वह व्यक्ति जो समाज के उपकारों को भुलाकर अपने अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को अलग रखते हैं अथवा समाज के साथ असहयोग करते हैं या समाज विरोधी आचरण करते हैं, वे मुख्य रूप से जीवन के नियमों, मूल सिद्धान्तों की ही उपेक्षा करते हैं। इस प्रकृति के कारण मनुष्य को सम्पूर्ण समाज का विरोध सहन करना पड़ता है और इससे उसके व्यक्तित्व का विकास बन्द हो जाता है। मनुष्य की शक्ति सीमित और अल्प है। समाज के साथ व्यक्तित्व का सामंजस्य एक आवश्यक नियम है। स्वार्थपरता की− मनोवृत्ति मनुष्य को आन्तरिक दृष्टि से भी दीन−हीन, एकाकी बना देती है।
शरीर के सभी अंगों के श्रम, सहयोग परस्पर योगदान में ही मानव जीवन का अस्तित्व निहित है। कदाचित विभिन्न अंग परस्पर विरोधी, एकाँगी, स्वार्थी आचरण करने लगे तो समस्त शरीर का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायगा। समाज में भी व्यक्ति गत भावशक्ति लालसा को रखकर किये जाने वाले कार्यों के लिए कोई स्थान नहीं है। व्यक्ति गत− उत्कृष्टता, शक्ति , समृद्धि, वैभव, ऐश्वर्य की लालसा सारे समाज के लिए हानिकारक और स्वयं में विष बनने का रास्ता है।”