहीं रखा जाता था जितना वातावरण की पवित्रता का। गुरुकुल प्रायः वन्य प्रदेशों में नदी सरोवरों के किनारे प्रकृति सौन्दर्य की समीपता में बनते थे। यह ध्यान रखा जाता था कि बालकों के कोमल मस्तिष्क पर दूषित वातावरण का बुरा प्रभाव न पड़ने पाये। ज्ञान और चरित्र के धनी अध्यापकों का प्रखर प्रशिक्षण और उपयुक्त वातावरण इन दोनों के ही समन्वय से प्राचीनकाल की शिखा सार्थक रहती थी और गुरुकुलों से निकलने वाले छात्र नवरत्न बन कर निकलते थे। आज शिक्षण की सुविधा सामग्री और विद्यालयों की भव्य इमारतें तो दृष्टिगोचर होती हैं किन्तु शिक्षकों की चारित्रिक सम्पदा वातावरण की पवित्रता के लिए चेष्टा नहीं की जाती। फलतः सुशिक्षित कहलाने वालों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होते चलने पर भी विद्या के फलस्वरूप सुशिक्षितों से जो आशा की जानी चाहिए उसकी पूर्ति हो नहीं पाती।

भारतीय तत्व दर्शन के अनुसार मनुष्य जीवन दो भागों में विभाजित है। एक पूर्वार्ध, दूसरा उत्तरार्ध। पूर्वार्ध भौतिक सुव्यवस्था के लिए उत्तरार्ध शालीनता की उच्चस्तरीय उपलब्धि के लिए। दोनों के लिए समुचित शिक्षण और अनुभव की आवश्यकता पड़ती है। पूर्वार्ध का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्याश्रम के नियम पालन करने होते हैं और उत्तरार्ध की वानप्रस्थ शिक्षा अरण्यकों में पूरी होती है। दोनों के लिए जहाँ शिक्षण की सुविधा एवं उत्कृष्टता आवश्यक है वहाँ उपयुक्त वातावरण भी चाहिए। अन्यथा ऊपरी खिलवाड़ तो होती रहेगी किन्तु वैसा कुछ बन नहीं पड़ेगा, जिसके आधार पर सुसंस्कृत नई पीढ़ी एवं जन नेतृत्व कर सकने वाली परिष्कृत साधु संस्था की उत्साहवर्धक गतिविधियाँ दृष्टिगोचर हो सकें।

संसार के विभिन्न क्षेत्रों का पर्यवेक्षण किया जाय तो प्रतीत होगा कि क्षेत्रीय विशेषता का वहाँ के पदार्थों और प्राणियों पर कितना प्रभाव पड़ता है। ठंडे देशों के निवासी मनुष्य गोरे रंग के सुदृढ़ और दीर्घ जीवी होते हैं। जहाँ गर्मी अधिक पड़ती है वहाँ स्वास्थ्य गिरे शरीर दुर्बल और रंग काले पाये जाते हैं। यही बात वनस्पतियों के सम्बन्ध में भी है। जड़ी-बूटियाँ वही हैं, पर विभिन्न क्षेत्रों में उगाये जाने पर उनके गुणों में न्यूनाधिकता उत्पन्न हो जाती है। हिमालय क्षेत्र में गंगातट पर उगी ब्राह्मी की तुलना में मैदानी क्षेत्रों में नहर रजवाहों के किनारे उगी हुई ब्राह्मी के गुणों में भारी अन्तर पाया जाता है। यही बात अन्य जड़ी-बूटियों के सम्बन्ध में भी है।

भुसावल क्षेत्र के केले, नागपुर क्षेत्र के संतरे, लखनऊ के आस-पास के आम, खरबूजे अपनी विशेषताओं के लिए प्रख्यात हैं। काश्मीर के सेब की अपनी विशेषता है। मैसूर के जंगलों में उगे हुए चन्दन वृक्षों में विशिष्ट सुगन्ध होती है। उन्हीं के बीज, पौधे यदि अन्यत्र बोये, उगाये जायँ तो बढ़ेंगे और फलेंगे तो अवश्य पर उनमें वैसी विशेषताएँ न होंगी। अन्न-शाक के गुण और स्वभाव में भी इसी आधार पर भारी अन्तर पाया जाता है। पंजाब का गेहूँ अन्य प्रान्तों की तुलना में अभी भी बढ़िया होता है। इसका श्रेय या दोष किसान या माली को उतना नहीं जितना उन क्षेत्रों की भूमि और जलवायु को है। संक्षेप में इसे वातावरण का प्रभाव कह सकते हैं।

पशुओं में भी इसी प्रकार का अन्तर देखने में आता है। कच्छ, हरियाणा, नागौर आदि क्षेत्रों के गाय, बैल कितने दुधारू कितने परिश्रमी होते हैं यह सर्व विदित है। बंगाल और दक्षिणी बिहार में जन्मने वाले गाय-बैल अपेक्षाकृत बहुत दुर्बल होते हैं। इसमें नस्ल का उतना श्रेय दोष नहीं जितना कि जलवायु का होता है। उपरोक्त स्थानों के इन पशुओं का निवास क्षेत्र यदि बदल दिया जाय तो नस्ल में सहज ही अन्तर पड़ता चला जायगा। विदेशों में मँगाये गये पशु अपने देश में रहने के उपरान्त उन विशेषताओं को खोते चले जाते हैं जो उनके मूल स्थान में रहती थीं। ठण्डे देशों के रीछ, कुत्ते, हिरन आदि गर्म क्षेत्रों के चिड़ियाघरों में मुश्किल से ही जी पाते हैं। जो रखे जाते हैं उनके लिए वैसे ही ठंडे वातावरण की व्यवस्था करनी पड़ती है।

वातावरण के प्रभाव की सशक्तता का परिचय देने वाले कितने ही कथा प्रसंग इतिहास में मिलते हैं। महाभारत में भाई-भाई का सम्बन्धी-सम्बन्धी का युद्ध होता था। निर्णायक स्थिति में पहुँचे बिना वे लोग पुराने सम्बन्धों की भावुकता में कोई अधूरा समझौता कर सकते थे। इस स्थिति को न जाने देने के लिए कृष्ण ऐसी भूमि को युद्ध क्षेत्र बना चुनना चाहते थे जिसके वातावरण में निष्ठुरता के तत्व अधिक हों। ऐसी भूमि तलाश करने के लिए उनने अपने दूत दूर-दूर तक भेजे। एक दूत ने अपनी जानकारी का ऐसा प्रसंग सुनाया जिससे युद्ध के लिए उपयुक्त भूमि की समस्या हल हो गई।

दूत ने आँखों देखा वर्णन बताते हुए कहा- ‘वर्षा हो रही थी। बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ बाँध कर पानी रोकने के लिए कहा- इस पर छोटा उबल पड़ा। अवज्ञा भरे कटुवचन कहने लगा। सुनते ही बड़े का आवेश चरम सीमा पर जा पहुँचा। उसने तत्काल लाठी से छोटे का सिर फोड़ दिया और उसको लाश को घसीटते हुए खेत के बहते हुए पानी को रोकने के स्थान पर गाड़ दिया।

इस घटना को सुनकर कृष्ण ने जान लिया कि इस वातावरण में ऐसे तत्व मौजूद हैं जिनमें स्नेह सौजन्य की नहीं क्रूर निष्ठुरता की ही वरिष्ठता है। यही महाभारत का युद्ध क्षेत्र ठीक रहेगा। वह कुरुक्षेत्र था। इसी को युद्ध भूमि बनाने का निर्धारण किया गया और वह अनुमान के अनुसार तभी समाप्त हुआ जब दोनों पक्षों के स्वजन सम्बन्धी आपस में लड़ मर कर समाप्त हो गये।

एक और ऐसी ही घटना है-श्रवणकुमार अपने अन्धे माता-पिता को तीर्थयात्रा पर ले जा रहे थे। वाहन का प्रबन्ध था नहीं, सो उन्होंने ‘कांवर’ बनाई। दोनों को दो ओर बिठाया और कन्धे पर लाद कर यात्रा कराने लगे। बहुत यात्रा तो प्रसन्नता पूर्वक कर ली, पर एक क्षेत्र में पहुँचते ही उनका विचार बदल गया। कांवर जमीन पर रख दी और माता-पिता से कहा- आप लोगों की आँखें खराब हैं पैर नहीं। आप लोग अपने पैरों चलिए मैं तो रास्ता बताने भर का काम कर सकता हूँ।

श्रवणकुमार के पिता इस परिवर्तन पर चकित रह गये। वे ऋषि थे। वस्तुस्थिति को उनने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जान लिया। उन्होंने पुत्र से सहमति प्रकट की और पैदल चलने को तैयार हो गये। साथ ही यह भी कहा- इस क्षेत्र से जल्दी से जल्दी बाहर निकल चलना चाहिए अन्यथा कोई भयंकर अनर्थ होने की आशंका बनी रहेगी। वैसा ही किया गया वे लोग तेजी में उस क्षेत्र को पार करके आगे चले गये।

महाभारत की कथा के अनुसार, जैसे ही वह क्षेत्र समाप्त हुआ श्रवण कुमार की आत्म ग्लानि उमड़ी और वे अपने कुकृत्य पर फूट-फूट कर रोने लगे। माता-पिता को कांवर पर बिठा कर फिर ले चलने का आग्रह करने लगे। संसार भर में माता-पिता की सेवा का अनुपम आदर्श उपस्थिति करके अमर यश पाने का जो अवसर हाथ में था उसे वे गँवाना नहीं चाहते थे।

पिता ने श्रवणकुमार को इन बुरे-भले परिवर्तनों का कारण बताते हुए कहा-‘बहुत समय पूर्व इस क्षेत्र में ‘भय’ नामक दानव रहता था। बड़ा नृशंस था। उसने अपने माता-पिता को मार डाला था। उसी की दुष्टता इस क्षेत्र पर अभी भी किसी रूप में छाई हुई है। उसी ने तुम्हारे मन पर विद्रोह का भाव भड़काया। अब वह क्षेत्र पीछे रह गया तो वह प्रभाव भी समाप्त हुआ और तुम्हारी स्वाभाविक सहज बुद्धि वापिस लौट आई।

सामान्य स्थानों पर प्रायः अवांछनीय वातावरण का ही बाहुल्य रहता है। अस्तु समर्थ अध्यात्म साधना के लिए स्थान बदलने की आवश्यकता पड़ती है। वानप्रस्थ में ऐसे परिवर्तन पर बहुत जोर दिया गया है।

हिमालय ऋषि तपस्वियों की भूमि रही है। किसी समय देव पुरुष इसी क्षेत्र में रहते थे। ऐतिहासिक सर्वेक्षण से प्रतीत होता है कि जिस स्वर्ग लोक का वर्णन पुराणों में किया गया है वह इसी धरती पर था। दशरथ का कैकेयी समेत रथ पर चढ़ कर देवताओं की सहायता के लिए जाने और उनके पक्ष में युद्ध करने का वर्णन मिलता है। अर्जुन भी इन्द्र के पक्ष में लड़ने के लिए गये थे। उर्वशी का उपहार इसी सहायता के बदले में देना चाहते थे जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया था। नारद जी बार-बार स्वर्गलोक जाते थे। धरती निवासियों की समस्याएँ स्वर्ग वासियों को बताते और स्वर्ग से प्रेषित समाधानों की जानकारियाँ धरती वालों को दिया करते थे। इन घटनाओं को यदि तथ्य माना जाय तो फिर स्वर्ग को कहीं धरती पर ही मानना पड़ेगा।

शिव प्रसंग की एक कथा है कि कलयुग का प्रकोप होने पर उन्होंने धरती छोड़ने का निश्चय किया और काशी से अपनी ममता हटा ली। तदुपरान्त वे अपने लोक चले गये और उत्तरकाशी रहने लगे। ऐसे पौराणिक उद्धरणों की यदि संगति बिठाई जाय तो देवलोक में धरती पर ही मानना पड़ेगा।

इस गये-गुजरे जमाने में तीर्थयात्रियों की भीड़-भाड़ के साथ उधर जा पहुँचने वाले अवांछनीय तत्वों की घुसपैठ होते हुए भी सारे भारतवर्ष की अपेक्षा ईमानदारी, सज्जनता और सद्भावना का वातावरण यहीं अधिक बढ़ा चढ़ा पाया जाता है। पैदल यात्रियों का बोझ ढोने वाले पहाड़ी कुली से प्रायः किसी को भी छल या विश्वासघात की शिकायत प्रायः नहीं करनी पड़ती। संसार भर में इन दिनों कहीं न दीख पड़ने पाण्डव कालीन बहुपति परम्परा का यह प्रदेश जानसार बाबर में अभी भी देखा जा सकता है।

एक संयुक्त पत्नी के साथ सब भाई शान्ति पूर्वक निर्वाह करते और सहकारिता का, सामूहिकता का परिचय इन नाजुक प्रसंग में भी देते हैं जबकि अन्यत्र इस सन्दर्भ में आशंका भर से तेवर चढ़ते और गले कटते देखे गये हैं।

यह एक छोटा-सा उदाहरण है, जिसमें इन दिनों में भी हिमालय क्षेत्र की आध्यात्मिक विशेषता की हलकी-सी झाँकी मिल सकती है। गंगा की पवित्रता हिमालय की महानता तपस्वी व्यक्तियों के महान क्रिया-कलापों की तपश्चर्या के तत्व इस क्षेत्र के वातावरण में अन्यत्र किसी भी स्थान की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाये जाते हैं।

युगशक्ति का उदय करने के लिए ब्रह्मवर्चस साधना की महान प्रक्रिया में ऐसे ही वातावरण और अभीष्ट परिणाम प्रस्तुत कर सकने योग्य बनाने के लिए ही इस आरण्यक को सप्त ऋषियों की सुसंस्कारित तपोभूमि में प्रतिष्ठापित किया गया है।


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