विग्रहों का कुचक्र और उसका निराकरण

October 1978

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वैयक्तिक कारणों से आये दिन होते रहने वाले लड़ाई झगड़ों से लेकर समाजों और वर्गों के मध्य चलने वाले संघर्ष क्यों उभरते हैं? आक्रमण प्रत्याक्रमणों का कुचक्र क्यों गतिशील रहता है? देश-देशों के बीच युद्ध क्यों होते हैं? इसके कारणों पर शोधकर्त्ताओं ने मनोविज्ञान को आधार भूत माना है। यों लड़ाइयों के छोटे-मोटे कारण सामयिक भी होते हैं, पर वे ऐसे नहीं होते जो वार्तालाप, समझौता, उदारता अथवा न्याय निर्णय के आधार पर हल न हो सकते हों। अत्यन्त गम्भीर कारणों से उत्पन्न होने वाले विग्रहों तक के जब समाधान खोज निकाले जाते हैं तो कोई कारण नहीं है कि तनिक सी बात पर इतना विग्रह उभरे, जिससे चिरकाल तक वातावरण विक्षुब्ध बना रहे और धन-जन की असाधारण हानि सहन करनी पड़े।

पिछली पीढ़ी के नृतत्व वेत्ता यह मानते रहे हैं कि मनुष्य की डरपोक प्रवृत्ति, किसी प्रतिपक्षी के भयंकर आक्रमण की आशंका से ग्रसित हो जाती है तो अपने ऊपर भयंकर विपत्ति टूटने की कल्पना करने लगती है। डर बढ़ता है। उस काल्पनिक आक्रमण को रोकने के लिए बचाव की रक्षा पंक्ति खड़ी करने के रूप में प्रतिपक्षी को दुर्बल बनाने की दृष्टि से छोटा आक्रमण किया जाता है। आक्रमण का प्रत्युत्तर प्रत्याक्रमण के रूप में मिलता है। फलतः यह कुचक्र चक्रवृद्धि क्रम से घूमता है और कुछ ही समय में तिल का ताड़ बन जाता है। चिनगारी भयानक अग्नि काण्ड का रूप धारण कर लेती है।

मनोविज्ञानी एक और भी कारण बताते हैं कि हर मनुष्य में अपनी विशेषता और बलिष्ठता सिद्ध करने की स्वाभाविक महत्वाकांक्षा होती है। उसे पूरा करने का सहज तरीका तो अपनी योग्यता एवं सफलता सिद्ध करने का ही हो सकता है, पर उसके लिए जिस दृढ़ता, तत्परता ओर कुशलता की आवश्यकता होती है वह जुट नहीं पाती। ऐसी दशा में हानि पहुँचाने की क्षमता प्रदर्शित करने का आतंकवादी तरीका अपनाया जाना। इसी में शौर्य पराक्रम समझा जाता है। आक्रमण करके दूसरों को नीचा दिखाना और अपनी सामर्थ्य सिद्ध करना भी लड़ाइयों की तरह ही एक बड़ा कारण होता है। बहाना तो किसी छोटे-मोटे अप्रिय प्रसंग का ही ले लिया जाता है।

अपराधियों की दुष्टताएँ इससे भिन्न हैं जो चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार की उद्दण्डता बरतने और मर्यादाएँ तोड़ने के रूप में सामने आती रहती हैं। इनमें अर्थ लोभ, एवं द्वेष बुद्धि की प्रधानता रहती है। दुस्साहस का अहंकार भी उसमें जुड़ा रहता है।

नई पीढ़ी के वैज्ञानिक कहते हैं- युद्ध मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं हैं। स्वभावतः मनुष्य सामाजिक और सहयोगी प्रकृति का है उसे सुविधा और खुशी चाहिए। युद्ध में आघात-प्रत्याघात से हर दृष्टि से हानि ही हानि उठानी पड़ती है। जीतने वाला भी घाटे में ही रहता है। ऐसी दशा में युद्ध को स्वाभाविक प्रकृति नहीं माना जा सकता है वह कुसंस्कारों एवं विकृत वातावरण की प्रतिक्रिया ही माना जा सकता है।

अहमन्यता का विकृत रूप उद्दण्डता है, जिसकी ओछी पूर्ति दूसरों का तिरस्कार करके की जा सकती है। झगड़ालू स्वभाव में यही तथ्य काम करता है। यदि मनुष्य को आरम्भ से ही शिष्टता, शालीनता, नम्रता और नागरिकता की शिक्षा दी जाय तो वह आक्रमण की अपेक्षा दूसरों की सहायता करने और बदले में श्रेय सम्मान पाने की बात सोचेगा। ऐसी दशा में मतभेद और स्वार्थ विपर्यय होते हुए भी ऐसा मार्ग खोज लिया जायगा जिसमें झंझट कम खड़ा हो और गुत्थी शान्ति से सुलझ जाय।

पक्षपात की मात्रा जितनी बढ़ेगी उतनी ही विग्रह की सम्भावना बढ़ेगी। उचित-अनुचित का भेद कर सकना तथ्य को ढूँढ़ना और न्याय की मांग को सुन सकना पक्षपात के आवेश में सम्भव ही नहीं हो पाता। अपने वर्ग की अच्छाइयां ही दीखती हैं और प्रतिपक्षी की बुराइयां ही सामने रहती हैं। अपनों की भूलें और विरानों के न्याय तथ्य भी समझ में नहीं आते। तब एकपक्षीय चिन्तन उद्धत बन जाता है। ऐसी दशा में आक्रमण प्रत्याक्रमण का क्रम चल पड़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं रह जाता। यदि तथ्यों को खोज निकालने का दूरदर्शिता अपनाते रहा जाय, कारणभूत तथ्यों को ढूँढ़ निकाला जाय और न्यायोचित समाधान के लिए प्रयास किया जाय तो तीन चौथाई लड़ाइयाँ सहज ही निरस्त हो सकती हैं। न्याय और औचित्य को अपनाने वाली उदार सद्भावना का विकास हो सके तो युद्ध प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है। विग्रह की चिनगारी अन्ततः कितने बड़े दुष्परिणाम प्रस्तुत कर सकती है, इस पर सही ढंग से विचार किया जा सके तो विग्रह की हानि और समाधान का सत्परिणाम सोचा जा सकेगा ऐसी दशा में युद्ध से बचे रहने की प्रवृत्ति पनपेगी और शान्ति का पक्ष मजबूत होता चला जायगा।

वर्ग भेद और वर्ग संघर्ष उत्पन्न कराने वाले कारणों को निरस्त न किया जा सके तो कम से कम उनकी उपेक्षा तो होनी ही चाहिए। सहयोग और समीपता के सूत्र तथा आधार ढूँढ़ने के लिए प्रयत्नशील रहा जाना चाहिए। सम्प्रदाय, भाषा, जाति, वर्ग, क्षेत्र, देश आदि के नाम पर उभरने वाली भेद बुद्धि को यथा सम्भव हटाने या घटाने का प्रयत्न चलना चाहिए। कम से कम इन मतभेदों को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने और दूसरों की तुलना में विशिष्ट सिद्ध करने का प्रयत्न तो नहीं ही किया जाय। अपनी मान्यताओं के प्रति निष्ठावान रहना ठीक है, पर उसका प्रदर्शन इस प्रकार नहीं होना चाहिए जिससे अन्य मान्यताओं का तिरस्कार होता हो। धर्म के नाम पर आये दिन कलह इसीलिए होते हैं कि अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उसकी विशेषताएँ बताने की अपेक्षा अन्यों की निकृष्टता सिद्ध करके अपना बड़प्पन सिद्ध करने का घटिया तरीका अपनाया जाता है। यही बात जाति गत श्रेष्ठता एवं देश-देश के बीच चलती रहती है। यदि दूसरों का, मनुष्यों और वर्गों का सम्मान करने का ध्यान रखा जाय तो समन्वय सहिष्णुता एवं सद्भावना के वातावरण में संसार में पाई जाने वाली अनेक भिन्नताएँ बिना टकराये अपने-अपने से ढंग से पनपती रह सकती हैं और एक दूसरे के लिए सहयोगी एवं पूरक सिद्ध हो सकती हैं। संघर्ष का एक ही केन्द्र बिन्दु रहे-अनैतिकता-असामाजिकता। इसके लिए वर्ग संघर्ष को नहीं समूची मानवता के संयुक्त रूप से टूट पड़ने की मुहीम खड़ी की जानी चाहिए।

प्रतिस्पर्धा की प्रवृत्ति यदि स्वाभाविक है तो श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए खेल-कूद स्वास्थ्य सम्वर्धन, शिक्षा, कला आदि में विशेषता, उदार सेवा, साधना जैसे अनेक क्षेत्र ढूँढ़े जा सकते हैं जिनमें लोग अपनी विशेषता बिना दूसरों का तिरस्कार किये या कष्ट पहुँचाये ही सिद्ध कर सकें।

उदार मनोवृत्ति अपना कर ही चैन से रहने और रहने देने की स्थिति बनती है। उदारता का अर्थ दान-पुण्य ही नहीं है वरन् यह भी है कि संकीर्ण दृष्टि से सोचना बन्द किया जाय और दूसरों की स्थिति में अपने आप को रख कर यह सोचा जाय कि गलतफहमी कहां है? और कहीं पक्षपात अथवा अनौचित्य को प्रश्रय तो नहीं मिल रहा है। न्याय और विवेक की कसौटी अपना कर वस्तुस्थिति को समझना अधिक अच्छी तरह सम्भव हो सकता है। प्यार और सहयोग पर यदि अपना विश्वास हो तो संघर्ष की कम ही आवश्यकता पड़ेगी। फिर अनिवार्यतः जो झंझट करना भी पड़ेगा उसकी न तो बहुत बुरी प्रतिक्रिया होगी और न द्वेष का कुचक्र देर तक चलता रह सकेगा।


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