भगवान की माया (kahani)

May 1975

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नारद ने विष्णु भगवान से कहा− आपकी माया की महिमा तो बहुत सुनी है, पर उसे कभी देखा नहीं। कृपा हो तो उसे प्रत्यक्ष दिखादें।

विष्णु भगवान ने सहमति दे दी और अवसर आने पर उनकी मनोकामना पूरी करने का वायदा कर दिया।

बहुत दिन उपरान्त भगवान नारद को लेकर वन बिहार को चल दिये। चलते−चलते वे थक कर बैठ गये और नारद से बोले− बहुत प्यास लगी है कहीं से पानी ला दीजिए।

नारद जी कमण्डलु लेकर चल दिये। पानी समीप में कहीं नहीं मिला। तो उन्हें बहुत दूर नदी तक जाना पड़ा।

कमण्डलु में पानी भर ही रहे थे कि नदी तट एक रूपसी उन्हें बैठी दिखाई दी। नारद जी उसके पास पहुँचे और परस्पर सम्भाषण में दोनों एक दूसरे के घनिष्ठ बन गये।

दोनों प्रणय सूत्र में बँधे और वहीं गृहस्थ बसा कर रहने लगे। देखते−देखते वर्षों बीत गये और रूपसी दो पुत्रों की माता बन गई।

इतने में वहाँ महामारी फैली। गाँव के गाँव उजाड़ होने लगे। नारद जी और उनकी पत्नी ने निश्चय किया, इस क्षेत्र में प्राण संकट का खतरा है सो हम लोगों को कहीं अन्यत्र चलना चाहिए। बात पक्की हो गयी। यात्रा के साधन साथ लेकर नारद परिवार सहित सुरक्षित नगर में जा बसने के लिए चल पड़े।

रास्ते में नदी मिली। नदी पर लकड़ी का पुल था। वे लोग जब पुल पार करने लगे तो दुर्भाग्यवश पुल अचानक टूट गया। बच्चों समेत पत्नी उस भयंकर नदी में बह गई। अकेले नारद ही तैर कर किसी प्रकार अपनी प्राण रक्षा कर सके।

संयोगवश वह नदी वही थी जिससे नारद प्यासे विष्णु भगवान के लिए जल लेने आये थे। प्यासे विष्णु नारद को ढूँढ़ते−ढूँढ़ते वहीं आ गये जहाँ नारद अपने स्त्री बच्चों के मृत्यु मुख में चले जाने के कारण शोकातुर होकर बिलख−बिलख कर रो रहे थे। विष्णु भगवान ने नारद से इतनी देर तक पानी लाने में विलम्ब करने का कारण पूछा− तो वे चौंक पड़े और सपना टूट गया।

भगवान ने कहा− नारद असंख्य आत्माएं मेरी प्यास बुझाने के लिए अपने उद्गम से चलती हैं, पर रास्ते के आकर्षणों में भटक कर कहीं से कहीं जा पहुँचती हैं। यही मेरी माया है जिसे भाग्यवान ही पार कर पाते हैं।


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