परिवर्तन अवश्यंभावी है उसके लिए तैयार रहें

May 1975

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कि सी समय पृथ्वी पर केवल दो ही महाद्वीप थे। उन्हीं से टूट−फूट कर आज के महाद्वीप और छोटे द्वीप बने हैं। ग्रह−नक्षत्र जिस तरह क्रमशः एक दूसरे से दूर होते जा रहे हैं, उसी प्रकार यह महाद्वीपों के अलगाव का अन्तर भी बढ़ रहा है। यह खिसकने की गति कितनी है? इस संबंध में अभी केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे हर साल दो इंच आपस का फासला अधिक बढ़ा लेते हैं। कभी जहाँ सुखी धरती थी आज वहाँ समुद्र हिलोरें ले रहा है। और जहाँ समुद्र था वहाँ विशाल नगर बसे हुए हैं। किसी समय भारत भूमि सोमाली और पश्चिम आस्ट्रेलिया के साथ जुड़ी थी। इस मान्यता को क्रमशः अधिक बल मिलता जा रहा है। और पुष्टि में अधिक प्रमाण मिलते जा रहे हैं। ओहियो विश्वविद्यालय के खोजी दल को अंटार्टिका क्षेत्र में रोसआइसेल्फ के निकट ‘हिप्पोपोटमस’ जीव का अवशेष मिला है। यह लुप्तप्राय नस्ल प्रागैतिहासिक काल में दक्षिण अफ्रीका तथा एशिया में पायी जाती थी। इस समय जहाँ समुद्र है पुराने समय में वहाँ थल रहा है। अन्यथा यह थल का प्राणी सत्ताईस सौ मील तैर कर किस प्रकार इस क्षेत्र तक पहुँच सकता था पृथ्वी धीरे−धीरे ठंडी हो रही है साथ ही सिकुड़ भी रही है यह मान्यता अप्रामाणिक नहीं ठहराई जा सकती है।

प्राचीन काल में पृथ्वी के दो विराट् महाद्वीप थे एक गोंडवानालेंड दूसरा लाटेशिया। गोंडवाना लेंड में भारत, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया तथा दक्षिणी ध्रुव प्रदेश थे, लाटेशिया में उत्तरी अमेरिका, ग्रीनलैंड, यूरोप और एशिया की भूमि थी। हिम प्रलय एवं समुद्री उथल पुथल ने थल को जल में जल को थल में बदल डाला और धीरे−धीरे पृथ्वी का मानचित्र ऐसा बना जैसा कि आज वह है। यह भी कब तक इस स्थिति में रहेगा कहा नहीं जा सकता है। क्योंकि महाद्वीप अभी भी चुप कहाँ बैठे हैं। वे अभी भी अलगाव की दिशा में बढ़ रहे हैं और उनके बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है।

पृथ्वी अपने जन्म के समय तक गैस के रूप में ही थी। और उसका मूल रूप अभी भी अन्तः गर्भ में भरा है वह अक्सर उभर कर ऊपर उछलता रहता है। और भयंकर ज्वाला मुखी प्रगट होते रहते हैं। ज्वाला मुखी फटते हैं तो उनके साथ अधिकाँश गैसें, हाइड्रोजन, गन्धक कार्बन, आक्सीजन आदि तत्वों की होती हैं। उनमें भाप भी मिली होती है अस्तु धुएं के गुबार के रूप में आसमान में छितराती है और घोर अँधेरा छा जाता है। इनके साथ−साथ धूल, राख, बालू, पत्थर, गैस कीचड़ आदि भी रहती है और वे लावा बनकर बहती या टीले जमा कर देती हैं।

सन् 1946 में पैरीक्यूटिस ज्वालामुखी फटा था तो वह प्रतिदिन एक लाख टन लावा उगलता था कभी−कभी इनमें बहुमूल्य खनिज भी प्राप्त होते हैं। जापान के एक ज्वाला मुखी ने प्रचुर मात्रा में गन्धक उगला था। भारत के दक्षिण में जो पठारी क्षेत्र है। उसकी काली मिट्टी रुई की भारी उपज देती है। यह किसी ज्वाला मुखी की ही देन हैं।

संसार के साठ प्रतिशत ज्वालामुखी प्रशान्त महासागर में फूटे हैं। वहाँ के अधिकाँश द्वीप समूह इसी प्रकार जन्मे हैं। पृथ्वी पर आये दिन पर्वत श्रेणियाँ उगती हैं− झीलें बनती हैं− द्वीप उठते हैं। साथ ही पुराने सुरम्य स्थल खण्डहर हो जाते हैं, यह उथल−पुथल अनादिकाल से चल रही है। और न जाने कब तक चलती रहेगी।

इस संसार में जब कुछ परिवर्तनशील है मनुष्य जीवन भी। हमारी वर्तमान स्थिति देर तक रहने वाली नहीं है। मरण को विस्फोट हमारी धूल बखेर देगा और ऐसी परिस्थितियों में पहुँचा देगा जो आज से सर्वथा भिन्न होंगी। उस परिवर्तन के लिए हमें तैयार रहने की तैयारी करनी चाहिये।


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