अवांछनीयता को अस्वीकार कर दें।

October 1978

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इस संसार में सर्वत्र बहुत कुछ भरा हुआ है। उसमें प्रभावित करने की सामर्थ्य तो है, पर इसके लिए आवश्यक है कि उसे पकड़ने अपनाने के लिए ही नहीं धारण करने की क्षमता का आश्रय मिले। यह आश्रय न मिलने पर संसार के शक्ति समुद्र में भरी हुई अनेकानेक क्षमताएँ अपने स्थान पर चुपचाप बैठी रहती हैं।

बिजली सूखी लकड़ी, काँच आदि पर नहीं गिरती। उसके लिए नमी धातु आदि ऐसी वस्तुएँ चाहिए जो उसे पकड़ती हैं। ब्रॉडकास्ट की गई ध्वनि तरंगें आकाश में घूमती रहती हैं प्रकट वहीं होती हैं, जहाँ रेडियो यन्त्र खुला हुआ हो। ठीक इसी प्रकार विश्व ब्रह्माण्ड में भला या बुरा सब कुछ भरा होने पर भी अपने ऊपर उसी का अवतरण होता है, जिसे अपनाया जाता है। यदि उसे उपेक्षित कर दिया जाय तो वापिस लौट आयेगा और यदि प्रतिरोध करने के लिए कमर कस ली जाय तो फिर वातावरण का प्रभाव अनायास ही बहुत दूर हटता चला जायगा। उदाहरण के लिए शोरगुल को सामने रखकर विचार किया जा सकता है।

शोर की अपनी उत्तेजना है। उससे इनकार नहीं किया जा सकता है। उसके हानिकारक प्रभाव के बारे में भी दो मत नहीं हैं। किन्तु यहाँ एक तथ्य और भी जानने योग्य है। कि मानवी संरचना में एक अद्भुत विशेषता यह है कि वह बाहर के प्रभाव को अपनी मनःस्थिति के अनुसार बहुत कुछ घटा सकती है। कानों की संरचना ऐसी है कि वे एक सीमित परिमाण की ध्वनि तरंगों को ही ग्रहण करते हैं। उस स्तर से नीची-ऊँची तरंगें कानों से टकरा कर अपने रास्ते चली जाती हैं। यदि वे सभी सुनाई पड़ने लगतीं तो कानों के पर्दे उद्विग्न हो उठते और उनके लिए उस ध्वनि प्रवाह में से कुछ भी समझ सकना सम्भव न होता। मात्र शब्दों का कुहराम ही पल्ले पड़ता। ईश्वर की बड़ी कृपा है कि हमें उतना ही ध्वनि प्रवाह सुनने की, काम की और समझने की मस्तिष्क को क्षमता दी है जो जीवन निर्वाह के लिए नितान्त आवश्यक है। इसके अतिरिक्त एक और बड़ी बात यह है कि कोलाहल को अस्वीकृत भी किया जा सकता है और उसके साथ तालमेल बिठाकर भी चला जा सकता है।

अस्वीकृत करने से तात्पर्य यह है कि कोलाहल की ओर से ध्यान हटाकर अपने प्रिय प्रसंग में तन्मय हुआ जा सके तो फिर उन आवाजों से एकाग्रता भंग जैसी कोई कठिनाई उत्पन्न न होगी। दैनिक अखबारों के दफ्तरों के इर्द-गिर्द प्रेस की मशीनें टाइप राइटर तथा दूसरी हलचलें चलती रहती हैं और पास वहाँ एक कमरे में बैठे हुए सम्पादक लोग अपना ऐसा लेखन कार्य मजे में चलाते रहते हैं जो एकाग्रता के बिना किसी प्रकार सम्भव ही-नहीं हो सकता। यहाँ यही तथ्य सामने आता है कि यदि कोलाहल की ओर से ध्यान हटाकर अपने अभीष्ट प्रयोजन के साथ तन्मयता स्थापित की जा सके तो फिर मस्तिष्क और कान को अस्त-व्यस्त करने वाला व्यवधान दूर हो सकता है। भले ही वातावरण पर उसका प्रभाव पड़ता रहे।

तालमेल बिठाने से तात्पर्य यह है उसे अनोखा न मानकर जीवन की क्रम व्यवस्था में एक स्वाभाविकता के रूप में स्वीकार कर लेना। रेलगाड़ियाँ पटरी पर दौड़ती रहती हैं और वहीं बिलकुल सटे हुए बहुत से घर, झोंपड़े होते हैं। उनके निवासी गहरी नींद सोते रहते और गाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई दौड़ती रहती है। सामान्य रीति से थोड़ा सा-ही शोर नींद में व्यवधान उत्पन्न करता है और जरा-सी खटपट से नींद खुल जाती है। किन्तु बड़े-बड़े कल कारखानों के सिनेमा घरों के इर्द-गिर्द रहने वाले लोग उसे कोलाहल की परवा न करके सामान्य रीति से अपना निर्वाह आप चलाते रहते हैं। मशीनों पर काम करने वाले कर्मचारी मौका पाकर उधर ही कहीं लुढ़क जाते हैं और गहरी नींद की जरूरत पूरी कर लेते हैं। कोलाहल अपना काम करता रहता है और नींद अपनी जगह छाई रहती है। इसे तालमेल बिठाना कह सकते हैं। नदियों और झरनों के किनारे शोर लगातार चलता रहता है और उधर के निवासी उससे कोई बड़ी असुविधा अनुभव नहीं करते। वरन् उलटे उस कोलाहल के बन्द होने पर वे चौंकने लगते हैं और देखते ही क्या कुछ अचम्भा उत्पन्न हो गया। शोर के अभ्यस्तों को जब शान्त, एकान्त, निर्जन, कोलाहल रहित स्थानों में रहना पड़ता है तो उन्हें वह स्तब्धता बहुत अखरती है। शहरों की घनी बस्तियों में बहुत समय तक रहने वाले लोग जब एकान्त गाँव झोपड़ों में जा पहुँचते हैं तो उन्हें ऐसा कुछ अखरता है जिसके कारण अधिक समय तक उनका वहाँ रहना बन ही नहीं पड़ता और पैर उखड़ जाते हैं। इसी प्रकार बिजली की बत्तियों के चकाचौंध में रहने वाले लोग जब अंधेरे गाँव में जा पहुँचते हैं तो उन्हें वह प्रकाश का अभाव भयानक लगता है।

समीपवर्ती लोगों का प्रभाव पड़ने की मान्यता पर भी इसी दृष्टि से विचार किया जा सकता है। यह सही है कि संगति का प्रभाव पड़ता है। बुरे लोग अपनी हरकतों से सम्बन्धित लोगों को प्रभावित करते हैं और उन्हें अपना जैसा बना लेते हैं, पर यह बात तभी सिद्ध होगी जब दूसरे लोग उसे स्वीकार करें, उसके सामने सिर झुकायें। ऐसी दुर्बल मनःस्थिति पर ही कुसंग का प्रभाव पड़ सकता है। यदि उसकी उपेक्षा कर दी जाय अथवा विरोधी तेवर बदल दिये जायें तो किसी भी कुसंग का प्रभाव किसी पर भी पड़ नहीं सकता। पड़ेगा तो बहुत ही हलकी झलक दिखा कर देखते-देखते हवा में उड़ जायगा। जब अच्छे लोगों की संगति में रहने पर भी कई बुरे लोग अपनी कठोरता यथावत् बनाये रहते हैं। परिवर्तन नहीं लाते तो कोई कारण नहीं कि बुरे प्रभाव से, कुसंग से किसी की क्षति उठानी ही पड़े।

अपना व्यक्तित्व दुलमुल होगा तो चारों तरफ से आक्रमण होंगे। दुर्बलता जहाँ भी होगी, वहीं अवांछनीयता चढ़ दौड़ेगी। पानी निचाई की ओर ढलता है। ऊँचाई को देखकर तो उसके हौंसले ही परस्त हो जाते हैं। यदि अपना चिन्तन और चरित्र सुदृढ़ बना लिया जाय तो फिर इतने से ही वातावरण के द्वारा पहुँचने वाली हानि से बच निकलने की सम्भावना सहज ही बन जाती है।

खिड़की खोल देने पर ही सूरज की रोशनी और बाहर की हवा का अपने घर में प्रवेश करने का अवसर मिलता है। दरवाजा बन्द रहे तो अवांछनीयता की घुस पैठ को रोका जा सकता है। दरिद्रता से लेकर पिछड़ेपन तक की अनेक कठिनाइयाँ किसी ने न्यौतकर तो नहीं बुलाई होतीं, पर इतना निश्चित है कि उनकी रोकथाम के लिए जागरुकता भी नहीं बरती गई होती। बीमारियाँ हर किसी पर नहीं चढ़ दौड़तीं। जहाँ कमजोरी पाती है पोले कोतरों में पक्षियों के घोंसले बनाने की तरह वे भी अपना अड्डा जमाती हैं। दुर्भाग्य लगता तो कहीं से उतारा या थोपा हुआ होता है, पर वस्तुतः आलस्य और प्रमाद के रूप में उदासी और भीरुता के रूप में हमीं उसके स्वागत का थाल सजाते हैं। ठगों और दुराचारियों को अपनी घात लगाने के लिए किसी न किसी प्रकार आक्रान्ता को सहमत करना पड़ता है। सर्वथा अस्वीकृति और असहयोग हो तो उन्हें निराश लौटना पड़ेगा। प्रत्येक अवांछनीयता के सम्बन्ध में यही बात है। अस्वीकृत की प्रखरता ही तो शोरगुल की तरह अन्यान्य अवांछनीय तत्व भी वापिस लौटाये जा सकते हैं भले ही उनका अस्तित्व अपनी जगह बना रहे।

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