सर्वनाश उन्माद को हम मूक दर्शक बनकर न देखें

May 1975

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प्रगति का नशा आज हमारे मस्तिष्क पर ऐसा छाया हुआ है जिसके आवेश में यह देख सकना कठिन हो गया है कि विकास और विनाश में क्या अन्तर है? दूरदर्शिता से मानो हमने रिश्ता ही तोड़ दिया हो। आज का -अभी का-लाभ जिससे पूरा होता है-तात्कालिक समाधान जिससे भी मिलता हो वही किया जाना आज की नीति है। आज जो कदम उठाये जा रहे हैं उनका परिणाम कल क्या होगा यह सोचने की किसी को फुरसत नहीं। हो भी क्यों? जीव जगत को ईश्वरीय सत्ता से रहित और व्यक्ति को आत्मा से रहित माना जाने लगा है, तो फिर आदर्श की- विवेक की-भविष्य चिन्तन की परवाह भी क्यों की जाय? सभ्यता के बचने न बचने की चिन्ता क्यों हो? जब कृमिकीटकों से लेकर नर पशुओं की मूल सत्ता वृक्ष वनस्पति स्तर की जड़ मानी जाने लगी तो उसके नष्ट होने में दुख क्यों माना मनाया जाय। घास तो ढेरों कटती हैं-लकड़ी तो ढेरों जलती हैं- जब उसके कटने, जलने में दुख नहीं तो मनुष्यों का कतर-व्योंत कर डालने में, उन्हें जलाने-भूनने में संकोच की आवश्यकता क्या रही?

भौतिक विज्ञान ने एक हाथ जो हमें दिया है उस सबको भौतिक दर्शन ने दूसरे हाथ से वापिस छीन लिया है। मनुष्य को लक्ष्य रहित, आदर्श रहित, करुणा रहित, न्याय और नीति रहित बनाने का उत्तरदायित्व भौतिकवादी दर्शन का है जिसकी अभिवृद्धि वैज्ञानिक आविष्कारों की तरह ही उत्साहपूर्वक की जा रही है। यह तथाकथित प्रगति हमें विपत्ति के महान गर्त में धकेलने के लिए द्रुतगति से घसीटे लिये जा रही है। अधिक सुखी और अधिक सशक्त, अधिक सफल होने की धुन में हम आत्मघात की निरंकुशता ही हस्तगत कर रहे हैं।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रो.मेकडानल्ड ने ‘हाउ टू रेक द एनवायरनमेंन्ट’ में बताया है कि आँधी, तूफान, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि जैसे संकट वैज्ञानिक आक्रमणों द्वारा किसी भी देश के लिए उपस्थित किये जा सकेंगे और उस देश को लड़ाई लड़ सकने की क्षमता से वंचित किया जा सकेगा।

अब ‘वोटुलिनम टाक्सिन’ नामक महा जीव विष ढूंढ़ निकाला गया है इसकी 500 ग्राम मात्रा से सारी पृथ्वी, के जीवधारियों को नष्ट किया जा सकता है। ब्रिटेन के पत्रकार रोविनक्लार्क ने अपनी पुस्तक ‘द लायलेन्स वेपन्स’ में लिखा है अब सर्वनाश का अनुष्ठान बिना धूम धड़ाके के ही किया जा सकना पूर्ण सरल हो गया है। स्वीडन के समाज शास्त्री गन्नार मिरडिल ने भी यही आशंका व्यक्त की है कि जीवाणु विष से महामरण का उद्देश्य बिना अधिक शोर शराबे के ही पूरा किया जा सकेगा।

वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित अपने लेख में प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार जैक एण्डरसन का एक लेख छपा है जिसमें उन्होंने कहा है कि उनके पास ऐसे गुप्त कागज पत्र हैं जो प्रकट करते हैं कि अमेरिका रक्षा विभाग के विशेषज्ञ ऐसी लेसर किरणें बनाने में संलग्न हैं जो लोगों को अन्धा कर देंगी। ये आयुध की ऐरीस्पेन प्रयोगशाला में तैयार किये जा रहे हैं।

7 नवम्बर 71 को प्रशाँत महासागर में अमचितका द्वीप के निकट अमेरिका का अणु परीक्षण हुआ। उसकी शक्ति हिरोशिमा वाले बम से 260 गुनी अधिक थी। विस्फोट से 40 मील दूर तक की इमारतें तीन मिनट काँपती हुई देखी गई। मानों कोई भयानक भूकम्प आया हो। विनाश का प्रयोजन अति द्रुतगति से-अचूक रूप से सम्पन्न करने के लिए अद्भुत किस्म के प्रक्षेपणास्त्रों का आविष्कार होता चला जा रहा है।

प्राचीन काल में पुराण वर्णित अग्निबाण थे या नहीं यह विवादास्पद है, पर मिसाइलों ने उस कल्पना को मूर्तिमान बना दिया है कि मनुष्य घर बैठे ही विपक्षी का घर द्वार जलाकर खाक कर दे। इनका आविष्कार जर्मनी ने द्वितीय महायुद्ध के समय किया गया था। उनका नाम बी-1 तथा बी-2 दिया गया था। सही निशाना लगाने की स्वसंचालित कम्प्यूटर पद्धति तब तक विकसित नहीं हुई थी इसलिए वो निर्धारित निशाने पर नहीं पड़ी और उतना नुकसान नहीं हुआ, पर अब तो उन्हें पूर्णतया ‘गाइडैड’ बना लिया गया है। वे निर्धारित लक्ष्य को बिना एक इंच अन्तर किये विस्मार कर सकती है। उनका संचालन कम्प्यूटर विभाग करता है। इन दूरमारकों में अणुबम जड़े होते हैं। जापान पर बम गिराने पुराने ढर्रे के विमान गये थे अब वैसा करने की कोई जरूरत नहीं रही। कन्ट्रोल रूम में बहुत दवा कर धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक निशाना साधा जा सकता है और अणुबम गिराकर उस क्षेत्र को पूरी तरह तबाह किया जा सकता है। ‘इंटर कान्टीनेन्टल बैलेस्टिक मिसाइल’ (आई.सी.बी.एम.) की मारक शक्ति 8000 मील तक की है। द्वितीय महायुद्ध में प्रयुक्त हुई मिसाइलें तो इनके सामने मक्खी, मच्छर जैसी ही थीं उनमें बारूदी बम रहते थे और दौड़ 300 मील तक की थी।

विकसित मिसाइलों में सोलह तक ‘बार हैड्स’ लगाये गये हैं। अर्थात् एक ही दौड़ में उनके चार खण्ड अलग एक ही क्षण में एक ही साथ चार नगरों को विस्मार कर सकते हैं।

आमतौर से इन प्रक्षेपणास्त्रों को भूमि में बने गहरे तहखानों में रखा जाता है वे ऐसी मजबूती के साथ बनाये गये हैं कि शत्रु का आक्रमण उन्हें नष्ट न कर सके। उनका स्थान इतना गुप्त रखा जाता है कि राष्ट्रपति अथवा एक दो अत्यन्त विश्वस्त अधिकारियों के अतिरिक्त किसी को पता न चल सके। फिर भी यह आशंका तो बनी ही रहती है कि किसी प्रकार भेद शत्रु के हाथों तक पहुँच सकता है और उन पर हमला किया जा सकता है। इसलिए अब अधिक सुरक्षित यह समझा गया है कि उन्हें पनडुब्बियों में लादकर रखा जाय और वे पनडुब्बियां अपना स्थान बदलती रहें। अमेरिका ने इस प्रयोजन के लिए पोलरिस और पोसाइडन दो किस्म की पनडुब्बियाँ समुद्र में उतारी हैं जिनमें 16 ऐसी सशक्त मिसाइलें रखी रहती हैं जो 2500 मील तक मार कर सकें और एक साथ ही 14 स्थानों के निशाने साध सकें।

रूस भी इस ओर उदासीन नहीं हैं। उसने एस.एस.-9 नाम की तीन ‘वार हैड्स’ वाली मिसाइलें बनाने में सफलता प्राप्त की है, पर वे अमेरिका जैसी सशक्त और विकसित नहीं हैं।

आक्रमण के लिए आने वाली मिसाइलों की काट भी ढूंढ़ ली गई है। मिसाइल साइड रैडार इतने सशक्त बनाये गये हैं कि वे 10-12 फुट लम्बी और 30 हजार मील प्रति घण्टे की चाल से दौड़ते आने वाले उस अग्नि बाण को फुर्ती से पहचान लेते हैं। खतरे का अलार्म बजाते हैं। साथ ही दो सेकेंडों के भीतर आसमान में ए.वी.एम. स्प्रिन्ट मिसाइल दाग दी जाती है वह क्षण भर में 1 लाभ फुट ऊपर जाकर आसमान में फटती है ओर इतनी गर्मी उत्पन्न करती है कि आक्रमणकारी आयुध उसमें जल-जलकर नष्ट हो जाय। इसी किस्म की स्पार्टन और रीएन्ट्री ह्वेकल मिसाइलें भी बनी हैं। रूस और अमेरिका दोनों ही इन्हें अधिक संख्या में बनाने के लिए व्यग्र है। इन्हीं दिनों इन मिसाइल तोड़क आयुधों में- मल्टीप्लाई इण्डेपेन्डेण्ट रीएन्ट्री ह्वेकिल मिनट मौन गेलोश-फ्रेक्शनल आरविट के नये नाम जुड़े हैं। इन्हें दिन रात आकाश में रक्षा छतरी की तरह वायुयानों में उड़ाया जाता रहता है ताकि समय आने पर उन्हें तत्काल रेडियो संकेतों से दागा जा सके।

स्क्रिप्ट इन्स्टीट्यूशन आफ ओशनोग्राफी के निर्देशक विलियम ए. नाइरेन वर्न ने अपने लेख ‘मिलिट राइज्ड ओशंस’ लेख में यह आशंका व्यक्त की है कि अगले दिनों भूमि हथियाने की तरह समुद्र क्षेत्र हथियाने की बड़े राष्ट्रों में प्रतिद्वन्दिता चल पड़ेगी और जल के भीतर रहने वाले ऐसे वाहनों का विकास होगा जो घातक आक्रमणकारी अस्त्रों से सुसज्जित रहें और स्थल की तरह ही जल को युद्ध स्थली बनावें।

भावी परमाणु युद्ध के महाविनाश के उपरान्त क्या फिर कभी मनुष्य का अस्तित्व प्रकाश में आ सकेगा, इस प्रश्न के उत्तर में वैज्ञानिक हाँ कहते हैं। उनका कथन है कि तब थलचर तो प्रायः सभी समाप्त हो जायेंगे पर जलचरों में जीवन का अस्तित्व बना रहेगा। समुद्र इतना बड़ा है कि तीन हजार तक अणु विस्फोटों को हजम कर जायगा। निस्सन्देह ऊपरी सतह के प्रायः सभी प्राणी मर जायेंगे। इस गहराई तक हवा का प्रभाव पहुँचता है और नदियों द्वारा पानी आता और बादलों द्वारा जाता रहता है। पर इसमें नीचे की गहराई में बिना रीढ़ वाले ऐसे कीड़े रहते हैं जो कभी भी ऊपर नहीं आते। रेडियो विकिरण का प्रभाव समुद्र जल में प्रवेश तो करेगा पर छह मील गहराई तक पहुँचते-पहुँचते खारी जल में घुल जायगा। यों मरे हुए जलचरों के अस्थि कंकाल में जो रेडियो सक्रियता होगी वह गहरी तली तक न पहुँच सकेगी फल स्वरूप वे जीव बच जायेंगे।

लाखों वर्षों में जब धरती और समुद्र की तह रेडियो सक्रियता से मुक्त होगी तो वे तली में रहने वाले कीड़े ऊपर उभर कर आवेंगे और जीवधारियों की नई सृष्टि उसी प्रकार आरम्भ करेंगे जिस प्रकार अब से करोड़ों वर्ष पूर्व एक कोशीय जीवों में बहुकोशीय जीवों का विकास-क्रम आरम्भ हुआ था और क्रमशः अधिक समर्थ और बुद्धिमान प्राणी बनते-बढ़ते चले आये थे। गहराई में जो रीढ़ वाले जलचर बच जायेंगे वे सृष्टि के नये विकास में और भी अधिक योगदान देंगे। इस क्रम शृंखला में समयानुसार मनुष्य भी विकसित होगा। तब वह आज के जैसे मनुष्यों की आकृति-प्रकृति का होगा या भिन्न प्रकार का यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, पर इतना कहा जा सकता है उस स्थानापन्न मनुष्य की प्रौढ़ स्थिति कम से कम 30 करोड़ वर्ष में विकसित हो सकेगी।

महाविनाश के इस अनुष्ठान की सारी व्यवस्था चन्द सत्ता धारियों के हाथ में चली गई। उनमें से किसी की भी सकारण या अकारण सनक भूतल पर निवास करने वाले मनुष्यों का ही नहीं प्राणि जगत का भी सर्वनाश करके रख सकती है। ईश्वर की संरचना का श्रेष्ठतम उदाहरण कहला सकने वाला यह सुरम्य भूलोक देखते-देखते जल-भुनकर खाक हो सकता है अथवा भविष्य में प्राण धारियों की उपस्थिति के अयोग्य हो सकता है। प्रगति का अर्थ यदि यही है कि उससे चन्द मन्दोन्मतों को विश्व विनाश की छूट मिल जाय तो फिर यही उचित है कि समय रहते हम इस प्रगति को नमस्कार करके पीछे लौटने का प्रयत्न करें। भले ही हम पिछड़े लोग कह लायें पर कम से कम अन्य। प्राणियों की तरह अपनी जीवन सत्ता तो बनाये ही रह सकेंगे। यदि इस प्रगति युग में इतना बचा पायें तो भी कम संतोष एवं सौभाग्य की बात नहीं होगी।

क्या हम प्रगति के नाम पर चल रहे इस सर्वनाश के अनुष्ठान को मूक दर्शक बनकर देखते भर रहें? क्या इसे रोकने में हम कुछ नहीं कर सकते? एक बार जब व्यक्ति की निरीह स्थिति और सत्ता धारिणियों की अपरिमित शक्ति का विचार करते हैं तो हतप्रभ होकर बैठ जाना पड़ता है पर दूसरी ओर जब मनुष्य की मूल-भूत गरिमा पर विचार करते हैं तो उत्साह उठता है कि इस निरीह स्थिति में भी बहुत कुछ किया जा सकता है। हम विरोध की आवाज बुलन्द कर सकते हैं और साधन हीन होते हुए भी सुसम्पन्न सत्ताधारियों के विरुद्ध छापा मार युद्ध आरम्भ कर सकते हैं। जटायु ने रावण के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करके जिस ‘छापा मार’ युद्ध का मार्ग दर्शन किया था वह आज भी विश्व विनाश की प्रस्तुत प्रगति के विरुद्ध भी आरम्भ किया जा सकता है।

रासायनिक और जीवाणु आयुधों का विरोध भी प्रबुद्ध जनता द्वारा होता रहा है, पर उसका कोई विशेष प्रभाव नहीं हुआ अमेरिका के जिन विश्व विद्यालयों में जीव विषय पर खोज हो रही है वहाँ के छात्र उस खोज का विरोध और बहिष्कार कर रहे हैं पेन्सिलवेनिया विश्व विद्यालय के फिजीकल बायो केमिस्ट्री विभाग के 11 प्रोफेसरों ने पदवी दान समारोह में गैस, मास्क पहन कर इन शोधों पर विरोध प्रदर्शन किया था 17 नोबेल पुरस्कार विजेता और विज्ञान अकादमी के 117 सदस्य इन प्रयोगों पर रोज प्रदर्शित कर चुके हैं।

विज्ञानी पत्रकार नाइर्जल कैल्डर द्वारा सम्पादित एक पुस्तक एलन द पेग्विन प्रेस से प्रकाशित हुई है- नाम है ‘अनलेस पीस कम्स’ इसमें संसार के प्रमुख 14 राजनीतिज्ञों, युद्ध विशारदों और वैज्ञानिकों ने एक-एक अध्याय लिखा है सभी लेख बहुत ही तथ्यपूर्ण तथा माननीय है। इसमें भावी युद्ध की विभीषिकाओं का विवेचन, निरूपण करते हुए निष्कर्ष निकाला गया है कि विज्ञान और युद्ध दोनों एक साथ जीवित नहीं रह सकते। दोनों में से एक को तो हर हालत में मरना ही पड़ेगा, भले ही यह फैसला तीसरे महायुद्ध के उपरान्त हो अथवा पहले।

विज्ञान की शोधें आणविक, रासायनिक तथा विषाणु आयुध जिस तेजी से बना रही हैं उसका विस्तार क्रमश होता ही चला जायगा। आज तो निर्माण महँगा है उसी के कल सस्ता होने का रास्ता निकल आयेगा। यह घातक अस्त्र अभी थोड़े देशों के पास हैं पर अगले दिनों वे प्रायः सभी के पास हो जायेंगे। गरीब देश भी सस्ते किस्म के घातक अस्त्र बना लेंगे उत्कृष्टता भले ही कम हो पर मरण पर्व तो वे भी रच सकेंगे। तब उन पर नियंत्रण कर सकना कठिन हो जायगा। कोई भी शिर फिरा आदमी किसी भी देश में नहीं निकलेगा ऐसा कोई गारन्टी नहीं। राजनीति और विज्ञान के क्षेत्र में घुसा हुआ एक ही सनकी व्यक्ति सारी दुनिया का सफाया करने के लिए काफी है।

कैल्डर की दूसरी पुस्तक है-”द वर्ल्ड इन 1984” इसमें अब से दस वर्ष पश्चात् विज्ञान कहाँ पहुँच चुकेगा और उसकी प्रतिक्रिया संसार के विभिन्न क्षेत्रों में क्या होगी उसका चित्रण किया गया है। वह समय ऐसा होगा अब गतिरोध चरम सीमा तक पहुँच चुकेगा और इधर या उधर दोनों में से एक निर्णय करना ही पड़ेगा। विज्ञान जीवित रहे या युद्ध इस समस्या को भविष्य के लिए अनिर्णीत नहीं छोड़ा जा सकेगा। तब जीवन और मरण दोनों एक दूसरे के साथ इतने नजदीक आकर गुंथ रहे होंगे कि उनमें से एक को विजित और दूसरे को पराजित होने का फैसला किये बिना दूसरा कोई रास्ता ही नहीं रह जायगा। युद्ध होता है तो वह मानवी सभ्यता ही नहीं रह जायगा। युद्ध होता है तो वह मानवी सभ्यता की धरती पर विद्यमान जीवन की, साथ ही विज्ञान की समस्त प्रगति की सदा सर्वदा के लिए अंत्येष्टि करनी होगी।

क्या सत्ता धारियों के पागलपन के विरुद्ध गरीब आदमी नहीं जूझ सकता? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया। है कि आयुधों के सन्मुख खड़ा होकर लड़ने की ताकत मनुष्य में नहीं रहेगी। पर एक नई शक्ति विकसित होगी वह है-छापा मार ताकत। गरीब आदमी की इस ताकत को कोई छीन न सकेगा और इस आधार पर उच्छृंखल अहंमन्यता को चुनौती दी जा सकेगी। कहा गया है कि ‘छापा मार’ आन्दोलन एक दर्शन के रूप में विकसित होगा और उसमें पीड़ित, प्रताड़ित और पददलित जनता अपने को सेना के रूप में विकसित करके लड़ना आरम्भ करेगी और अधिनायकों के प्रचार, संगठन और आक्रमण कारी तंत्रों को निरर्थक बना देगी।


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