चिर-यौवन और दीर्घजीवन की मानवी आकाँक्षा स्वाभाविक है। हर कोई यह चाहता है कि उसकी शक्ति सम्पन्न एवं सक्रिय युवावस्था चिरकाल तक बनी रहे और इस सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन का आनन्द लम्बे समय तक प्राप्त होता रहे। इसके लिए सहज सरल उपाय आहार−विहार का संयम और मानसिक सन्तुलन ही समझा जाना चाहिए किन्तु वैज्ञानिक उत्साह उसे दूसरी तरह हल करने के लिए प्रयत्नशील हैं। संयम न बरतना पड़े-आत्म निग्रह का-व्यवस्था बंधनों में बंधने का झंझट न रहे और चिर-यौवन तथा दीर्घजीवन का आनन्द मिलता रहे उसके लिए कई देशों में कई प्रकार के वैज्ञानिक प्रयत्न चल रहे हैं।
इस दिशा में अधिक उत्साहवर्धन समाचार अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय के जीव-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष प्रो.केरोल विलियम के शोध निष्कर्ष का है। सन् 1958 में उनने एक नये हारमोन की खोज की थी और उसका नाम तारुण्य हारमोन रखा था। यद्यपि वह मनुष्यों के लिए ठीक तरह प्रयुक्त हो सकने की स्थिति में परिष्कृत नहीं हो पाया है तो भी आधार ढूंढ़ जाने की बीत विश्वासपूर्वक स्वीकार करली गई है।
इससे पूर्व सन् 1926 में रूसी जीव-विज्ञानी सार्वे बोरोनोव बन्दरों की यौन ग्रन्थियाँ मनुष्य शरीर में लगा कर यौवन वापिस लौटान में अधिक सफलता प्राप्त कर चुके हैं। स्टाक होम की अन्तर्राष्ट्रीय शरीर विज्ञान काँग्रेस के अधिवेशन में जब उन्होंने अपना प्रतिपादन व्यक्त किया था तब उपस्थित सदस्यों में से किसी को भी इस पर विश्वास नहीं हुआ। किन्तु जब प्रयोग सामने आये तो यह स्वीकार करना पड़ा कि आज की आँशिक सफलता किसी दिन अभीष्ट परिणाम उपस्थित कर सकती है और मनुष्य चिर-यौवन का आनन्द ले सकता है।
सन् 1930 में एक और रूसी वैज्ञानिक अलेक्जेण्डर वोगोमोल्वेट्स ने एक नया यौवन रक्षक रसायन खोज निकाला था। इसका नाम उन्होंने ए.सी.एस. सीरम रखा था। यह हारमोनों का ही एक सम्मिश्रण था। प्रयोगों का आधार पर वे यह दावा करने लगे थे कि अगले दिनों मनुष्य की आयु को डेढ़ सौ वर्षों की अवधि तक बढ़ाया जा सकेगा।
डा. विलियम्स इस प्रयास में सन् 1958 में निरत हुए। यों पूर्ण सफलता तो उन्हें आजीवन नहीं मिली, पर जितना कुछ पता वे लगा सके वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं था। उनके शोधकार्य के उपलक्ष्य में अमेरिकन एकेडेमी आफ आर्टस एण्ड सान्सेज ने उन्हें पुरुष्कृत किया। ‘गगन हुम’ की फैलोशिप उन्हें मिली तथा इंग्लैंड की विगल्स वर्थ लैबोरेटरी के साधन सम्पन्न उपकरणों की सहायता से अधिक गहरी खोजें कर सकने का अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। रोडिनियस कीट में तो तारुण्य द्रव उन्हें प्राप्त न हो सका किन्तु रेशम के कीड़े में वह उन्हें मिल गया। अपने जीवन काम में ही वे इस सीमा तक सफल हो गये थे कि एक रेशम के कीड़े के हारमोन दूसरे को लगाकर उसका बुढ़ापा रोक दें और जवानी की निर्धारित अवधि की अपेक्षा दूने समय तक तरुण बना रहने दें।
डा. विलियम्स के बाद कार्नेल विश्वविद्यालय के डा.हार्ड इनेडेरेमेन ने वह प्रयोग गाय, बैलों के शरीर पर किया जिसमें उत्साहवर्धक सफलता मिली। एक मनुष्य के शरीर में से तारुण्य हारमोन निकाल कर दूसरे के शरीर में लगाने से भी वही परिणाम हो सकता था किन्तु वह अनैतिक होता। पुराणों में राजा ययाति का वर्णन है जिसमें बेटे की जवानी लेकर पिता तरुण बना था। वह कार्य अभी भी अनैतिक माना जाता है। यह प्रचलन मनुष्यों में चल पड़े तो उसे दूसरी नर बलि प्रथा कहा जाता। ऐसी दशा में मनुष्यों पर उस प्रकार के प्रयोग नहीं हुए पर इतनी सफलता अवश्य मिल गई कि प्रसव के समय जच्चा बच्चा को जोड़े रहने वाला जो नाल कटता है उसमें कई महत्वपूर्ण रसायनों की सत्ता रहती है और उसे निचोड़कर किसी शरीर में पहुँचाने में तरुणाई को देर तक बनाये रह सकना सम्भव हो सकता है।
इन प्रयत्नों को देखते हुए मनुष्य के इस साहस की प्रशंसा ही करनी पड़ेगी कि मौत बुढ़ापे से बराबर परास्त होते रहने पर भी उसने पूरी तरह हार स्वीकार नहीं की है और इस आशा का परित्याग नहीं किया है कि कभी कहीं से अमृत पाकर अमर भी बन सकेगा। दीर्घजीवन से भी तो उसे सन्तोष नहीं। इस प्रचंड जिजीविषा के पीछे छिपी हुई अभिलाषा और चेष्टा को सराहा ही जा सकता है।
इन प्रयत्नों के साथ-साथ यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि अधिक दिन जीना या अधिक सशक्त बने रहने मात्र से मनुष्य की सुख-शान्ति में कोई योगदान नहीं मिलता। महत्ता तो जीवन घड़ियों के सदुपयोग की है। बहुत समय तक धुंआ देकर सुलगती हुई आग की अपेक्षा कुछ ही समय प्रज्ज्वलित होकर जलने वाली अग्नि का गौरव कर्तृत्व किसी भी प्रकार कम नहीं। महत्व समय की लम्बाई का नहीं क्षणों के सदुपयोग की उत्कृष्टता का है। यदि निरर्थक और निष्कृष्ट जीवन जिया गया तो उस भार को ढोने से क्या लाभ मिलेगा? कितने ही पेड़ और प्राणी दीर्घजीवी होते हैं, पर इससे उनकी महत्ता कुछ बढ़ा थोड़े ही जाती है।
दीर्घजीवी प्राणियों में कछुआ सबसे अधिक भाग्यवान है। उसे भगवान ने 350 वर्ष की उम्र दी है। इससे कुछ ही कम मगरमच्छ है वह भी 300 वर्ष जी लेता है। ह्वेल, हाथी, कौआ, हंस, उकाव और मनुष्य जैसे कुछ प्राणी 100 वर्ष आयु लेकर ही आये हैं। अन्य जीवों को इतना भी नहीं मिला है। वनराज कहा जाने वाला सिंह तक 40 वर्ष में ही विदाई ले लेता है। इससे नफे तो बतख और बगुले हैं जो 50 वर्ष तक जीवित रहते हैं।
भारत के दीर्घजीवी वृक्षों में अग्रणी हैं-‘चिनार’ जो काश्मीर में पाया जाता है। इसके हजारों वृक्ष ऐसे हैं जो 300 वर्ष से अधिक आयु के है। इन सब में पुराना है वेहारा गाँव का विशालकाय चिनार है, जिसकी आयु 600 वर्ष की है। इसका तना 58 फुट परिधि का है।
सशक्तता की बात सोचे तो मनुष्य की अपेक्षा अन्य जीवधारी कई दृष्टि से कहीं अधिक सशक्त हैं। अपने वजन के आनुपातिक दृष्टिकोण से मनुष्य की तुलना में पक्षी 72 गुने अधिक शक्तिशाली होते हैं। पर इस सशक्तता के कारण उनका गौरव किसी प्रकार बढ़ नहीं जाता।
प्रकृति के नियमों को तोड़ते हुए-सरल स्वाभाविक सात्विक जीवन-क्रम की उपेक्षा करते हुए मनुष्य चिरयौवन अथवा दीर्घजीवन का आनन्द ले सकें यह सम्भव जड़े निरन्तर खोदी जा रही है वह ऊपरी उपचार से देर तक खड़ा रखा जा सकेगा और सूखने मुरझाने से बचाया जा सकेगा यह आशा करने वालों को अन्ततः निराशा ही हाथ लगेगी।
जिन्दगी का समय भले ही कम हो-सशक्तता भले ही सामान्य स्तर की हो, पर यदि उपलब्ध समय का सदुद्देश्यों के लिए उपयोग किया जा सके तो कम समय और कम शक्ति से भी इतना अधिक लाभ लिया और दिया जा सकता है कि उस पर चिर-तारुण्य और दीर्घ जीवन को निछावर किया जा सके।