यदि कोई अत्यन्त अनिवार्य आपत्ति ही सामने न खड़ी हो जाय तो कर्ज लेकर ऐश आराम के साधन जुटाना और बैठे ठाले गुलछर्रे उड़ाना एक भोंड़ी किस्म का पाप है। कर्ज लेने का आदी मनुष्य अपव्ययी ही नहीं अविवेकी और अविश्वस्त भी होता है। बच्चों को मितव्ययिता की शिक्षा आरम्भ से ही देना माता पिता का कर्तव्य है। फिजूल खर्च लड़कों की नादानी में अक्सर उनके बाप भी दोषी होते हैं जिन्होंने लाड़ प्यार के बहाने बच्चों की आदतें बिगाड़ ने में सहायता दी।
मिश्र के बादशाह फारुख को कर्ज खोरी से बहुत चिढ़ थी वे चाहते थे हर आदमी अपनी औकात के अनुसार गुजर-बसर करे और दूसरों के सामने उधार के लिए गिड़गिड़ा कर अपनी हेठी न कराएँ। उन्होंने एक ऐसा कानून बनाया था जिसके अनुसार कर्ज लेने वाले को महाजन के पास अपना बाप गिरवी रखना पड़ता है और जब तक कर्ज अदा न हो जाय बाप को महाजन के यहाँ गुलाम की तरह काम करना पड़ता था। इस जलालत से बचने के लिए हर बाप ने अपने बेटों को मितव्ययी बनाने का पूरा ध्यान रखना आरम्भ कर दिया था और बेटे भी बेइज्जती से बचने के लिए आरम्भ से ही अपनी औकात के अनुसार खर्च करना सीखे थे।